भोगवादी, त्यागवादी दो सिरे हैं।
और जीने के लिए दोनों खुले हैं।
भोग ही जिस जिंदगी का लक्ष्य होता।
इंद्रियों का सुख, उन्हें प्रत्यक्ष होता।
देह-सुख को मान सब कुछ वे चले हैं।।
त्यागवादी दृष्टि, सब कुछ त्यागना हैं।
छोड़ कर संसार, उससे भागना हैं।
त्याग के अतिवाद में ही वे ढले हैं।।
अतः ये दोनों सिरे, अतिवाद ही हैं।
नहीं व्यवहारिक, निरे अपवाद ही हैं।
नहीं स्रष्टा के सपन, इनमें ढले हैं।।
समन्वय ‘अध्यात्मवादी’ बनाता हैं।
‘तेनत्यक्तेन भुंजीथा’’ वह सिखाता हैं।
कबीर, नानक, रेदास यू ही ढले हैं।।
‘आध्यात्मिकता’ श्रेष्ठता करना वरण हैं।
और कर्तव्य पालना, धर्माचरण हैं।
आध्यात्मिक ‘लोक सेवा-पथ’ चले हैं।।
सभी आध्यात्मिक बनें तो लोकहित हो।
धर्म का ले नाम, क्यों जन-मन घृणित हो।
सभी उच्चादर्श इसमें आ मिले हैं।।
मंगलविजय विजयवर्गीय
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