रविवार, 4 अक्तूबर 2009

सेवा का रस

भूकंप राहत का कार्य उत्तर बिहार में डॉ0 राजेंद्रप्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति) की देख-रेख में बड़े जोरों से चल रहा था। दरभंगा से पटना के लिए वे डॉ0 रामबहादुर सिंह के साथ बैठे। वैशाख का माह था। सूर्य तप रहा था। सोनपुर स्टेशन पर गाड़ी रूकी । सभी को प्यास लग रही थी। स्टेशन पर नल में पानी नहीं था एवं पानी पिलाने वाला भी कोई नही था। एक ही आवाज थी-`पानी वाले कहाँ है -´ इस बीच राजेंद्र बाबू डिब्बे से गायब हो गए। कुछ देर बाद लोगों ने देखा कि राजेंद्र बाबू एक बालटी मे पानी और दूसरे हाथ में लोटा लिए आवाज दे देकर सभी को पानी पिला रहे थे। लोग तो प्यास को जानते थे, राजेंद्र बाबू को कौन पहचाता ! सारी रेल में घूम-घूम कर उनने पानी पिलाया । आज बिसलरी की बोतल हाथ में लेकर घुमने वाले क्या जानेंगे इस सेवा का रस, जो इस राष्ट्र के प्रथम प्रमुख ने सहज अकिंचन बनकर की थी।

मौत का आह्वान

1909 की बात है। मथुरा नगर में आयोजित एक धर्म सम्मेलन में सभी धर्मों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। सम्मेलन के अध्यक्ष थे स्वामी रामतीर्थ, जिनकी प्रसिद्धि अच्छी-खासी तब तक हो चुकी थी । न उनका कोई मठ था, न कोई आश्रम । ईसाइ धर्म के प्रतिनिधि फादर स्कॉट ने अपने धर्म का विवेचन करते हुए हिंदू धर्म पर कुछ भोंडे आक्षेप किए। यह उनने जान-बूझकर किया था, ताकि लोग उत्तेजित हों । श्रोतागण क्षुब्ध हो गए। स्वामी जी ने सबको शांत रहने का आग्रह करते हुए बड़ी विनम्रता से फादर स्कॉट के एक-एक आक्षेप का विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया। सबके समक्ष फादर ने माफी माँगी। वस्तुत: यह स्वामी जी के व्यक्तित्व, वाणी के तेज एवं उनके वाक्चातुर्य के साथ अगाध ज्ञान का ही परिणाम था। तीर्थराम से रामतीर्थ बने स्वामी जी ने 1906 की दीपावली के दिन `मौत का आह्वान ´ नामक लेख लिखा और यह कहते हुए -`` ऐ माँ की गोद के समान शांतिदायिनी मृत्यु ! आओ, इस भौतिक शरीर को ले जाओ । मैं शुद्ध, बुद्ध , निरूपराधि ब्रह्म हूँ।´´ गंगा में जलसमाधि ले ली । धन्य है भारतवर्ष , जिसे ऐसे संत, महापुरूषों की थाती मिली है।

वक्कुल स्थविर

वक्कुल स्थविर भगवान बुद्ध के उन शिष्यों में जाने जाते हैं , जिनने सही अर्थों में जीवन-साधना की। महाकाश्यप के समान ही उग्र तप किया, पर धर्म-प्रवचन में उनकी रूचि नही थी। वे लगभग 160 वर्ष जिए, पर अपने जीवन से उनने उपदेश दिया। स्थविर राजगृह के समीप अचेल काश्यप से हुआ उनका वार्तालाप पढ़ने योग्य है। काश्यप ने पूछा-`` आज आप को सन्यस्थ हुए कितना समय हो गया - ´´ वक्कुल बोले-`` मुझे अस्सी वर्ष हो गए।´´ काश्यप ने पुछा-`` इस बीच कभी आपके चिंतन में विषय-वासना ने आक्रमण किया - ´´ भिक्षु बोले-`` एक बार भी भगवान की कृपा से मेरे मन में काम संबंधी विचार नहीं आया।´´ ``कभी `मै´ ने सताया -´´वक्कुल बोले-``द्वेष किसी के प्रति नहीं जागा, मैं समझता हूँ कि यही उत्तर काफी है । हिंसा-द्रोह संबंधी विचार कैसे होते हैं, मै नही जानता । मैने कभी गुरूभाइयों से अपने शरीर की सेवा नही करवाई। हर्रं के टुकड़े के बाराबर की औषधी कभी नही खाई शय्या पर मैं कभी लेटा नहीं। भिक्षुणियों के संपर्क में मै कभी रहा नहीं। ´´ अपने स्वस्थ खिलते चेहरे वाले भिक्षुओं को भगवान ने संबोधित कर कहा-``भिक्षुओं ! वाणी से उपदेश देना जरूरी नहीं। अपने आचरण से सीख दे, वही सच्चा उपदेशक है। मेरे स्वस्थ नीरोग निर्विकार शिष्यों में श्रेष्ठ है वक्कुल ।´´

चंद्रसिंह गढ़वाली

30 अप्रेल, 1930 का प्रसंग है। पेशावर के किस्साखानी बाजार में एक सभा हो रही थी। बड़ा विशाल जनसमुह था। चरखे वाला तिरंगा मंच पर लहरा रहा था। रॉयल गढ़वाल रेजिमेंट के सैनिकों को वहाँ तैनात किया गया था। कप्तान रिकेट उसका कप्तान था। जनता ने जोशोखरोश में `महात्मा गांधी की जय´, `अल्ला हो अकबर´ के नारे लगाना आरंभ कर दिया। तभी एक गोरे अर्दली ने कप्तान को एक कागज थमाया, जिसमें उच्चाधिकारियों द्वारा गोली मारने का आदेश था। उसे पढते ही कप्तान चिल्लाया-``गढ़वाली ! थ्री राउंड फायर ! परंतु कोई प्रतिक्रिया सैनिको पर नही हुई। एक तेजस्वी गढ़वाली हवलदार आगे आया और अकड़कर बोला-``गढ़वाली ! सीज फायर ´´(गोली मत दागो) सबने अपनी राइफलें जमीन पर रख दीं। यह प्रत्यक्ष विद्रोह था। तेजस्वी गढ़वाली हवलदार का नाम था चंद्रसिंह। वे एक कृषक परिवार में जन्में थे और उनने प्रथम विश्वयुद्ध में कई पदक पाए थे। उनका ही संकल्प था कि संपूर्ण रेजिमेंट उनके साथ एकजुट हो गई। सभी सैनिक बंदी बना लिए गए। चंद्रसिंह गढ़वाली को आजन्म कैद मिली । इस घटना का भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में अपना एक महत्तपूर्ण स्थान है। उत्तराखंड के वीर ने`भारत छोड़ो आंदोलन´ की आधारिशला रखी ऐसा कहा जा सकता है।

समर्थ गुरू रामदास

समर्थ गुरू रामदास (1608-1682) ने साधना और ईश्वर साक्षात्कार के बाद पहली यात्रा काशी की की। वहाँ जब वे काशी विश्वनाथ के मंदिर पहुँचे तो वहाँ के कुछ पुजारीगणों ने अनकी वेशभूशा देखकर उन्हें बा्रह्मणों से भिन्न इतर जाति का मान लिया। उनने शिवजी की पिंडी के दर्शन करने से मना कर दिया। इस पर वे` जैसी प्रभु रामचंन्द्र जी की इच्छा´ कहते हुए बाहर से दंडवत् प्रणाम कर लौट पड़े। कहा जाता है कि उनके बाहर निकलते ही पुजारियों ने देखा कि पिंडी लुप्त हो गई है। वहाँ विद्यमान प्रतिमा भी नही है। वे घबराए। दौड़कर समर्थ रामदास से क्षमा-याचना की। जब वे पुन: मंदिर में आए, तब दृश्य पुन: पहले जैसा हो गया। इस चमत्कारी घटना ने काशी में उसका सम्मान बढ़ा दिया। चारों ओर उन्हीं की चर्चा होने लगी।

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