रविवार, 8 अगस्त 2010

विचार-परिवर्तन


आज मनुष्य एक ऐसा जानवर हो गया है, जिसको समझदारी सिखाई जानी चाहिए ।

उसके लिए दूसरी चीजें, जिनको हम शारीरिक आवश्यकताएँ कहते हैं और जिनको हम आर्थिक आवश्यकताएँ कहते हैं, अगर पहाड़ के बराबर भी जुटा करके रख दी जाएँ, तो आदमी का रत्ती भर भी भला नहीं हो सकता । हम देखते हैं कि गरीब आदमी दुखी हैं । अमीर आदमी उससे भी ज्यादा हजार गुनी परेशानी में, उलझनों में, क्लेशों में पड़े हुए हैं, क्योंकि उनके पास विचार करने की कोई शैली नहीं है । अगर उनके पास कोई विचार रहा होता तो इतना अपार धन उनके पास पड़ा हुआ है, जिसके द्वारा समाज में न जाने क्या व्यवस्था उत्पन्न हो गई होती । न जाने समाज का कैसा कायाकल्प हुआ होता । लेकिन नहीं, वही धन बेटे में, पोते में, जमीन और जेवर-सब में ऐसे ही तबाह होता चला जाता है । 

पैसा है तो इसका क्या करें ? समाज के सामने ढेर लगी समस्याओं का हल किस तरीके से करें, कुछ समझ में नहीं आता । ऐसी बेअक्ली की अवस्था को दूर करने के लिए यह आवश्यकता अनुभव की गई कि लोगों को समझदारी सिखाई जाए । समझदारी केवल ज्योमेट्री, इतिहास, भूगोल को नहीं कहते । समझदारी उसे कहते हैं, जिसके द्वारा सही चिंतन करने के बाद में आदमी व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं, समाज की समस्याओं और अपने युग की समस्याओं का समाधान कर सके । ऐसी जानकारियों का नाम ज्ञान है । आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की समझी गई है कि हजार वर्ष की गुलामी के बाद आदमी के विचार करने का ढंग भ्रष्ट हो गया है, उसका कण-कण दूषित और विकृत हो गया है । इसको उखाड़ करके फेंक दिया जाए और सोचने के नए तरीके लोगों के दिमागों में स्थापित किए जाएँ । यह शिक्षण करना मानव जाति की, समाज की सबसे बड़ी सेवा है । 

पिछले हजारों वर्ष ऐसे भयंकर समय में गये हैं, जिसमें सामंतवाद से लेकर के पंडावाद तक छाया रहा । राजसत्ता जिन लोगों के हाथ में रही, उनको हम सामंत कहते हैं, उनको हम राजा कहते हैं और उनको हम डाकू कहते हैं । उन लोगों ने सिर्फ अपने महल, अपनी अय्याशी और विलासिता के लिए समाज का शोषण किया और बराबर ये कोशिश की कि कहीं ऐसा न हो जाए कि विचारशीलता फैल जाए और लोगों में अनीति के विरुद्ध बगावत का भाव पैदा हो जाए, न्याय की भावना पैदा हो जाए । फिर हमारा क्यों करेंगे ये लोग समर्थन? यही कोशिश पंडावाद ने भी की कि लोग समझदार न होने पाएँ । समझदार हो जाएँगे तो हमारे शिकार हमारे हाथ से निकल जायेंगे । 

सामाजिक कुरीतियों को देखिये न; कोई तुक है इसमें? कोई बात है? कोई चीज है इसमें? हमारी कुलदेवी पर हमारे बच्चे का मुंडन होगा । कुलदेवी कहाँ रहती है तुम्हारी? २००० मील दूर रहती है । वहाँ क्या करोगे? बच्चे का मुंडन कराने ले जाएँगे । फिर क्या हो जाएगा? देवी को बालों का चढ़ावा देंगे । क्या करेगी देवी? बालों को खाएगी । रोटी नहीं खाती? नहीं, बाल खाती है । बाल नहीं खिलाये तो? ये देवी बीमार कर देगी और बच्चे को मार डालेगी । देवी है कि चुड़ैल है । इस तरह की चुड़ैलों को देवियाँ बना दिया गया, कुलदेवी बना दिया गया । पागल आदमी कलकत्ता से रवाना होता है और कुलदेवी उसकी जैसलमेर में रहती है । दो हजार रुपया फूँककर के आ जाता है और बच्चे का मुंडन करा के आता है और समझता है कि मैंने देवी के ऊपर अहसान कर दिया या देवी ने उसके ऊपर अहसान कर दिया । हमारी सामाजिक कुरीतियाँ कैसी बेहूदा हैं! ये कुरीतियाँ हमारा सारा का सारा पैसा खा जाती हैं, अक्ल खा जाती हैं । जाने क्या से क्या खा जाती हैं? 

जन्म पत्रियों की बात को ले लीजिए न । जन्मपत्री का जंजाल ऐसा खड़ा हो गया है कि लाखों आदमी उसी से उल्लू बने फिरते हैं । मंगल आ गया, राहू आ गया, चन्द्रमा आ गया, शुक्र आ गया । चन्द्रमा इन्हीं के ऊपर आ गया है और यहीं राजा साहब बैठे हुए हैं । चन्द्रमा भी इन्हीं के पीछे-पीछे फिरेगा । चन्द्रमा के पास काम ही नहीं है । इन्हीं को मारेंगे, इन्हीं की पूजा करेंगे, इन्हीं पर लक्ष्मी बरसाएँगें, इन्हीं को हानि पहुँचाएँगे । बस यही रह गये हैं नवाब के तरीके से । चन्द्रमा इन्हीं के पीछे पड़ेगा । बेवकूफ कहीं के । इस तरीके से बे अक्ली और बेवकूफी का कोई अन्त है क्या? 

आदमी के जी में न जाने कैसे यह विश्वास जम गया है कि हम अगर बेईमान होकर के जिएँगे तो और मालदार हो जाएँगे । कामचोरी करेंगे तो हमारी तरक्की हो जाएगी । ये करेंगे, तो हमारा ये हो जाएगा । भ्रष्ट आदमी का मन ऐसा घटिया हो गया है कि मेरे मन में ऐसा आता है कि सारी की सारी विचार करने की शैली को मैं बदल दूँ । एक और भी जमाना ऐसा आया था कि जिस जमाने में हर आदमी के विचार करने का ढंग बहुत ही घटिया और बहुत ही नीच हो गया था । फिर क्या हुआ? भगवान ने अवतार लिया था और वह परशुराम जी का अवतार था । 

परशुराम जी के अवतार ने हाथ में एक कुल्हाड़ा लिया और उस कुल्हाड़े से आदमियों के सिर काट डाले । सिर काट डालने का क्या मतलब है? परशुराम भगवान का अवतार इसी उद्देश्य के लिए हुआ था कि दुर्गुणों को, लोगों की अक्ल और समझ को हम बदल दें, तो आदमी की निन्यानवें फीसदी समस्या अपने आप हल हो जाएगी । 

मनुष्य की जितनी भी समस्याएँ हैं, सब उसकी बेअक्ली की पैदा की हुई समस्याएँ हैं । संतान नहीं होती है, तो बहुत ही अच्छी बात है । इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? संतान नहीं है, तो आप अकेले हैं । मियाँ-बीबी दो आदमी रहिए और अपना बचा हुआ पैसा समाज के लिए लगाइए । खुशहाली से रहिए, सैर कीजिए । बच्चे के पालन करने की जिम्मेदारी नहीं है, रोने-चिल्लाने की जिम्मेदारी नहीं है । दवा-दारू की जिम्मेदारी नहीं है । बताइए, इसमें क्या बात है? नहीं साहब! हमारे बच्चा नहीं होता, हम तो दुखी हैं । हमारी मनोकामना पूर्ण हो जाए तो अच्छा है । हमारे बच्चा हो जाए, तो अच्छा है । बेवकूफ कहीं का! बेअक्ली और बेवकूफी हमारे रोम-रोम में इस बुरी तरीके से छा गई है कि मनुष्यों को मैं क्या कहूँ? मैं उसको जानवर ही कह सकता हूँ । 

साथियो! अपनी युगनिर्माण योजना के युग परिवर्तन के कार्यक्रम में पहला स्थान विचार परिवर्तन को दिया गया है । हमने ये कोशिश की है कि इस तरह के विचारों की एक धारा और उसकी पद्धति और संहिता का निर्माण किया जाए, जो मनुष्यों के गलत सोचने के स्थान पर सही सोचने का मार्गदर्शन कर सके । मैंने ढेरों पुस्तकें पढ़ी है, लेकिन ऐसा साहित्य कहीं नहीं है, जो आदमी को और उलझन में डालने के बजाय उसको सही सोचने का तरीका सिखाए । सही सोचने का तरीका सिखाने के लिए युगनिर्माण योजना ने ऐसा साहित्य, ऐसी विज्ञप्तियाँ, ऐसे ट्रैक्ट कम-से-कम मूल्य पर छापे हैं, जिसको पढ़ने के बाद आदमी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा मिले । आदमी को यह प्रकाश मिले कि हमारे सोचने का सही तरीका क्या है, व्यक्ति की उलझनों का वास्तविक कारण क्या है, उनका समाधान किस तरीके से किया जा सकता है? अगर गलत सोचने की बात को आदमी जान ले और सही सोचना शुरू कर दे, तो मजा आ जाए

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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