रविवार, 14 सितंबर 2008

स्थायी मिलन का रहस्य

प्यार के अंकुरित होते ही पिय मिलन की एक हूक उठती है। छटपटाता दिल अपने प्रिय से मिलने के लिए तड़पता है। भावाकुल हृदय मिलते भी है पर हर मिलन उनमे एक अतृप्ति पैदा करता है। प्यास को बुझाने के बजाये उसे और गहरा करता है। प्रत्येक मिलन के बाद उनकी छटपटाहट, बैचेनी और बढती जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे स्थायी मिलन के रहस्य से अनजान हैं।

प्यार इबादत है, आराधना है, उपासना है। इसके रहस्य को जान लिया जाय तो वह स्वयं परमेश्वर है। जो प्रेमी को पवित्रता, सजलता, शान्ति, एकात्मता और अनन्तता का वरदान देने से नहीं चूकता। प्रेम के रहस्य जानने वाला प्रेमी ' रसो वै सः ' के तत्व को समझ कर स्वयं रसमय-परमेश्वरमय हो जाता है।

प्यार के अनेकों किस्से दुनिया मैं प्रचलित है। शीरी-फरहाद, लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, रोमियो-जूलियट की अमर कथाएँ बड़े चाव से कही-सुनी जाती है पर प्रेम की रहस्यमय महिमा को जानने वालों को मालूम है की यह तो प्रेम-साधना का सिर्फ़ पहला चरण है, जिसे इन अमर विभूतियों ने अनुभव किया। परस्पर हित के लिए उत्सर्ग, स्वार्थ नहीं बलिदान इनका मूल मन्त्र था, जिसे अपनाकर वे मानवीय प्रेम के चरम बिन्दु तक पहुँच सके।

प्रेमदीवानी मीरा का प्यार प्रेमसाधना का सर्वोच्च प्रकार था। उनके प्रियतम प्रभु श्रीकृष्ण का उनके समय कोई स्थूल अस्तित्व न था। चर्मचक्षुओं से उन्हें न देख पाने पर भी उनकी भाव-साधना निरंतर गहराती गई। द्दैवी प्रेम से की गई शुरुआत ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम तक जा पहुँची। उन्होंने अपनी भावनाओं मैं यो मन पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयी पश्यति सत्य का अनुभव किया। चिरवियोग-चिर्मिलन मैं बदल गया।

वह एक सत्य दे गयी-प्यार मैं देह की क्या डरकर। प्यार तो भावनाओं मैं ही अंकुरित, प्रस्फुटित एवम विकसित होता हैं। यदि प्रिय को भावनाओं मैं पाने का यातना किया जाया तो भावों की ऊष्मा अंतःकरण मैं हूक, छातापताहत, ह्रदय के फट पड़ने की-सी

अनुभूति देती है। बाह्य मिलन हाथ न करके यदि इसे धेर्यपूर्वक सह लिया जाया तो इस टाप मैं साडी वासनाएं, जन्मा-जन्मान्तर के संचित कुसंस्कार भस्म हो जाते है। पवित्र हुई मानवीय भावनाएं दैवी भावनाएं का रूप ले लेती है और ईश्वरीय प्रेम के सर्वोच्च प्रेम के बिन्दु तक जा पहुंचती हैं।

अपने प्रिय आराध्य परमपूज्य गुरुदेव मीरा के कृष्ण की ही भांति स्थूल में नहीं है, परन्तु भावुक भक्तों के भावजगत मैं हर पल उपस्तिथ हैं। प्रेमी साधक अपनी प्रेमसाधना में भावमय गुरुमूर्ति एवं भावमय परमेश्वर की अनन्ता मैं जब स्वयं को विलीन होते हुए अनुभव करता है, तब कबीर के स्वरों में गा उठता है, मन मगन भया फ़िर क्यों बोले।

अखंड ज्योति १९९७

जीवन-मृत्यु

जो जीवन के रहस्य को जान लेते हैं, वे मृत्यु के रहस्य को भी जान लेते हैं। इस जीवन का प्रत्येक क्षण बोध का एक अवसर हैं। जिन्दगी का हर पल किसी नए रहस्य को अनावृत करने के लिए, उसे जानने के लिए हैं। जो इस सच से अनजान रहकर जिन्दगी के क्षण-पल को, दिवस-रात्रि को यों ही चुका देते है, वे दरअसल जीवन से चुक जाते हैं। मृत्यु भी उनके लिए केवल रहस्यमय भयावह अँधेरा बन कर रह जाती हैं।

चीनी संत लाओत्से के जीवन का एक प्रसंग है। साँझ के समय उसके पास एक युवक ची-लू एक उलझन लेकर आया। लाओत्से ने साँझ के झुटपुटे में उसके चेहरे की और ताकते हुऐ कहा-" अपनी बात कहो ! " इस पर उस युवक ने पूंछा- " मृत्यु क्या हैं ? " लाओत्से ने अपने उत्तर मैं थोडी हैरानी व्यक्त करते हुऐ कहा-" अरे ! समस्या तो जीवन की होती है, मृत्यु की कैसी समस्या ! " फ़िर थोडी देर रूककर लाओत्से ने धीमे से कहा-"मृत्यु उनके लिए समस्या बनी रहती है, जो जीवन की समस्या का समाधान नहीं जान लेते। "

ची-लू लाओत्से के कथन को ध्यान से सुन रहा था। वृद्ध लाओत्से उससे कह रहा था-" अपनी शक्तियों को केवल जीवन जी लेने में नहीं, बल्कि उसे ज्ञात करने मैं लगाओ। मृत्यु एवम् मृतात्माओं की चिंता करने के बजाय जीवन एवम् जीवित मनुष्यों की समस्याओं के समाधान की खोज करो। अरे ! जब तुम अभी जीवन से ही परिचित नहीं हो, तब तुम मृत्यु से भला कैसे परिचित हो सकते हो ! "

लाओत्से के कथन की गहराई का अहसास ची-लू को होने लगा। उसने अनुभव किया की जो जीवन को जान लेते हैं, केवल वे ही मृत्यु को जान पाते हैं। जीवन का रहस्य जिन्हें ज्ञात हो जाता है, उन्हें मृत्यु भी रहस्य नहीं रह जाती ; क्योंकि वह तो उसी सच का दूसरा पहलु है। मृत्यु का भय केवल उन्हें सताता है, जो जीवन को नहीं जानते। मृत्यु के भय से जो मुक्त हो सका, समझना की उसने जीवन का बोध पा लिया।

अखंड ज्योति- जून २००८

स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक कृत्य

मानव जीवन में सुख की वृद्धि करने के उपायों में स्वाध्याय एक प्रमुख उपाय है। स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है। मन में महानता, आचरण में पवित्रता और आत्मा में प्रकाश आता है। स्वाध्याय एक प्रकार की साधना है, जो अपने साधक को सिद्धि के द्वार तक पहुँचाती है। जीवन को सफल, उत्कृष्ट एवं पवित्र बनाने के लिए स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता है। प्रतिदिन नियम पूर्वक सद्ग्रंथों का अध्ययन करते रहने से बुद्धि तीव्र होती है, विवेक बढ़ता है और अंत:करण की शुद्धि होती है, अत: प्रतिदिन चिंतन-मनन के साथ स्वयं पढ़ें एवं दूसरों को पढ़ाने का प्रयास करें।
-पं.श्रीराम शर्मा आचार्य।

उठो! हिम्मत करो

स्मरण रखिए, रुकावट और कठिनाइयाँ आपकी हितचिंतक हैं। वे आपकी शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग सिखाने के लिए हैं। वे मार्ग के कंटक हटाने के लिए हैं। वे आपके जीवन को आनंदमय बनाने के लिए हैं। जिनके रास्ते में रूकावटें नहीं पड़ीं, वे जीवन का आनंद ही नहीं जानते। उनको जिंदगी का स्वाद ही नहीं आया। जीवन का रस उन्होंने ही चखा है, जिनके रास्ते में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आई हैं। वे ही महान् आत्मा कहलाए हैं, उन्हीं का जीवन, जीवन कहला सकता है।

उठो ! उदासीनता त्यागो, प्रभु की ओर देखो। वे जीवन के पुंज हैं। उन्होंने आपको इस संसार में निरर्थक नहीं भेजा। उन्होंने जो श्रम आपके ऊपर किया है, उसको सार्थक करना आपका काम है। यह संसार तभी तक दु:खमय दीखता है, जब तक कि हम इसमें अपना जीवन होम नहीं करते। बलिदान हुए बीज पर ही वृक्ष का उद्भव होता है। फूल और फल उसके जीवन की सार्थकता सिद्ध करते हैं। सदा प्रसन्न रहो। मुसीबतों का खिले चेहरे से सामना करो। आत्मा सबसे बलवान है, इस सच्चाई पर दृढ़ विश्वास रखो। यह विश्वास ईश्वरीय विश्वास है। इस विश्वास द्वारा आप सब कठिनाइयों पर विजय पा सकते हैं। कोई कायरता आपके सामने ठहर नही सकती। इसी से आपके बल की वृद्धि होगी। यह आपकी आतंरिक शक्तियों का विकास करेगा।

-अखण्ड ज्योति

पहले दो, पीछे पाओ

यह प्रश्न विचारणीय है कि महापुरुष अपने पास आने वालों से सदैव याचना ही क्यों करता है ? मनन के बाद मेरी निश्चित धारणा हो गई कि त्याग से बढ़कर प्रत्यक्ष और तुरंत फलदायी और कोई धर्म नहीं है। त्याग की कसौटी आदमी के खोटे-खरे रूप को दुनिया के सामने उपस्थित करती है। मन में जमे हुए कुसंस्कारों और विकारों के बोझ को हलका करने के लिए त्याग से बढ़कर अन्य साधन हो नहीं सकता।

आप दुनिया से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, विद्या, बुद्धि संपादित करना चाहते हैं, तो त्याग कीजिए। गाँठ में से कुछ खोलिए। ये चीजें बड़ी महंगी हैं। कोई नियामक लूट के माल की तरह मुफ्त नहीं मिलती। दीजिए, आपके पास पैसा, रोटी, विद्या, श्रद्धा, सदाचार, भक्ति, प्रेम, समय, शरीर जो कुछ हो, मुक्त हस्त होकर दुनिया को दीजिए, बदले में आप को बहुत मिलेगा। गौतम बुद्ध ने राजसिंहासन का त्याग किया, गाँधी ने अपनी बैरिस्टरी छोड़ी, उन्होंने जो छोड़ा था, उससे अधिक पाया।

विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी एक कविता में कहते हैं, ``उसने हाथ पसार कर मुझ से कुछ माँगा। मैंने अपनी झोली में से अन्न का एक छोटा दाना उसे दे दिया। शाम को मैंने देखा कि झोली में उतना ही छोटा एक सोने का दाना मौजूद था। मैं फूट-फूट कर रोया कि क्यों न मैंने अपना सर्वस्व दे डाला, जिससे मैं भिखारी से राजा बन जाता।’’

-अखण्ड ज्योति मार्च

उद्देश्य ऊँचा रखें

मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं, उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्तु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो, तो पंप आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं, जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धॅस जाते हैं और साथ ही अपनी मारकशक्ति को भी ले आते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञाननिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग की छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती हैं। उन्हें जहाँ थोड़ा-सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश और भी बहुत-सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्त्वों की भाँति खिंचने और खींचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं।

यही बात भले विचारों के संबंध में है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकट्ठे करके बहुकुटुंबी बनने में पीछे नहीं रहते। जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को मन में स्थान दिया है, उन्हें चिंता, भय और निराशा का शिकार होना ही पड़ेगा।

-अखण्ड ज्योति

राखी का धागा

पुरूष का पुरुषार्थ और नारी की मर्यादा, दोनों ही राखी के धागे से बंधे हैं। यह राखी का धागा कमजोर हुआ अथवा टूटा तो न केवल पुरूष का पुरुषार्थ भटकेगा, बल्कि नारी की मर्यादाएँ भी आहत होंगी, क्षत-विक्षत होंगी। इस धागे की मजबूती और दृढ़ता पर ही सामाजिक सरसता-समरसता और सौन्दर्य की इन्द्रधनुषी छटा चहुँ और छाई रहती है। इसमें यदि किसी भी तरह की टूटन या दरकन आई तो इस बहुरंगी रसमय छटा को रसहीन गाढे धुंधलके मैं खोते देर न लगेगी।

पुरूष और नारी के बीच स्वाभाविक नाता सृष्टि के आदि से हैं। जब से ग्रहपिंड अस्तित्व मैं आए, जब से धरती की हरी-भरी गोद विनिर्मित हुई, तभी से पुरूष और नारी भी है और तभी से उनमें परस्पर आकर्षण, आसक्ति और पवित्र प्रेम से पूर्ण सम्बन्ध भी हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में बहुविधि विविधताएँ मानवीय भावनाओं के बहुआयामों के अनुरूप सदा से रहीं हैं। पुरूष पति, प्रेमी, पुत्र, भ्राता बनकर अपने पुरुषार्थ के लिए सचेष्ट रहा हैं और नारी पत्नी, प्रेमिका, पुत्री व भगिनी बनकर अपनी मर्यादाओं के संरक्षण के लिए प्रयासरत रही हैं।

पुरूष और नारी के बीच इन अनगिनत नातों मैं भ्राता और भगिनी अथवा भाई व बहिन के नाते का अपना विशिष्ट सौन्दर्य हैं। इस नाते में आकर्षण अनन्त हैं, पर वासना का विष नहीं हैं। इसमें आसक्ति और मोह की जगह भावपूर्ण बलिदान है। इसके पवित्र प्रेम में भावों के सभी रंग और रूप होते हुऐ भी किसी भी तरह के कलुष की कालिमा नहीं हैं। भावमय भावनाओं से भरा, पवित्र प्रेम से पूरित सम्बन्धों का यह संसार राखी के धागों से उपजता हैं और इसी के रंगों के अनुरूप अपने अनगिनत रूपों की सृष्टि करता हैं। इस धागे में बंधकर और इसे बांधकर पुरूष और नारी, दोनों ही अपने पुरुषार्थ और अपनी मर्यादाओं के खोते जा रहे स्वधर्म को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।

अखंड ज्योति अगस्त २००८

विचार

ध्यान रहे, धनुष के तीरों की भाँति मन से विचार निकलते हैं। वे लक्ष्य भेद करने के बाद फिर से उसी व्यक्ति के पास वापस लौट आते हैं, जिसने उन विचारों को उत्पन्न किया हैं। इसलिए यदि हम शुभ, सकारात्मक एवं रचनात्मक विचार प्रेषित कर रहे हैं तो ये वैचारिक जगत में चलते हुए उन लोगो तक पहुँचते हैं, जिनकी ओर लक्षित किये गये थे। रचनात्मक विचारों के तीर पुन: हमारे पास लोगों के आशीर्वाद, सद्भावना और शुभकामना लेकर लौट आते हैं और हमारा मन अधिक-से-अधिक प्रेरित, प्रसन्न और उत्साहित हो जाता है। इसके विपरीत जब विध्वंसात्मक विचार अपने लक्ष्य की ओर जाते हैं तो फल भिन्न होता हैं। यदि लक्ष्य अधिक सशक्त हैं तो हमारे ऋणात्मक विचार उसका भेदन नहीं कर पाते और वे विचारो के बाण लक्ष्य से टकराकर दोगने वेग से हमारे अपने उपर ही वार करते हैं। यदि इन्होने अपने लक्ष्य पर आघात कर भी दिया तो भी इनकी प्रतिक्रिया में विध्वंसक विचारो का दोगना वेग हम पर प्रहार करता है।

धर्म क्या हैं ?

धर्म क्या हैं ? :- धर्म प्रवचन नहीं है। बोद्धिक तर्क -विलास वाणी का वाक्जाल भी धर्म नहीं है। धर्म तप हैं। धर्म तितिक्षा है। धर्म कष्ट-सहिष्णुता है। धर्म परदु:खकातरता है। धर्म सचाइयों और अच्छाइयों के लिए जीने और इनके लिए मर मिटने का साहस हैं, धर्म मर्यादाओं की रक्षा के लिए उठने वाली हुकारे हैं धर्म सेवा की सजल संवेदना है। धर्म पीडा-निवारण के लिए स्फुरित होने वाला महासंकल्प है। धर्म पतन-निवारण के लिए किए जाने वाले युद्ध का महाघोष हैं। धर्म दुष्प्रवर्तियों, दुष्कृत्यों, कुरीतियों के महाविनाश के लिए किए जाने वाले अभियान का शंखनाद है। धर्म सर्वहित के लिए स्वहित का त्याग हैं। ऐसा धर्म केवल तप के वासंती अंगारो में जन्म लेता हैं। बलिदान के वासंती राग में इसकी सुमधुर गूंज सुनी जाती है।

श्रद्धा का महत्त्व

कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी उतना ही अधिक उपदेश का प्रभाव पड़ेगा। प्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा।

अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन-रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता है और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा भी धारण करनी पड़ती है।

विचारों को मूर्तिमान रुप देने के लिए उनको प्रकट रुप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्मकाण्ड, दानपुण्य, व्रतउपवास, हवनपूजन, कथाकीर्तन आदि है वे सब इसी प्रयोजन के लिए है कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाय। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा कर्म काण्ड के द्वारा सजग रहे इसी प्रयोजन के लिए समय-समय पर गुरु पूजन किया जाता है। क्रिया और विचार दोनो के समिश्रण से एक संस्कार बनता है।

निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुऐं ही क्यों न भेंट करे, उन्हें सदैव गुरु को बार-बार अपनी श्रद्धान्जलि अर्पित करना चाहिए।

साधना से सिद्धि

साधना की गई , पर सिद्धि नहीं मिली। तप तो किया गया पर तृप्ति नहीं मिली। अनेक साधकों की विकलता यही है। लगातार सालों-साल साधना करने के बाद वे सोचने लगते है, क्या साधना का विज्ञान मिथ्या है ? क्या इसकी तकनीको में कोई त्रुटि है ? ऐसे अनेको प्रश्न-कंटक उनके अन्त:करण में हर पल चुभते रहते है। निरन्तर की चुभन से उनकी अंतरात्मा में घाव हो जाता है। जिससे वेदना रिसती रहती है। बड़ी ही असह्य होती है चुभन और रिसन की यह पीड़ा। बड़ा ही दारुण होता है यह दरद !!

महायोगी गोरखनाथ का एक युवा शिष्य भी एक दिन ऐसी ही पीड़ा से ग्रसित था। वेदना की विकलता की स्पष्ट छाप उसके चेहरे पर थी। एक छोटे-से नाले को पार करके वह एक खेत की मेड़ पर हताश बैठा था। तभी उसे पास के खेत से ही गोरखनाथ आते दिखाई दिये।

उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करते हुए उसने पूछा ,‘‘ गुरुदेव, मेरी वर्षों की साधना निष्फल क्यों हुई ? भगवान मुझसे इतना रुठे क्यों है ?’’ महायोगी हँसे और कहने लगे,‘‘ पुत्र, कल मैं एक बगीचे में गया था। वहा कुछ दूसरे युवक भी थे। उनमें से एक को प्यास लगी थी। उसने बाल्टी कुई में डाली, कुँआ गहरा था। बाल्टी खींचने में भारी श्रम करना पड़ा,लेकिन जब बाल्टी लौटी तो खाली थी। उस युवक के सभी साथी हंसने लगे।

मैनें देखा, बस वह कहने भर को बाल्टी थी, उसमें छेद-ही-छेद थे। बाल्टी कुईं में गई, पानी भी भरा, पर सब बह गया। वत्स, साधक के मन की यही दशा है। इस छेद वाले मन से कितनी ही साधना करो, पर छेदों के कारण सिद्धि नहीं मिलती। इससे कितना ही तप करो, पर तृप्ति नहीं मिलती। भगवान कभी भी किसी से रुठे नहीं रहते। बस साधक के मन की बाल्टी ठीक होनी चाहिए। कुँआ तो सदा ही पानी देने के लिए तैयार है। उसकी ओर से कभी भी इन्कार नहीं है।’’

आनंद का मूल स्त्रोत-प्रेम

प्रेम-भाव की प्राप्ति न पुस्तको से होती है और न उपदेशो से। उसकी प्राप्ति धन अथवा संपत्ति से भी नही होती और न मान और पद प्रतिष्ठा ही उसको संभव बना सकती है। भक्ति और सत्ता द्वारा भी प्रेम-भाव की सिद्धि नही हो सकती। जबकि लोग प्रायः इन्ही साधनों द्वारा ही प्रेम-भाव को पाने का प्रयत्न किया करते है। पुस्तके पढ़कर लेखक के प्रति, शक्ति और वैभव देखकर सत्ताधारी के प्रति जो आकर्षण अनुभव होता है, उसका कारण प्रेम नही होता है। उसका कारण होता है-प्रभाव, लोभ और भय। वास्तविक, प्रेम-भाव वहीँ संभव है, जहाँ न कोई प्रभाव होगा, न स्वार्थ अथवा आशंका।

ऐसा वास्तविक और निर्विकार प्रेम-भाव केवल सेवा द्वारा ही पाया जा सकता है। सेवा और प्रेम वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नही है। यह एक भाव के ही दो पक्ष है। जहाँ प्रेम होगा, वहाँ सेवा भाव होगा और जहाँ सेवा-भाव होगा वहाँ प्रेम-भाव का होना अनिर्वाय है। जिसके प्रति मनुष्य के ह्रदय मे प्रेम-भाव नही होगा, उसके प्रति सेवा-भाव का भी जागरण नही हो सकता और जो सेवा-भाव सेव्य के प्रति प्रेम-भाव नही जमाता, वह सेवा नही, स्वार्थपरक चाकरी का ही एक रूप होगा। जिसकी सेवा करने में सुख, शान्ति और गौरव का अनुभव हो, समझ लेना चाहिए की उस सेव्य के प्रति ह्रदय मे प्रेम-भाव अवश्य है।

अखंड ज्योति, जून १९६८

जीवन जीने की कला

यदि जीवन में गंतव्य का बोध न हो तो भला गति सही कैसे हो सकती है। और यदि कहीं पहुंचना ही न हो तो संतुष्टि कैसे पायी जा सकती है। जो जीवन जीने की कला से वंचित है समझना चाहिए कि उनके जीवन में न तो दिशा है और न कोई एकता है। उनके समस्त अनुभव निरे आणविक रह जाते है। उनसे कभी भी उर्जा का जन्म नहीं हो पाता, जो कि ज्ञान बनकर प्रकट होती। ऐसा व्यक्ति सुख-दु:ख तो जानता है, पर उसे कभी भी आनन्द की अनुभूति नहीं होती। जीवन में यदि आनन्द पाना है तो जीवन को फूलों की माला बनाना होगा। जीवन के समस्त अनुभवों को एक लक्ष्य के धागे में कलात्मक रीति से गूंथना होगा। जो जीने की इस कला को नहीं जानते है, वे सदा के लिए जिंदगी की सार्थकता एवं कृतार्थता से वंचित रह जाते है।

एक साधना

एक साधना जिसे करने के लिए हम आपको अनुरोधपूर्वक प्रेरित करते हैं-वह हैं दिन-रात में से कोई भी पन्द्रह मिनट का समय निकाले और एकान्त में शांतिपूर्वक सोचे कि वे क्या हैं ? वे सोचे कि क्या वे उस कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं, जो मनुष्य होने के नाते उन्हे सौपा गया था। मन से कहिए कि वह निर्भीक सत्यवक्ता की तरह आपके अवगुण साफ-साफ बतावें।

-परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा

मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव

मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव :- सुखपूर्वक एवं शोकरहित मृत्यु वरण करने के लिए एक महामन्त्र है, येनानृत्तनि नोक्तानि प्रीति भेद: कृतो न च। आस्तिक: श्रद्धानश्च स सुखंमृत्युमृच्छति। अर्थात जिसने कभी असत्य आचरण नहीं किया हो, जिसके अन्दर ईर्ष्या-द्वेष का भाव न हो, जो आत्मा में परम विश्वासी हो तथा जो अच्छाइयों पर अनन्य श्रद्धा-आस्था रखता हो, वही सुखपूर्वक-शांतिपूर्वक महामृत्यु को वरण कर सकता हैं। अत: हम भी सद्चिन्तन, सदाचरण और सद्व्यवहार को जीवन में उतारकर मृत्यु को मांगलिक महोत्सव के रुप में मना सकते है।

कर्मकांड

कपडे को रंगने से पूर्व धोना पडता हैं। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पडती हैं। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिये भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता हैं। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता हैं। जिससे जीवन साधना नहीं बन पडी उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलत: मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएं और तृष्णायें जिसके मन को हर घडी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकांड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नही। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध हैं। जहाँ भावनाएं होंगी, वहां मनुष्य अपने गुण, कर्म , स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

ज्ञान की प्राप्ति

ज्ञान की चाहत बहुतों को होती हैं, पर ज्ञान की प्राप्ति विरले करते हैं। दरअसल ज्ञान और ज्ञान में भारी भेद हैं। एक ज्ञान हैं-केवल जानकारी इकट्ठी करना, यह बोद्धिक समझ तक सीमित हैं और दूसरी ज्ञान हैं-अनुभूति, जीवंत प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह हैं; जबकि दूसरा जीवंत सत्य का बोध हैं। इन दोनो में बडा अन्तर हैं-पाताल और आकाश जितना। सच तो यह हैं कि बोद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान नहीं हैं, यह तो बस, ज्ञान का झूठा अहसास भर हैं । भला अन्धे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता हैं ? बोद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही हैं। 

सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता हैं। इसे सीखना नहीं उघाडना होता हैं। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी हैं; जबकि उघाडा हुआ ज्ञान अनुभूति हैं। जिस ज्ञान को सीखा जाये, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है, फ़िर भी वह कभी संपूर्णतया उसके अनुकूल नही बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वंद बना ही रहता हैं, पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता हैं उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता हैं। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असंभावना हैं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।

श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक संबंधो की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्ज़न सुने दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई , उसने पुत्र को सचेत किया- “चलो ! कहीं पेड़ पर चढ़ जायें, आगे खतरा हैं।" पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा । हँसते हुए बोला- ‘आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर हैं और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा हैं। फिर भला खतरा किसे हैं ! जो नश्वर हैं, वह तो मरेगा ही और जो अमर हैं, उसे कोई मार नहीं सकता,’’ पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह दृष्टा था। उसे न दु:ख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी ; जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान का झूठा एहसास भर था। इसीलिए कहा जाता हैं कि ज्ञान की प्राप्ति विरल हैं। 

अखंड ज्योति नवम्बर २००५

आओ ! हम भी युगज्योति का स्पर्श पाएँ

सब तरफ हाहाकार-चीत्कार-चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार। साधन बहुत, शक्ति बहुत, किन्तु अन्धकार में उनका उपयोग कैसे हो ? जिन्हें कुछ चाहिये, कुछ-का-कुछ उठा ले रहे हैं। जिनके पास कुछ देने को हैं, उन्हे पता नहीं किसे देना हैं। हर कार्य और उसके लिये हर वस्तु, पर इससे क्या-सभी बेठिकाने-अनर्थ तो होगा ही-कारण अन्धकार। इस अन्धकार को दूर करो, इसे निकाल बाहर करो-चारों ओर यही चीख-पुकार। यही हमें सब ओर से घेरे हैं।

एक नन्हा सा दीपक मुसकराया-कहाँ हैं अंधकार ? हर तरफ से आवाजें उठीं-यहाँ-यहाँ। दीपक पहुँचा-पूछा, कहां ? उत्तर मिला-हर तरफ। दीपक ने कहा-पर अभी तो कहा जा रहा था ‘यहाँ’ ! पर यहाँ तो कहीं नहीं हैं। लोगों ने चारों ओर देखा, सारी स्थिति साफ-साफ दीख रही थी। अपनी बात सही न साबित होते देख सभी दीपक पर बिगड़ उठे-तुम हमें झूंठा साबित करने आये हो। हमारी चोटें देखो, हमारी हालत देखो, यह क्या बिना अन्धकार के सम्भव हैं ? दीपक शांत भाव से बोला-तुम्हें झूंठा सिद्ध करने का नहीं, अपना सत्य समझाने का विचार हैं, पर जो समझे उसी को तो समझाऊँ। तुमने अपनी चोटें देख लीं-उनमें मलहम लगाओ, मैं अन्य स्थान देखूँ।

दीपक हर आवाज पर गया, पर कहीं अन्धकार नहीं मिला। सब जगह वही क्रम दोहराया गया। लोगों ने देखा, अरे सचमुच अन्धकार तो दीपक के पहुँचते ही भाग जाता हैं। जहाँ दीपक होता हैं, वहाँ साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता हैं। दीपक के चारों ओर भीड़ लग गयी। सब प्रसन्नचित्त अपना-अपना काम करने लगे।

एक ने पूछा-अन्धकार किसने भगाया ? उत्तर मिला-इस ज्योति ने। एक बोला-तो ज्योति हमें दे दो, अपने घर ले जायेंगे। दूसरा बोला-नहीं मुझे दो और मुझे-मुझे का शोर मच गया। दीपक ने कहा-ज्योति सभी के साथ जा सकती हैं, पर उसकी अपनी शर्त हैं, कीमत हैं। लोग हर्ष से पुकार उठे-हम कीमत देंगे, शर्त पूरी करेंगे, ज्योति लेंगे।

तो सुनो, ज्योति वर्तिका पर ठहरती हैं, पर उसे स्नेहसिक्त होना चाहिये और हाँ उसे धारण करने के लिये ऐसा पात्र जो सीधा रह सके और स्नेह को स्वयं ही न पी जाये। यह सब कर सको, तो फिर करो ज्योति पाने की तैयारी। कुछ ने सार्थक प्रयास किया, दीपक ने उन्हें स्पर्श किया, वे प्रकाशित हुऐ और चल पड़े। शेष शिकायत करते रहे।

आज भी हर व्यक्ति के लिये कुछ ऐसा ही अवसर हैं। युगज्योति हममें से हर एक का आह्वान कर रही हैं। पर हम हैं कि लाभ उठाने की कोशिश कम, शिकायतें अधिक कर रहे हैं। अच्छा हो, इसके लिये जीवन में साधन जुटायेँ युगज्योति के संपर्क में आने की साधना करें। फिर तो युगज्याति का स्पर्श पाते ही, जीवन में अन्धकार खोजने पर भी नहीं मिलेगा।

अखण्ड ज्योति नवम्बर १९९९

कर्मकांड

लोग उपासना का एक अंश ही सीखे हैं-कर्मकांड । जप, हवन, पूजन, स्तवन आदि शरीर एवं पदार्थों से सम्पन्न हो सकने वाली विधि-व्यवस्था तो कर लेते है, पर उस साधना को प्राणवान सजीव बनाने वाली भावना के समन्वय की बात सोचते तक नहीं। सोचे तो तब, जब भावना नाम की कोई चीज उनके पास हो। बडी मछली छोटी मछली को निगल जाती हैं और कामना-भावना को, कामनाओं की नदी में आमतोर से लोगो की भाव कोमलता जल-भुनकर खाक होती रहती हैं तथ्य यह हैं कि भावना पर श्रद्धा विश्वास पर आन्तरिक उत्कृष्टता पर ही अध्यात्म की, साधना की और सिद्धियों की आधारशिला रखी हुयी है। यह मूल तत्व ही न रहे तो साधनात्मक कर्मकांड, मात्र धार्मिक क्रिया-कलाप बन कर रह जाते हैं। उनका थोडा सा मनोवेज्ञानिक प्रभाव ही उत्पन्न होता हैं। साधना के चमत्कार श्रद्धा पर अवलम्बित है।

-आचार्य श्रीरामशर्मा

शिक्षा के साथ विद्या भी

मनुष्य को सुयोग्य बनाने के लिए उसके मस्तिष्क को दो प्रकार से उन्नत किया जाता है। 
(1) शिक्षा द्वारा 
(2) विद्या द्वारा
शिक्षा के अन्तर्गत वे सब बातें आती हैं जो स्कूलों में कालेजों में, ट्रेनिंग कैम्पों में, हाट बाजार मे घर में, दुकान में, समाज में सिखाई जाती है। गणित, भूगोल, इतिहास, भाषा, शिल्प, व्यायाम, रसायन, चिकित्सा, निर्माण व्यापार, कृषि, संगीत, कला आदि बातें सीखकर मनुष्य व्यवहार कुशल, चतुर, कमाउ, लोकप्रिय एवं शक्ति सम्पन्न बनता है। विद्या द्वारा मनोभूमि का निर्माण होता है।

मनुष्य की इच्छा आकांक्षा, भावना, श्रद्धा, मान्यता, रुचि एवं आदतों के अच्छे ढॉंचे में ढालना विद्या का काम है। चौरासी लाख योनियों में घूमते हुए आने के कारण पिछले पाशविक संस्कारों से मन भरा रहता है उनका संशोधन करना विद्या का काम है।

शिक्षा का अर्थ है- सांसारिक ज्ञान। विद्या का अर्थ है-मनोभूमि की सुव्यवस्था। शिक्षा आवश्यक है, पर विद्या उससे भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा बढ़नी चाहिए , पर विद्या का विस्तार उससे भी अधिक होना चाहिए अन्यथा दूषित मनोभूमि रहते हुए यदि सांसारिक सामर्थ्य बढ़ी तो उसका परिणाम भयंकर होगा।

संयम-नियम

मात्र आहार पर ही शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर नहीं रहता। जलवायु, मन:स्थिति और संयम-नियम पर भी बहुत हद तक अवलम्बित है। हिमालय का शीतप्रधान वातावरण, निरन्तर गंगा जल का उपयोग, हर काम में समय की नियमित व्यवस्था, भूख से कम खाने से पाचन सही होना, चित्त का दिव्य चिन्तन में निरत रहना, मानसिक विक्षोभ और उद्वेग का अवसर न आना यह ऐसे आधार हैं, जिनका मूल्य पौष्टिक आहार से हजार गुना ज्यादा है। तपस्वी लोग सुविधा-साधना का, आहार का अभाव रहने पर भी दीर्घजीवी, पुष्ट और सशक्त रहते हैं, उसका कारण उपर्युक्त हैं जिसका महत्त्व आमतौर से नहीं समझा जाता है।

-परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा

क्या करें क्या न करें ?


त्यागने योग्य 
  • चोरी, बेईमानी, छल, मुनाफाखोरी, हराम की कमाई, मुफ्तखोरी आदि। अनीति से दूर रहना, अनीति से उपार्जित धन का उपयोग न करना। 
  • मांसाहार तथा मारे हुए पशुओं के चमडे का प्रयोग बन्द करना। 
  • पशुबलि अथवा दूसरों को कष्ट पहुंचाकर अपना भला करने की प्रवृति छोडना। 
  • विवाहों में वर पक्ष द्वारा दहेज लेने तथा कन्या पक्ष द्वारा जेवर चढाने का आग्रह न करना। 
  • विवाहों की धूम-धाम में धन की और समय की बर्बादी न करना। 
  • नशे (तम्बाकू, शराब, भॉग, गॉजा, अफीम आदि) का त्याग। 
  • गाली-गलौज एवं कटु भाषण का त्याग। 
  • जेवर और फैशनपरस्ती का त्याग। 
  • अन्न की बर्बादी, जूठन छोडने की आदत का त्याग। 
  • जाति-पॉति के आधार पर ऊंच-नीच, छूत-छात न मानना। 
  • पर्दाप्रथा का त्याग-किसी को पर्दा करने के लिए बाध्य न करना। स्वयं पर्दा न करना। 
  • महिलाओं एवं लड़कियों के साथ पुरुषों और लड़को की तुलना में भेद-भाव या पक्षपात न करना। 
अपनाने योग्य सत्प्रवृतियॉ।
  • कम से कम दस मिनट नित्य नियमित गायत्री उपासना। 
  • घर में अपने से बडो का नियमित अभिवादन करना। 
  • छोटों के सम्मान का ध्यान रखना, उनसे तू करके न बोलना। 
  • अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक रहना तथा उनका पालन करना। 
  • परिश्रम का अभ्यास बनाये रहना, किसी काम को छोटा न समझना। 
  • नियमित स्वाध्याय-जीवन को सही दिशा देने वाला सत्साहित्य कम से कम आधा घण्टे नित्य स्वयं पढना या सुनना। 
  • भारतीय संस्कृति की प्रतीक शिखा एवं यज्ञोपवीत का महत्त्व समझना, उन्हें निष्ठापूर्वक धारण करना-दूसरों को प्रेरणा देना। 
  • सादगी का जीवन जीना, औसत भारतीय स्तर के रहन-सहन के अनुरुप विचार एवं अभ्यास बनाना। उसमें गौरव अनुभव करना।
  •  ज्ञान-यज्ञ-सद्विचार प्रसार के लिये कम से कम 50 पैसा धन और एक घण्टा समय प्रतिदिन बचाकर सही ढंग से खर्च करना।
  •  परिवार में सामुहिक उपासना, आरती, आदि का क्रम चलाना। 
  • प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन सामूहिकरुप से यज्ञीय वातावरण में मनाना तथा जीवन की सार्थकता के लिए व्रतशील जीवनक्रम बनाना। 
  • समाज के प्रति, अपने उत्तरदायित्वों के प्रति जागरुकता, समाज में सत्प्रवृतियॉं बढाने के लिए किये जाने वाले सामूहिक प्रयासों में उत्साह भरा योगदान देना। 

जिसने आज दिया वही कल देगा।

जिसने आज दिया वही कल देगा। जिसने आज दिया हैं , वह कल भी देगा। वह कल भी देगा- वह कौन है ? परमात्मा ? नहीं, तुम्हारा पुण्य है। इस संसार में जो भी सुख-सुविधा मिलती है वह सब पुण्य से ही मिलती है। पुण्य ही दिलाता हैं और पुण्य ही जिलाता हैं संसार में अगर कोई मॉं-बाप हैं तो पुण्य ही हैं। वही हमारा पालनहार है। इसलिए अपने जीवन में पुण्य का संचय करते रहो। जहॉ से भी मिले पुण्य लूटते रहो। पुण्य का खजाना खाली न होने पाये। इस बात का विशेष ख्याल रखना। पूरे दिन में कम से कम दो पुण्य काम जरुर करो। पाप तो दिनभर में सेकडो हो जाते हैं, पर पूरे दिन में कम से कम दो पुण्य जरुर करो। इससे हमारा ना सिर्फ यह जीवन सम्भलेगा अपितु इसके बाद का जीवन भी सम्भल जायेगा। यह जीवन का महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं जिसे जीकर हम जीवन को सार्थकता दे सकते है।

आध्यात्मिक कैसे बना जा सकता है ?

पूजा अर्चा प्रतीक मात्र हैं, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरुप क्या होना चाहिए और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुडा रहना चाहिए।

देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहॉं हमें दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिए प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराता है।

`पुष्प´ चढाने का तात्पर्य यह है कि जीवनक्रम को सर्वांग सुन्दर, कोमल, सुशोभित रहने में कोई कमी न रहने दी जाये।

`अक्षत´ चढाने का तात्पर्य हैं कि हमारे कार्य का एक नियमित अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिए लगता रहेगा।

`चंदन लेपन´ का तात्पर्य हैं कि सम्पर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो।

`नैवेद्य´ चढाने का तात्पर्य है-अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना।

`जप´ का उद्देश्य हैं अपने मन:क्षेत्र में निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने की निष्ठा का समावेष करने के लिए लिए उसकी रट लगाये रहना।

`ध्यान´ का अर्थ है अपनी मानसिकता को लक्ष्य विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किये रहना।

`प्राणायाम´ का प्रयोजन अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान, प्रखर, प्रतिभासम्पन्न बनाये रखना।

अक्षत, चन्दन, पुष्प, धूप-दीप तो पूजा के प्रतीक मात्र हैं, असली पूजा तो लोकमंगल के लिए किए गये उदार सत्प्रयत्नों से ही ऑकी जाती है। समूचे साधना विज्ञान का तत्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अंतरंग पक्ष निरन्तर मानवी गरिमा के उपयुक्त ढॉंचे में ढलता रहे। कषाय-कल्मषों के दोष-दुर्गुण जहॉं भी छिपे हुए हो उनका निराकरण होता चले।

मनन

मनन मन से मन-न होने की आध्यात्मिक यात्रा हैं। यह ऐसी अनोखी प्रक्रिया हैं, जिसमें संलग्न होने, समर्पित होने पर मन का संपूर्णत: विसर्जन और विलय हो जाता हैं। इस सच पर कितना ही कोई अचरज क्यों न करे, फिर भी सच तो सच ही हैं। हालॉंकि इस अनूठे रहस्य से कम ही लोग परिचित हैं जबकि मनन शब्द का प्रयोग बहुतायत में होता हैं। अनेकों, अनेक बार इसका प्रयोग करते हैं, फिर भी इसके आध्यात्मिक रहस्य का स्पर्श विरले ही कर पाते हैं।

सामान्य सोच तो एक विचार को बार-बार सोचते रहने को मनन मान लेती हैं जबकि अध्यात्मवेत्ता कहते हैं कि मन में उठती किसी विशेष विचार की गुनगुनाहट-गूँज अथवा ध्वनि-प्रतिध्वनि को मनन कहना ठीक नहीं हैं। यह तो एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति हैं, जो किसी सत्यान्वेषी साधक को तब होती हैं, जब वह किसी पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसकी दिव्य छवि को अपने में धारण करता हैं।

यदि पवित्र तत्त्वों-सत्यों को ठीक से धारण कर लिया गया हैं तो मन में स्वत: ही धारणा घटित होने लगती हैं। मन कुछ उसी तरह मौन हो उसकी अनुभूति में डूबता हैं, जैसे कि कोई स्वादलोलुप व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन करते समय मूक और मौन हो स्वाद के अनुभव में खो जाता हैं। जैसे-जैसे धारण किए गए पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसकी दिव्य छवि की अनुभूति प्रगाढ़ होती हैं कि मन, उसमें संजोई सारी संस्कारराशि, कर्मबीजों का ढ़ेर, आदतें, प्रवृतियॉं सभी खो जाते हैं। यहॉं तक कि मन मन-न में परिवर्तित हो जाता हैं। मन का यह परिवर्तन और रुपांतरण ही तो मनन हैं, जिसके परिणाम में अंतस् मे उज्ज्वल आत्मप्रकाश की धाराएं फूट पड़ती हैं। यह ऐसा सच हैं, जिसे जो करे, सो जाने।

अखण्ड ज्योति नवंबर 2007

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