मनुष्य, शरीर को ‘‘मैं’’ समझता है। उसने एक जनश्रुति ऐसी अवश्य सुन रखी होती है कि आत्मा शरीर से भिन्न होती है, परन्तु इस पर उसका विश्वास नही होता। हम सब शरीर को ही यदि आत्मा नही मानते होते, तो यह भारत भूमि दुराचारों का केन्द्र न बन गई होती। गीता मे भगवान श्री कृष्ण पे अपना उपदेश आरम्भ करते हुये अर्जुन को यही दिव्य ज्ञान दिया है, ‘‘तू देह नहीं है।’’ आत्मस्वरूप को जिस प्रकार विस्मरण कर दिया है, उसी प्रकार ईश्वर को भी दृष्टि से ओझल कर दिया है।
हमारे चारो और जो घोर अज्ञानांधकार छाया हुआ है, उसके तम में कुछ और ही वस्तुये हमारे हाथ लगी है, और उन्हें ईश्वर मान लिया। रस्सी को सांप मान लेने का उदाहरण प्रसिद्ध है। रस्सी का स्वरूप कुछ-कुछ सर्प से मिलता जुलता है। अंधेरें के कारण ज्ञान ठीक प्रकार काम नहीं करता, फलस्वरूप भ्रम सच्चा मालूम होता है। रस्सी सर्प का प्रतिनिधित्व भली प्रकार करती है। इस गड़बड़ी के समय में ईश्वर के स्थान पर शैतान विराजमान हो गया है। और उसी को हम लोग पूजते हैं। आत्मा पंच तत्वों से सूक्ष्म है। पंच तत्व के रसों को इन्हीं तत्वो से बना हुआ शरीर ही भोग कर सकता है।
आत्मा तक कडुआ मीठा कुछ नही पहॅूचता। यह तो केवल इंद्रियों की तृप्ति-अतृप्ति को अपनी तृप्ति मानना भर है।
अखण्ड ज्योति मई 1980 पृष्ठ 06