शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

तुम ईश्वर को पूजते हो या शैतान को

मनुष्य, शरीर को ‘‘मैं’’ समझता है। उसने एक जनश्रुति ऐसी अवश्य सुन रखी होती है कि आत्मा शरीर से भिन्न होती है, परन्तु इस पर उसका विश्वास नही होता। हम सब शरीर को ही यदि आत्मा नही मानते होते, तो यह भारत भूमि दुराचारों का केन्द्र न बन गई होती। गीता मे भगवान श्री कृष्ण पे अपना उपदेश आरम्भ करते हुये अर्जुन को यही दिव्य ज्ञान दिया है, ‘‘तू देह नहीं है।’’ आत्मस्वरूप को जिस प्रकार विस्मरण कर दिया है, उसी प्रकार ईश्वर को भी दृष्टि से ओझल कर दिया है।

हमारे चारो और जो घोर अज्ञानांधकार छाया हुआ है, उसके तम में कुछ और ही वस्तुये हमारे हाथ लगी है, और उन्हें ईश्वर मान लिया। रस्सी को सांप मान लेने का उदाहरण प्रसिद्ध है। रस्सी का स्वरूप कुछ-कुछ सर्प से मिलता जुलता है। अंधेरें के कारण ज्ञान ठीक प्रकार काम नहीं करता, फलस्वरूप भ्रम सच्चा मालूम होता है। रस्सी सर्प का प्रतिनिधित्व भली प्रकार करती है। इस गड़बड़ी के समय में ईश्वर के स्थान पर शैतान विराजमान हो गया है। और उसी को हम लोग पूजते हैं। आत्मा पंच तत्वों से सूक्ष्म है। पंच तत्व के रसों को इन्हीं तत्वो से बना हुआ शरीर ही भोग कर सकता है।

आत्मा तक कडुआ मीठा कुछ नही पहॅूचता। यह तो केवल इंद्रियों की तृप्ति-अतृप्ति को अपनी तृप्ति मानना भर है।

अखण्ड ज्योति मई 1980 पृष्ठ 06

उद्धेश्य ऊँचा रखें

मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते है, उतनी आसानी से सोना नही मिलता है। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत करनें मे काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्त अगर ऊँचे स्थान चढ़ाना हो तो पंप आदि लगाने का प्रयास किया जाता है।

बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं जो बड़ा मनोरंजन करते हुये मन मे धंस जाते हैं ओर साथ ही अपनी मारक शक्ति को भी ले आते है। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती है। उन्हें जहाँ थोड़ा सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश्य और भी बहुत सी सामग्री खींच लेती है। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्वों की भांति खिचनें की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वही एकत्रित होने लगतें है।

यही बात भले विचारों के सम्बन्ध में भी है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकठ्ठे करकें बहुकुटुम्बी बनने में पीछे नही रहतें । जिन्होने बहुत समय तक बुरे विचारों को अपने मन मे स्थान दिया है। उन्हें चिन्ता, भय और निराशा का शिकार होना पड़ेगा।

अखण्ड ज्योति अप्रेल 1980 पृष्ठ 10

संयम

परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिये जो उत्सुक होते है, वे प्रायः आत्मपीड़न को साधना समझ लेते हैं। उनकी यही भूल उनके जीवन को विषाक्त कर देती है। प्रभुप्राप्ति संसार के निषेध का रूप ले लेती है। इस निषेध के कारण आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का संरजाम जूटाने लगती है। इस नकार-दृष्टि से उनका जीवन नष्ट होने लगता है। और उन्हें होश भी नहीं आ पाता कि जीवन का विरोध परमात्मा के साक्षात्कार का पर्यायवाची नही हैं

सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी होते है। उन्हें आत्मचिंतन सूझता ही नहीं है। संसार के विरोधी कहीं न कहीं सूक्ष्मरूप से संसार से ही बंधे होते है। अनुभव यही कहता है कि संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितना संसार से बांधती है, संसार के विरोध-दृष्टि भी उससे कुछ कम नही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बंधती है।

साधना संसार व शरीर का विरोध नही, बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और नही दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्मसंयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्यबिन्दु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य मे हैं, वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनो के पार चले जाना है।

भोग या दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन, दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते है। अति ही अज्ञान है, यही अंधकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है, वह भोग और दमन, दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं । उसे ही अनायास ही मिल जाता है।- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ्य जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शांत व निर्भर हो जाता है। उसकी मुस्कराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसनें स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली, वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin