रविवार, 29 जुलाई 2012

पहली रोटी गाय को खिलाएं, क्योंकि..

गाय हिंदु धर्म में पवित्र और पूजनीय मानी गई है। शास्त्रों के अनुसार गौसेवा के पुण्य का प्रभाव कई जन्मों तक बना रहता है। इसीलिए गाय की सेवा करने की बात कही जाती है।

पुराने समय से ही गौसेवा को धर्म के साथ ...ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं। इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। गाय के धार्मिक महत्व को ध्यान में रखते हुए कई घरों में यह परंपरा होती है कि जब भी खाना बनता है पहली रोटी गाय को खिलाई जाती है। यह पुण्य कर्म बिल्कुल वैसा ही जैसे भगवान को भोग लगाना। गाय को पहली रोटी खिला देने से सभी देवी-देवताओं को भोग लग जाता है।

सभी जीवों के भोजन का ध्यान रखना भी हमारा ही कर्तव्य बताया गया है। इसी वजह से यह परंपरा शुरू की गई है। पुराने समय में गाय को घास खिलाई जाती थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी है। जंगलों कटाई करके वहां हमारे रहने के लिए शहर बसा दिए गए हैं। जिससे गौमाता के लिए घास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती है और आम आदमी के लिए गाय के लिए हरी घास लेकर आना काफी मुश्किल कार्य हो गया है। इसी कारण के चलते गाय को रोटी खिलाई जाने लगी है।

प्रभावशाली व्यक्तित्व

प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी को कभी भी असफलता का मुख नहीं देखना पड़ता, वे आसानी के साथ दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं तथा उन्हें अपना मित्र बना लेते हैं..मनुष्य की पहचान उसके व्यक्तित्व से ही होती है..नीचे कुछ बातें हैं जिनकी सहायता से हम अपने व्यक्तित्व का विकास करके स्वयं को प्रभावशाली बना सकते हैं !!

(1) दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार- 
दूसरों को अपमानित न करें और न ही कभी दूसरों की शिकायत करें। याद रखें कि अपमान के बदले में अपमान ही मिलता है।

दूसरों में जो भी अच्छे गुण हैं उनकी ईमानदारी के साथ दिल खोल कर प्रशंसा करें। झूठी प्रशंसा कदापि न करें। यदि आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों की निन्दा कभी भी न करें। किसी की निन्दा करके आपको कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल सकता उल्ट आप उसकी नजरों गिर सकते हैं।

अपने सद्भाव से सदैव दूसरों के मन में अपने प्रति तीव्र आकर्षण का भाव उत्पन्न करने का प्रयास करें।

सभी को पसंद आने वाला व्यक्तित्व

दूसरों में वास्विक रुचि लें। यदि आप दूसरों में रुचि लेंगे तो दूसरे भी अवश्य ही आप में रुचि लेंगे।

दूसरों को सच्ची मुस्कान प्रदान करें।

प्रत्येक व्यक्ति के लिये उसका नाम सर्वाधिक मधुर, प्रिय और महत्वपूर्ण होता है। यदि आप दूसरों का नाम बढ़ायेंगे तो वे भी आपका नाम अवश्य ही बढ़ायेंगे। व्यर्थ किसी को बदनाम करने का प्रयास कदापि न करें।

अच्छे श्रोता बनें और दूसरों को उनके विषय में बताने के लिये प्रोत्साहित करें।

दूसरों की रुचि को महत्व दें तथा उनकी रुचि की बातें करें। सिर्फ अपनी रुचि की बातें करने का स्वभाव त्याग दें।

दूसरों के महत्व को स्वीकारें तथा उनकी भावनाओं का आदर करें।

(2) अपने सद्विचारों से दूसरों को जीतें
तर्क का अंत नहीं होता। बहस करने की अपेक्षा बहस से बचना अधिक उपयुक्त है।

दूसरों की राय को सम्मान दें। ‘आप गलत हैं’ कभी भी न कहें।

यदि आप गलत हैं तो अपनी गलती को स्वीकारें।

सदैव मित्रतापूर्ण तरीके से पेश आयें।

दूसरों को अपनी बात रखने का पूर्ण अवसर दें।

दूसरों को अनुभव करने दें कि आपकी नजर में उनकी बातों का पूरा पूरा महत्व है।

घटनाक्रम को दूसरों की दृष्टि से देखने का ईमानदारी से प्रयास करें।

दूसरों की इच्छाओं तथा विचारों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनायें।

दूसरों को चुनौती देने का प्रयास न करें।

(3) अग्रणी बनें: बिना किसी नाराजगी के दूसरों में परिवर्तन लायें
दूसरों का सच्चा मूल्यांकन करें तथा उन्हें सच्ची प्रशंसा दें।

दूसरों की गलती को अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।

आपकी निन्दा करने वाले के समक्ष अपनी गलतियों के विषय में बातें करें।

किसी को सीधे आदेश देने के बदले प्रश्नोत्तर तथा सुझाव वाले रास्ते का सहारा लें।

दूसरों के किये छोटे से छोटे काम की भी प्रशंसा करें।

आपके अनुसार कार्य करने वालों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करें।

अपना और पराया

मनोहर वन में एक बार बहुत जोरों का तूफान आया | वैसा पहले न किसी ने देखा न सुना था | मूसलाधार पानी बरस रहा था, रह-रहकर बिजली कड़क रही थी कि सभी को उड़ाए ले जा रही थी | वृक्षों के कोटरों में रहने वाले नन्हें नन्हें पक्षियों के दिल काँप उठे | उस भयंकर तूफान में वृक्ष भी न खड़े रह पाए और एक-एक करके वे गिरने लगे |

जैसे-जैसे तूफान खत्म हुआ | पक्षी डरते-डरते अपने-अपने घोसलों से निकले | पूरे वन में दस पक्षी ही जीवित थे | शेष सभी उस तूफान की भेंट चढ़ चुके थे | अपने-अपने संबंधियों के शोक में वे सभी रोने लगे | दो दिन तक उन्होंने खाने की ओर मुँह तक भी न उठाया |

पूरे के पूरे वन में बस एक बरगद दादा ही बचे थे और सारे वृक्ष तूफान में गिर चुके थे | बरगद दादा से पक्षियों का दु:ख देखा न गया | उन्होंने प्यार से सभी को अपने पास इकट्ठा किया और बोले - "बच्चों ! जैसी स्थिति है उसका धैर्य से सामना करो | सोचो ! भगवान की इस लीला के आगे अब किया भी क्या जा सकता है ? सुख और दु:ख यह तो जीवन में निश्चित रूप से आते ही हैं ? उठो ! साहस से स्थिति का सामना करो | दु:ख को भी भगवान के प्रसाद के रूप में ले लो और नए सिरे से निर्माण में जुट जाओ | तुम्हारा जीवन अदभुत रूप से जगमगा उठेगा | "

-वृक्ष गंगा अभियान

नादिरशाह फकीर के पास गया। वहाँ उसने देखा कि परिंदे भी हैं, पानी भी हैं, अन्न भी हैं, फल भी है। फकीर ने उसके मन को पढ़ा और कहा कि परिंदों के कारण यहाँ अन्न-जल है। तुम इनसान जिंदा हो तो मात्र परिंदो के कारण। तुम्हारी क्रूरता ने, जल्लादी व्यवहार ने तो परिंदो को भी खतम कर दिया और वृक्ष भी समाप्त हो गए। 

आज पेड़ कट रहे है। परिंदे हमारे लिए पुण्य एकत्र करते हैं, वृक्षों की छाया में मात्र निवास चाहते है। पर हम उनका बसेरा उजाड़ रहे है। पथिकों को छाया, परिंदो को बसेरा, हमें फल-भोजन जंगलों से ही मिलते है। क्या हम समझेंगे कि वृक्षारोपण करने से ही हमारी भविष्य की पीढ़ी सुरक्षित रहेगी। इनसान व प्रकृति के बीच बड़ा सूक्ष्म आध्यात्मिक संबंध है। वह हमें जिंदा रखना है तो जंगल बचाने का-वृक्षों को लगाने का अभियान-वृक्ष गंगा अभियान लोकप्रिय बनाना होगा। 

अखण्ड ज्योति जुलाई 2011

बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं, गुण दें


(प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश )

सुख का निवास सदगुणों में है, धन-दौलत में नहीं | जो धनी है और साथ में दुर्गुणी भी, उसका जीवन दुःखों का आगार बन जाता है | दुर्गुण एक तो यों ही दुःख के स्रोत होते हैं फिर उनको धन-दौलत का सहारा मिल जाये तब तो वह आग जैसी तेजी से भड़क उठते हैं जैसे हवा का सहारा पाकर दावानल| मानवीय व्यक्तित्व का पूरा विकास सदगुणों से ही होता है | निम्नकोटि के व्यक्तित्व वाला मनुष्य उत्तराधिकार में पाई हुई सम्पत्ति को शीघ्र ही नष्ट कर डालता है और उसके परिणाम में न जाने कितना दुःख, दर्द, पीड़ा, वेदना, ग्लानी, पश्चाताप और रोगपाल लेता है |

जो अभिभावक अपने बच्चों में गुणों का विकास करने की ओर से उदासीन रहकर उन्हें केवल, उत्तराधिकार में धनदौलत दे जाने के प्रयत्न तथा चिंता में लगे रहते हैं वे भूल करते हैं | उन्हें बच्चों का सच्चा हितैषी भी कहा जा सकना कठिन है | गुणहीन बच्चों को उत्तराधिकार में धन-दौलत दे जाना पागल को तलवार दे जाने के समान है | इससे वह न केवल अपना ही अहित करेगा बल्कि समाज को भी कष्ट पहुँचायेगा | यदि बच्चों में सदगुणों का समुचित विकास न करके धन-दौलत का अधिकारी बना दिया गया और यह आशा की गई की वे इसके सहारे जीवन में सुखी रहेंगे तो किसी प्रकार उचित न होगा | ऐसी प्रतिकूल स्थिति में वह सम्पत्ति सुख देने में तो दूर उलटे दुर्गुणों तथा दुःखों को ही बढ़ा देगी |

यही कारण तो है कि गरीबों के बच्चे अमीरों की अपेक्षा कम बिगड़े हुए दीखते हैं | गरीब आदमियों को तो रोज कुआँ खोदना और रोज पानी पीना होता है | शराबखोरी, व्याभिचार अथवा अन्य खुराफातों के लिए उनके पास न तो समय होता है और न फालतू पैसा | निदान वे संसार के बहुत से दोषों से आप ही बच जाते हैं | इसके विपरीत अमीरों के बच्चों के पास काम तो कम और फालतू पैसा व समय ज्यादा होता है जिससे वे जल्दी ही गलत रास्तों पर चलते हैं | इसलिए आवश्यक है कि अपने बच्चों का जीवन सफल तथा सुखी बनाने के इच्छुक अभिभावक उनको उत्तराधिकार में धन-दौलत देने की अपेक्षा सदगुणी बनाने की अधिक चिंता करें | यदि बच्चे सदगुणी हों तो उत्तराधिकार में न भी कुछ दिया जाये तब भी वे अपने बल पर सारी सुख-सुविधाएँ इक्ट्ठी कर लेंगे | गुणी व्यक्ति को धन-सम्पती के लिए किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती |

१ बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें 
२ शिशु निर्माण में अभिभावकों का उत्तरदायित्व 
३ संतान पालन की शिक्षा भी चाहिए 
४ बच्चे घर की पाठशाला में 
५ शांति स्नेह और सौम्यता के प्यासे बालक 
६ बालकों का समुचित विकास आवश्यक 
७ बच्चों का पालन पोषण कैसे करें ? 
८ बालकों का विकास इस तरह होगा 
९ बालकों के निर्माण में माता का हाथ 
१० बच्चों को डराया न करें 
११ बच्चों में अच्छी आदतें पैदा कीजिये 
१२ बच्चों को सभ्य और सामाजिक बनाइए 
१३ बच्चे झगडालू क्यों हो जाते हैं ? 
१४ बच्चों को हठी न होने दीजिए 
१५ बच्चों को अनुशासन कैसे सिखाया जाए ? 
१६ बच्चों के मित्र बनकर उन्हें व्यवहार कुशल बनाएँ 
१७ बच्चों को व्यवहार कुशल बनाइये 
१८ बालकों के निर्माण का आधार 
१९ बालकों के निर्माण का आधार 
२० बालकों की शिक्षा में चरित्र निर्माण का स्थान 
२१ किशोरों के निर्माण में सावधानी बरती जाए 
२२ बच्चों की उपेक्षा न कीजिए 
२३ बाल अपराध की चिंता जनक स्थिति 
२४ बाल अपराध बढे तो राष्ट्र गिर जाएगा 
२५ बच्चे अपराधी क्यों बनते है ? 
२६ बालकों को अपराधी बनाने वाला अपराधी समाज 
२७ क्या दंड से बच्चे सुधरते हैं ? 
२८ बच्चों को दंड नहीं दिशाएँ दें

दुख क्या हैं ?

इच्छाएं दरिद्र बनाती हैं। उनसे ही याचना और दासता पैदा होती हैं। फिर, उनका कोई अंत भी नहीं हैं। जितना उन्हे छोड़ो, उतना ही व्यक्ति स्वतंत्र और समृद्ध होता हैं। जो कुछ भी नहीं चाहता हैं, उसके स्वतंत्रता अनंत हो जाती है। 


एक सन्यासी के पास कुछ रूपये थे। उसने कहा कि वह उन्हें किसी गरीब आदमी को देना चाहता हैं। बहुत से गरीब लोगों ने उसे घेर लिया और उससे रूपयों की याचना की। उसने कहा, मैं अभी देता हूँ - मैं अभी उसे रूपये दिए देता हूं जो इस जगत मे सबसे ज्यादा गरीब और भूखा हैं। यह कहकर सन्यासी भीतर गया। तभी लोगों ने देखा कि राजा की सवारी आ रही है। वे उसे देखने में लग गए। इसी बीच सन्यासी बाहर आया और उसने अपने रूपये हाथी पर बैठे राजा के पास फेंक दिए। राजा ने चकित हो, इसका कारण पूछा, फिर लोगो ने भी कहा कि आप तो कहते थे कि मैं रूपये सर्वाधिक दरिद्र व्यक्ति को दूंगा। सन्यासी ने हँसते हुए कहा-मैंने उन्हे दरिद्रतम व्यक्ति को ही दिया हैं। वह जो धन की भूख में सबसे आगे हैं, क्या सर्वाधिक गरीब नही हैं ?

दुख क्या हैं ? कुछ पाने की और कुछ होने की आकांक्षा ही दुःख हैं। दुख कोई नहीं चाहता, लेकिन आकांक्षाएं हो तो दुख बना ही रहेगा। किंतु, जों आकांक्षाओं के स्वरूप को समझ लेता हैं, वह दुख से नहीं, आकांक्षाओ से ही मुक्ति खोजता हैं। जब हम इच्छाओं और आकांक्षाओं के घेरे से बाहर आ जाते हैं तो दुख अपने आप दूर हो जाते हैं। और दुख के आगमन का द्वार अपने आप ही बंद हो जाता है। 

-ओशो

आत्मिक तृप्ति का आधार

संसार के प्रमुख दार्शनिकों का मत है कि जीव की स्वाभाविक इच्छा और अभिलाषा आत्मिक उन्नति की है। भौतिक सुविधाओं को लोग इकट्ठा करते हैं, इन्द्रियों के विष भोगते हैं, पर बारीक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि ये सब कार्य भी आत्मिक तृप्ति के लिये किये जाते है। यह दूसरी बात है कि धुँधली दृष्टि होने के कारण लोग नकल को ही असल समझ बैठें। आपने बड़े परिश्रम से धन इकट्ठा किया है, किन्तु विवाह मे उसे बड़ी उदारता के साथ खर्च कर देते है। उस दिन एक पैसे के लिये प्राण दिये मरते थे, आज आप अशर्फिया क्यों लूटा रहे है? इसलिये कि आज आप धन संचित रखने की अपेक्षा उसे खर्च कर डालने में अधिक सुख का अनुभव करते हैं। डाकू जिस धन का जान हथेली पर रखकर लाया था, उसे मदीरा पीनें में इस तरह क्यों उड़ा रहा है? इसलिये कि वह मदीरा पीने के आंनद को धन जोड़ने की अपेक्षा अधिक महत्व देता है। बीमारी में धर्म कार्यो मे, या अन्य बातों पर काफी पैसा खर्च हो जाता है, किन्तु मनुष्य कुछ भी रंज नही करता है। यही पैसा यदि चोरी मे चला जाता है तो उसे बड़ा दुख होता है। इन उदाहरणों से आप देखते है कि जिनका अमूल्य धन-संचय में खर्च हुआ जा रहा है। वे अपने उस जीवन रस को भी एक समय बड़ी लापरवाही के साथ उड़ा देते है। ऐसा इसलिये होता है कि उन खर्चीले कामों में आदमी अधिक आंनद का अनुभव करता है।

अखण्ड ज्योति जून 1980 पृष्ठ 16

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

तुम ईश्वर को पूजते हो या शैतान को

मनुष्य, शरीर को ‘‘मैं’’ समझता है। उसने एक जनश्रुति ऐसी अवश्य सुन रखी होती है कि आत्मा शरीर से भिन्न होती है, परन्तु इस पर उसका विश्वास नही होता। हम सब शरीर को ही यदि आत्मा नही मानते होते, तो यह भारत भूमि दुराचारों का केन्द्र न बन गई होती। गीता मे भगवान श्री कृष्ण पे अपना उपदेश आरम्भ करते हुये अर्जुन को यही दिव्य ज्ञान दिया है, ‘‘तू देह नहीं है।’’ आत्मस्वरूप को जिस प्रकार विस्मरण कर दिया है, उसी प्रकार ईश्वर को भी दृष्टि से ओझल कर दिया है।

हमारे चारो और जो घोर अज्ञानांधकार छाया हुआ है, उसके तम में कुछ और ही वस्तुये हमारे हाथ लगी है, और उन्हें ईश्वर मान लिया। रस्सी को सांप मान लेने का उदाहरण प्रसिद्ध है। रस्सी का स्वरूप कुछ-कुछ सर्प से मिलता जुलता है। अंधेरें के कारण ज्ञान ठीक प्रकार काम नहीं करता, फलस्वरूप भ्रम सच्चा मालूम होता है। रस्सी सर्प का प्रतिनिधित्व भली प्रकार करती है। इस गड़बड़ी के समय में ईश्वर के स्थान पर शैतान विराजमान हो गया है। और उसी को हम लोग पूजते हैं। आत्मा पंच तत्वों से सूक्ष्म है। पंच तत्व के रसों को इन्हीं तत्वो से बना हुआ शरीर ही भोग कर सकता है।

आत्मा तक कडुआ मीठा कुछ नही पहॅूचता। यह तो केवल इंद्रियों की तृप्ति-अतृप्ति को अपनी तृप्ति मानना भर है।

अखण्ड ज्योति मई 1980 पृष्ठ 06

उद्धेश्य ऊँचा रखें

मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते है, उतनी आसानी से सोना नही मिलता है। पापों की ओर आसानी से मन चला जाता है, किंतु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत करनें मे काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीचे पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्त अगर ऊँचे स्थान चढ़ाना हो तो पंप आदि लगाने का प्रयास किया जाता है।

बुरे विचार, तामसी संकल्प, ऐसे पदार्थ हैं जो बड़ा मनोरंजन करते हुये मन मे धंस जाते हैं ओर साथ ही अपनी मारक शक्ति को भी ले आते है। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करके जाना गया है कि वे काले रंग छुरियों के समान तीक्ष्ण एवं तेजाब की तरह दाहक होती है। उन्हें जहाँ थोड़ा सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश्य और भी बहुत सी सामग्री खींच लेती है। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्वों की भांति खिचनें की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़-उड़ कर वही एकत्रित होने लगतें है।

यही बात भले विचारों के सम्बन्ध में भी है। वे भी अपने सजातियों को अपने साथ इकठ्ठे करकें बहुकुटुम्बी बनने में पीछे नही रहतें । जिन्होने बहुत समय तक बुरे विचारों को अपने मन मे स्थान दिया है। उन्हें चिन्ता, भय और निराशा का शिकार होना पड़ेगा।

अखण्ड ज्योति अप्रेल 1980 पृष्ठ 10

संयम

परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिये जो उत्सुक होते है, वे प्रायः आत्मपीड़न को साधना समझ लेते हैं। उनकी यही भूल उनके जीवन को विषाक्त कर देती है। प्रभुप्राप्ति संसार के निषेध का रूप ले लेती है। इस निषेध के कारण आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का संरजाम जूटाने लगती है। इस नकार-दृष्टि से उनका जीवन नष्ट होने लगता है। और उन्हें होश भी नहीं आ पाता कि जीवन का विरोध परमात्मा के साक्षात्कार का पर्यायवाची नही हैं

सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी होते है। उन्हें आत्मचिंतन सूझता ही नहीं है। संसार के विरोधी कहीं न कहीं सूक्ष्मरूप से संसार से ही बंधे होते है। अनुभव यही कहता है कि संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितना संसार से बांधती है, संसार के विरोध-दृष्टि भी उससे कुछ कम नही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बंधती है।

साधना संसार व शरीर का विरोध नही, बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और नही दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्मसंयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्यबिन्दु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य मे हैं, वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनो के पार चले जाना है।

भोग या दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन, दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते है। अति ही अज्ञान है, यही अंधकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है, वह भोग और दमन, दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं । उसे ही अनायास ही मिल जाता है।- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ्य जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शांत व निर्भर हो जाता है। उसकी मुस्कराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसनें स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली, वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।

बुधवार, 18 जुलाई 2012

मन की स्थिरता...

मन का स्वभाव है कि वह किसी बात पर अधिक समय स्थिर नहीं रहता और उचटकर बार-बार इधर-उधर उड़ता है । आप किसी बात को सोचना चाहते हैं, किंतु मन उस पर नहीं जमता । ऐसी दशा में उस चिंतनीय विषय का कोई ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकेगा । इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने पर उत्तम मस्तिष्क वाले भी उतना काम नहीं कर सकते जितना कि साधारण मस्तिष्क के किंतु स्थिर चित्त वाले कर सकते हैं । कोई मनुष्य कितना ही चतुर क्यों न हो, यदि उसके मन को उचटने की आदत है और इच्छित विषय में एकाग्र नहीं होता, तो उसकी चतुरता किसी काम न आवेगी और उसके निर्णय अपूर्ण एवं असंतोषजनक होंगे ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

"Mental Stability

It is the nature of mind that it does not stay on one topic for a long time and keeps wandering off aimlessly. This restless tendency gets in the way of critical thinking and is a huge obstacle in the way of thoughtful, well reasoned decision making. A brilliant and highly distracted mind performs poorly compared to an average yet calm mind. No matter how smart we are, if our minds wander and are continuously distracted, our intelligence will be of little use and our decisions will be incomplete and unsatisfactory.

-Pt. Shriram Sharma Acharya 

कर्म-फल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा...

यदि कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गयें । कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भुगतना अवश्य ही पड़ेगा । कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिये होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य-धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं । जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की और बढऩे का शुभारम्भ कर दिया ।

लाठी के बल पर जानवरों को इस या उस रास्ते पर चलाया जाता है और अगर ईश्वर भी बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, इससे उसकी स्वतंत्र आत्म-चेतना विकसित हुई या नहीं इसका पता ही नहीं चलता । भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अन्तर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो । अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने मे समर्थ है या नहीं ? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता । आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा । देर हो सकती है अन्धेर नहीं । ईश्वरीय कठोर व्यवस्था, उचित न्याय और उचित कर्म-फल के आधार पर ही बनी हुई है सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शनिवार, 14 जुलाई 2012

महामना मालवीय जी

एक बार एक सेठ जी स्वयं महामना मालवीय जी के पास अपने एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए पहुँचे। 

महामना जी ने उनके इस निमंत्रण को इन विनम्र किंतु मर्मस्पर्शी शब्दों में अस्वीकार कर दिया-

‘यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास स्वयं निमंत्रण देने पधारें, किंतु जब तक मेरे इस देश में मेरे हजारों-लाखों भाई आधे पेट रहकर दिन काट रहे हों तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण बड़े-बड़े भोजों मे कैसे सम्मिलित हो सकता हूँ- ये सुस्वादु पदार्थ मेरे गले कैसे उतर सकते हैं।’’

महामना जी की यह मर्मयुक्त बात सुन सेठ जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रीतिभोज में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों के कल्याण हेतु दान दे दिया। बाद में उनका हृदय इस सत्कार्य से आनन्दमग्न हो उठा।

शिक्षा:-"अन्य लोगों के कष्टपीड़ित और अभावग्रस्त रहते स्वयं मौज- मस्ती में रहना मानवीय अपराध हैं।" 

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

It’s time to go to Blood Donation Camp.


1. It’s time to go to Blood Donation Camp.
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2. Donating Blood is a social responsibility.
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3. The blood is red gold in time of saving a life.
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4. Blessed are the young who can give back life with their blood — Donate Blood, save a life.
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5. To the young and healthy it’s no loss. To sick it’s hope of life. Donate Blood to give back life.
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6. Donate blood to save the dying.
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7 Care, share and live by donating Blood.
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8. Among flowers — the Rose. The blood donor.
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9. Share the joy of life, give the life of a child by donating Blood.
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10. I am proud, there is blood donor in my family.
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11. The Blood Donor of today may be recipient of tomorrow.
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12. Voluntary Blood Donors are the key to safe blood.
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13. Many people pray for mountains to be moved when all they need is to climb. Donate Blood for your near and dear one.
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14. Excuses never save a life. Blood donation does.
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15. Smile and give, some one will smile and live.
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16. Someone lives when someone gives. There is no substitute of human Blood.
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17. The finest gesture one can make is to save life by donating Blood.
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18. Drive carefully — otherwise you might need me — I am a Blood Donor.
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19. Share the happiness of glory. There is a feeling of joy when you give the gift of Blood.
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20. It will cost you nothing-it will save a life!
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21. Don't be Blood thirsty: share some of it with others.
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22. When anyone signs a blood donor form, he is signing a lease of life for someone else.
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23. Your Blood is worth bottling!
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24. You take holidays-the Blood Bank doesn't.
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Have a heart. Give Blood.


1. I am a blood donor. Are you too ?
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2. The finest gesture one can make is to save life by donating blood.
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3. Blood donors bring a ray of hope.
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4. Blood for human comes from human beings only.
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5. Blood Bank cannot get Blood from stone.
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6. Blood Donation would not hurt you, but it would save a life.
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7. Thank you, Blood Donor. Be a regular Blood Donor.
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8. Blood has no substitute as yet.
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9. Anybody having a heart to respond can donate blood to save life.
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10. Blood donation – a Gift of Love.
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11. Do not shed blood. Donate Blood.
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12. You can be a life saver without knowing swimming.
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13. Have a heart. Give Blood.
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14. Donate Blood so that others may live.
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15. Donation of Blood makes a difference between life and death.
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16. It is time to roll up your sleeve to offer your gift of love.
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17. Share a little, care a little – Donate Blood.
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18. You too can have the joy of saving a man’s life by donating Blood.
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19. Do you have a blood donor friend to stand by you in time of your need?
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20. You too can take up the job of saving a life by just donating your blood.
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21. Do you make friendship with Blood Donors?
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22. Let us be blood brothers.
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23. Let Blood bind us together in friendship for ever.
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24. The color of human blood is red all over the world. Anywhere you can donate your Blood.
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Vote for life with your Blood.


1. Share blood – Share life.
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2. It is a joy to give Blood.
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3. Tears of a mother cannot save her Child. But your Blood can.
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4. Be a Blood Donor and save a life.
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5. Donation of Blood means a few minutes to you but a lifetime for somebody else.
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6. People can get along without teeth or hair but not without Blood.
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7. Donation of Blood is harmless and safe.
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8. Safe Blood starts with me.
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9. You can Donate Blood 168 times between the age of 18 - 60 years.
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10. Your refusal to Donate Blood may cost a life of your near and dear one.
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11. A life is waiting for a bag of Blood from you.
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12. Remember, today you can give your blood. Tomorrow your near and dear one may need it.
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13. Every tomorrow needs a blood donor today.
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14. Many things in this world can wait but transfusion of Blood to a dying patient cannot.
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15. Calling Blood Donors to save life. Can you hear?
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16. Give a gift of love. Your own Blood.
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17. Vote for life with your Blood.
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18. Be a Life Guard. Give Blood to save life.
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19. Have you donated Blood? If not........do it Now.
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20. Give the gift of Blood, the gift of life.
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21. For every 1000 who can Donate Blood only four do ! What about you ! Give Blood and gift a life.
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22. Blood is meant to circulate. Pass it around.
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23. If blood bank gives blood only to the blood donors, what would be the chance of those who depend on you?
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24. Five minutes of your time + 350 ml. of your blood = One life saved.
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SLOGANS ON BLOOD DONATION

Donor Motivators and Donor Organizers often look for suitable slogan for their campaign. Here are some slogans collected or coined or used by them. These slogans with suitable visuals can be converted into posters.


1 A bottle of blood saved my life. Was it yours?
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2 My son is back home because you donated Blood.
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3 Maa is coming back home because you gave Blood.
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4 Blood donation is a friendly gesture.
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5 Blood owners should be Blood Donors.
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6 Blood is meant for circulation. Donate Blood.
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7 Blood Donors bring Sunshine.
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8 Keep Blood Bank shelves full. You may need Blood someday.
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9 Someone is needing Blood somewhere.
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10 Life of some patients is resting on a fraction of hope in quest of your gift of love.
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11. A life in the surgeon’s hand may be yours. Donate Blood for tomorrow.
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12. Observe your birthday by donating Blood.
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13. Wouldn't you have given blood if this child was yours?
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14. Donate Blood – Gift life.
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15. Give mankind the greatest gift. Donate blood when Blood Bank comes to your place.
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16. A few drops of your Blood can help a life to bloom.
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17. At 18 you grow up. At 18 you drive. At 18 you give Blood to keep someone alive.
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18. Give the gift that keeps on living. Donate Blood.
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19. We need you to save life.
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20. You don’t have to have a medical degree to save a life. Just a fair degree of humanity. Give Blood. Save Life.
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21. Blessed are the young who can Donate Blood.
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22. Blood donation will cost you nothing but it will save a life !
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23. Patients need your gift of love to fight against mortal sickness.
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24. Your donation of Blood today may be an investment for your future.
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हम स्वयं अपने स्वामी बनें

तुम व्यर्थ में दूसरों के अनर्थकारी संदेशों को ग्रहण कर लेते हो। तुम वह सच मान बैठते हो, जो दूसरे कहते हैं। तुम स्वयं अपने आप को दु:खी करते हो कि दूसरे लोग हमें चैन नहीं लेने देते। तुम स्वयं ही दु:ख का कारण हो, स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो किसी ने कुछ कह दिया, तुमने मान लिया। यही कारण है कि तुम उद्विग्न रहते हो।

सच्चा मनुष्य एक बार उत्तम संकल्प करने के लिए यह नहीं देखता कि लोग क्या कह रहे हैं। वह अपनी धुन का पक्का होता है। सुकरात के सामने जहर का प्याला रखा गया, पर उसकी राय को कोई न बदल सका। बंदा बैरागी को भेड़ों की खाल पहना कर काले मुँह गली-गली फिराया गया, किन्तु उसने दूसरों की राय न मानी।

दूसरे के इशारों पर नाचना, दूसरों के सहारे पर निर्भर रहना, दूसरों की झूठी टीका-टिप्पणी से उद्विग्न होना मानसिक दुर्बलता है। जब तक मनुष्य स्वयं अपना स्वामी नहीं बन जाता, तब तक उसका संपूर्ण विकास नहीं हो सकता। दूसरों का अनुकरण करने से मनुष्य अपनी मौलिकता से हाथ धो बैठता है।

स्वयं विचार करना सीखो। दूसरों के बहकावे में न आओ। कर्तव्य-पथ पर बढ़ते हुए, दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता न करो। यदि ऐसा करने का साहस तुम में नहीं है, तो जीवन भर दासत्व के बंधनों में जकड़े रहोगे।

Mahatma Anand Swami and the Rich Man

Once, a wealthy man came to Mahatma Anand swami. He was the owner of several factories. All his sons were pursuing the business well. His wife had passed away previously. In spite of prosperity all around, his heart was not at peace. His hunger and sleep had gone. He humbly intimated his distress and ailment to the great saint.

Mahatma Anand swami said, “In your life, you did give importance to action and labor but not to the emotions. Good company and hearing religious discourses only nourish the thoughts.

Now start giving away love, money and labor in order to remove the inner dryness. Give affection to all, go among the orphans and the poor, help them to be self-reliant. Put your physical efforts also in these noble works, as much as you can. Then see that your hunger will be returned to you and you will have a sound sleep.”

The rich man did accordingly and consequently the miraculous transformation, that he experienced, gave him a great peace and happiness which he had never experienced before.

Pragya Puran, Part-I, Page 143. 

जीवन का सच्चा सहचर-ईश्वर

ऐसा सबसे उपयुक्त साथी जो निरंतर मित्र, सखा, सेवक, गुरु, सहायक की तरह हर घड़ी प्रस्तुत रहे और बदले में कुछ भी प्रत्युपकार न माँगे, केवल एक ईश्वर ही हो सकता है।

ईश्वर को जीवन का सहचर बना लेने से मंजिल इतनी मंगलमय हो जाती है कि यह धरती ही ईश्वर के लोक, स्वर्ग जैसी आनंदयुक्त प्रतीत होने लगती है। 

यों ईश्वर सबके साथ है और वह सबकी सहायता भी करता है, पर जो उसे समझते हैं, वास्तविक लाभ उन्हें ही मिल पाता है। किसी के घर में सोना गड़ा है और उसे वह प्रतीत न हो, तो गरीबी ही अनुभव होती रहेगी, किंतु यदि मालूम हो कि घर में इतना सोना है, तो उसका भले ही उपयोग न किया जाए, मन में अमीरी का गर्व और विश्वास बना रहेगा। ईश्वर को भूले रहने पर हमें अकेलापन प्रतीत होता है, पर जब उसे अपने रोम-रोम में समाया हुआ, अजस्र प्रेम और सहयोग बरसाता हुआ अनुभव करते हैं, तो साहस हजारों गुना अधिक हो जाता है। आशा और विश्वास से हृदय हर घड़ी भरा रहता है। जिसने ईश्वर को भुला रखा है, अपने बलबूते पर ही सब कुछ करता है और सोचता है, उसे जिंदगी बहुत भारी प्रतीत होती है। इतना वजन उठाकर चलने में उसके पैर लडख़ड़ाने लगते हैं। अपने साधनों में कमी दीखने पर भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगता है। जिसे ईश्वर पर विश्वास है, वह सदा यही अनुभव करेगा कि कोई बड़ी शक्ति मेरे साथ है। जहाँ अपना बल थकेगा, उसका बल मिलेगा। 
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 11 जुलाई 2012

Let us encourage virtue and integrity

ऐसी सामाजिक रीति-नीति, प्रथा-परम्परा हमें विकसित करनी चाहिए । धन का मान घटाया जाय और मनुष्य का मूल्यांकन उसके उच्च-चरित्र एवं लोक-मंगल के लिए प्रस्तुत किये त्याग, बलिदान के आधार पर किया जाये । सभी को सम्मान इसी आधार पर मिले । कोई व्यक्ति कितना ही धनी क्यों न हो इस कारण सम्मान प्राप्त न कर सके कि वह दौलत का अधिपति है । उचित तो यह है कि ऐसे लोगों का मूल्य और सम्मान लोक-सेवियों की तुलना में बहुत घटाकर रखा जाय । धन के कारण सम्मान मिलने से लोग अधिक अमीर बनने और किसी भी उपाय से पैसा कमाने को प्रेरित होते हैं । यदि धन का सम्मान गिर जाय, संग्रह को कंजूसी और स्वार्थपरता का प्रतीक मानकर तिरस्कृत किया जाय तो फिर लोग धन के पीछे पागल फिरने की अपेक्षा-सामाजिक सम्मान प्राप्त करने के लिए सत्कर्मों की और प्रवृत होने लगेंगे ।

सादगी को सराहा जाय और उद्धत वेशभूषा एवं भडक़ीली श्रृंगार-सज्जा एवं चित्र-विचित्र बनावट को ओछेपन का प्रतीक माना जाय और जो बचकानी श्रृंगारिकता, भौंड़ी फैशन, अर्द्धनग्ना, हिप्पी साज-सज्जा पनपी है उसे तिरस्कृत किया जाना चाहिए । केवल सत्त्प्रवृत्तियॉं सराही जायें, उन्हीं की चर्चा की जाये और उन्हीं को ही सम्मानित किया जाय ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

क्या हम ईश्वर को मानते है ?

ईश्वर और परलोक आदि के मानने की बात मुँह से न कहिये । जीवन से न कहकर मुँह से कहना अपने को और दुनिया को धोखा देना है । हममें से अधिकांश ऐसे धोखेबाज ही हैं । इसलिये हम कहा करते है कि हजार में नौ-सौ निन्यानवे व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते । मानते होते तो जगत में पाप दिखाई न देता ।

अगर हम ईश्वर को मानते तो क्या अँधेरे में पाप करते ? समाज या सरकार की आँखों में धूल झोंकते ? उस समय क्या यह न मानते कि ईश्वर की आँखों में धूल नहीं झोंकी गई ? हममें से कितने आदमी ऐसे हैं जो दूसरों को धोखा देते समय यह याद रखते हों कि ईश्वर की आँखें सब देख रही हैं ? अगर हमारे जीवन में यह बात नहीं है, तो ईश्वर की दुहाई देकर दूसरों से झगड़ना हमें शोभा नहीं देता ।

धर्म तत्त्व का दर्शन एवं मर्म (53)-2.70"
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

सद्व्यवहार सब चाहते हैं

संसार की हर एक जड़ चेतन वस्तु चाहती है कि मेरे साथ सद्व्यवहार हो । जिसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे वही बदला लेगी । अगर छाते को लापरवाही से पटक देंगे तो जरूरत पड़ने पर उसकी तानें टूटी और कपड़ा फटा पायेंगे । जूते के साथ लापरवाही बरतेंगे तो वह या तो काट लेगा या जल्दी टूट जायेगा । सूई को यहाँ-वहाँ पटक देंगे तो वह पैर में चुभ कर अपनी उपेक्षा का बदला लेगी, कपड़े उतार कर जहाँ-तहाँ डाल देंगे तो दुबारा तलाश करने पर वे मैले, सलवट पड़े हुए, दाग-धब्बे युक्त मिलेंगे । यदि आप घर की सब वस्तुओं को संभाल कर रखेंगे तो वे समय पर सेवा करने के लिए हाजिर मिलेंगी । इसी प्रकार स्त्री, पुरुष, भाई, बहिन, माता, पिता, मित्र, सम्बन्धी, परिचित, अपरिचित यदि आपसे भलमनसाहत का व्यवहार पायेंगे तो बदले में उसी प्रकार का वर्ताव लौटा देंगे ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

पैसों से जुड़ी ये चाणक्य नीति ध्यान रखें, मालामाल रहेंगे...

पैसा या धन के महत्व को देखते हुए शास्त्रों में कई नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करने पर हर व्यक्ति को जीवन में सुख और शांति प्राप्त होती है। पैसों के संबंध में आचार्य चाणक्य ने एक महत्वपूर्ण बात बताई है कि-

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणाम्।
तडागोदरसंस्थानां परीस्रव इवाम्भसाम्।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि हमारे द्वारा कमाए गए धन का उपभोग करना या व्यय करना ही धन की रक्षा के समान है। इसी प्रकार किसी तालाब या बर्तन में भरा हुआ पानी उपयोग न किया जाए तो सड़ जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति धन या पैसा कमाता है तो उसका सदुपयोग करना चाहिए। काफी लोग धन को अत्यधिक संग्रहित करके रखते हैं, उसका उपयोग नहीं करते हैं। आवश्यकता से अधिक धन का संग्रहण अनुचित है। इसलिए धन का दान करना चाहिए। सही कार्यों में धन को निवेश करना चाहिए। यही धन की रक्षा के समान है। यदि कोई व्यक्ति दिन-रात मेहनत करके पैसा कमाता है और उसका उपभोग नहीं करता है तो ऐसे पैसों का लाभ क्या है। हमेशा पैसों का सदुपयोग करते रहना चाहिए। इसी प्रकार किसी तालाब में भरा जल उपयोग न किया जाए तो वह सड़ जाता है। ऐसे पानी को बचाने के लिए जरूरी है कि उसका उपयोग किया जाए। यही बात धन पर भी लागू होती है। 

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