सुदामा व कृष्ण सांदीपनि आश्रम में साथ-साथ पढ़ते थे। एक बार गुरूमाता ने लकड़ी काटकर लाने को कहा। दोनो गए। श्रीकृष्ण पेड़ पर चढ़ गए। ऊपर से लकड़ी काट-काटकर नीचे डालते जाते व सुदामा एकत्र कर लेते। माता ने साथ में पाथेय के रूप में चूड़ा भी दिया था, ताकि भूख लगने पर खा ले। दोनो के लिए था। श्रीकृष्ण चढ़े हुए थे। चूड़ा नीचे रखा था। सुदामा को भूख लग रही थी। पहले अपना हिस्सा खाने को आगे बढ़े। जब वह खा लिया तो श्रीकृष्ण का हिस्सा भी खा गए। बात आई-गई हो गयी। लीला पुरूषोत्तम से कुछ छिपा हैं क्या ! सब जानते हैं कि सुदामा गुरूकुल से तो गए, पर दरिद्रता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। श्रीकृष्ण ऐश्वर्य के धनी द्वारकाधीश थे। एक ऋषि घर आए तो सुदामा ने अपनी दरिद्रता के निवारण का उपाय पूछा। ऋषि द्रष्टा स्तर के थे। बोले-‘‘तुमने अपने चिंतन की दरिद्रता तब दिखाई, जब श्रीकृष्ण सखारूप में तुम्हारे साथ थे। यज्ञपुरूष का हिस्सा ही तुमने रख लिया। स्वयं श्रीकृष्ण ही तुम्हारा त्राण कर सकते हैं।’’ आगे की कथा सबको मालूम हैं कि जब वे दाने कृष्णार्पित हुए तो श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्याज सहित वैभव दिया।
परमात्मा देने में कृपणता नहीं बरतता, हम बरतते हैं। हम दे तो हमें भी मिलेगा। समयदान, अंशदान उसी निमित्त तो हैं।
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