1) राज तन्त्र ही नहीं प्रधान, धर्म तन्त्र पर भी दो ध्यान।
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2) राजा ययाति सशरीर स्वर्ग गये थे पर जब उन्होन वहा अपने पुण्यों की बहुत प्रशंसा करनी आरम्भ की, तो उनके पुण्य क्षीण हो गये और उन्हे स्वर्ग से नीचे ढकेल दिया गया।
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3) राग-द्वेष को अपने में न मानना अर्थात् आने-जाने वाला मानना हैं।
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4) राग-द्वेष उत्पन्न होने पर भी उनके वश में होकर कार्य न करना बल्कि शास्त्र, भगवान तथा सन्तो के आज्ञानुसार ही कार्य करना चाहिये।
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5) राग-द्वेष अज्ञानियों की पूँजी हैं, ज्ञानवान इस पूँजी का संचय करने में अपना मूल्यवान समय नष्ट नहीं करते।
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6) श्रवण और कथन से दिशा तो मिलती हैं, पर आत्मकल्याण के मार्ग पर पर्वतो जैसी चढाई चढनी पडती है।
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7) श्रेष्ठ कार्यो के प्रति लगाव ही श्रद्धा है।
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8) श्रेष्ठ विचारों के चिन्तन-मनन की साधना वस्तुतः मस्तिष्कीय क्षैत्र में घुसे मनोविकारों को, दुष्प्रर्वतियों को निरस्त करने के लिये लड़ा जाने वाला महाभारत हैं।जो इसमें सफल होते हैं,वे ही सच्चे अर्थो में जीवन का आनन्द उठाते हुए आत्मोत्कर्ष का परम लाभ प्राप्त करते हैं।
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9) श्रेष्ठ चिन्तन की सार्थकता तभी हैं, जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक हैं, जब हव श्रेष्ठ व्यवहार बन कर प्रकट हो।
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10) श्रेष्ठ चिन्तन का अभाव एवं उत्कृष्टता के प्रति अनास्था अंततः उदण्डता को जन्म देते है।
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11) श्रेष्ठ साधक ही श्रेष्ठ कार्यकर्ता होता हैं। प.पू.गुरुदेव।
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12) श्रेष्ठ आदतो में सर्वसुलभ है-नियमितता की आदत।
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13) श्रेष्ठता धन से नही, श्रेष्ठ कार्यो से मिलती है।
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14) श्रेष्ठता का समुच्चय ही देवता है।
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15) श्रेय और प्रेय दोनो दिशायें एक दूसरे के प्रतिकूल जाती है। संसार में दोनो में से एक ही अपनायी जा सकती है। संसार प्रसन्न होगा तो आत्मा रुठेगी। आत्मा को सन्तुष्ठ किया जायेगा तो संसार के निकटस्थों की नाराजगी सहन करनी पडेगी। आमतोर से यही होता रहेगा। कदाचित ही कभी कहीं ऐसे सौभाग्य बने हैं जब सम्बन्धियों ने आदर्शवादिता अपनाने का अनुमोदन दिया हो।
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16) श्रेष्ठ स्मृतियों का बटन आपके हाथ में हो, तो जीवन आनन्दमय बन जाएगा।
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17) शत्रु पण्डित, मुर्ख हितैषी से अच्छा है।
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18) शब्द से निःशब्द में छलांग लगाने का साहस ही साधना है।
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19) शब्द व्यक्ति की दरिद्रता को दर्शाते हैं, जबकि निःशब्द अवस्था उसके अन्तःकरण की महानता का द्योतक है।
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20) शक्ति आनन्द के साथ रहती हैं, यह विश्व शक्तिशाली का ही है।
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21) शरीर की समीपता की सान्निध्य का आधार नहीं होती। ईश्वर भक्ति का आनन्द उसके अदृश्य रहने से सम्भव होता हैं, यदि वह अपने साथ भाई-भतीजे की तरह रहने लगे तो शायद उसकी उपेक्षा-अवज्ञा होने लगे।
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22) शरीर को भगवान का मन्दिर समझ कर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करनी चाहिये।
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23) शरीर भूखा मरे तो भी आत्मा के स्तर को आँच नहीं आती। किन्तु यदि सद्ज्ञान की वर्षा बन्द हो जाये तो मनुष्य की आत्मा ही मरती है। अतः सद्ज्ञान प्राप्ति के प्रयास जारी रहने चाहिए।
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24) शरीर रोगी और दुर्बल रखने के समान दूसरा कोई पाप नही।
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