विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
पानी हैं तब तक, जंगल हैं जब तक।
1) परमात्मा पूजा से नही, प्रेम से मिलता है।
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2) परमेश्वर को खो देना ही विपत्ति हैं और उसे पा लेना ही सम्पत्ति है।
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3) परहित के लिये थोडा सा कार्य करने से भीतर की शक्तियाँ जाग्रत होती है।
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4) परहित में स्वहित निहित हैं। दूसरे के अपकार या उत्पीडन में भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो, स्वहित का दिखायी देना मृगमरीचिका है।
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5) परीक्षा की घडी ही मनुष्य को महान् बनाती हैं, विजय की घडी नही।
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6) परपीडा से छलक उठे मन, यह छलकन ही गंगाजल है।
दुःख हरने को पुलक उठे मन, यह पुलकन ही तुलसीदल हैं।।
जो अभाव में भाव भर सके, वाणी से रसदार झर सके।
जनहिताय अर्पित जो जीवन, यह अर्पण ही आराधन है।।
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7) परोपकार का प्रत्येक कार्य स्वर्ग की ओर एक कदम है।
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8) परोपकार मूर्खता नहीं बुद्धिमानी हैं, क्योकि इसका कई गुना लाभ हमें भी मिलता है।
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9) परचर्चा-परनिंदा में नहीं , स्व सृजन में हैं सार्थकता।
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10) पाण्डव पाँच हमें स्वीकार, कौरव सौ धरती का भार।
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11) पात्रता का दूसरा नाम परिश्रम है।
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12) पात्रताः- पात्रता यदि हो, तो अनुकम्पा कहीं से भी प्राप्त हो जाती हैं। क्षेत्र भौतिक हो या आध्यात्मिक, सर्वत्र याग्यता की ही परख होती हैं। जो योग्य होते हैं उन्हे पद, प्रतिष्ठा, सहायता, सम्मान सब कुछ प्राप्त होते है। अयोग्यो और अपात्रो की तो हर रोज उपेक्षा ही होती है। हम पात्रता विकसित करें, सहायता स्वयमेव खिंची चली आयेगी।
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13) पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता हैं और इसे केवल वे ही उपलब्ध कर सकते हैं जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा भावनाओ से परिपूर्ण हो। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केवल जीवन विद्या के आदर्श ही कर सकते है।
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14) पाप की कौडी पुण्य का सोना भी खींच ले जाती है।
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15) पाप की अवहेलना मत करो।
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16) पाप का निश्चित परिणाम दुःख है।
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17) पाप का आरम्भ लालच से होता है।
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18) पाप सभी बीमारियों से बुरा हैं, क्योकि वह आत्मा पर चोट करता है।
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19) पानी जितना गहरा होता हैं, उतना ही शांत रहता है।
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20) पानी हैं तब तक, जंगल हैं जब तक।
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21) पाँच अंगो ( दो हाथ, दो पैर और मुँह ) को गीला कर पूर्व की ओर मुँह कर मौन हो भोजन करे।
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22) पद और धन सुनहरी बेडि़या है।
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23) पदार्थ विज्ञान में प्रयोग करना पडता हैं, अध्यात्म विज्ञान में प्रयोग की आवश्यकता नही।
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24) पुरुष अपने ही क्रिया-कलापो से बना हैं। वह जैसा सोचता हैं वैसा ही हो जाता है।
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परिवर्तन से डरोगे तो तरक्की कैसे करोगे ?
1) पढिबे को फल गुनब हैं, गुनबे को फल ज्ञान। ज्ञान को फल हरिनाम हैं, कहि श्रुति संत पुराण।
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2) परिस्थिति ही महापुरुषो का विद्यालय है।
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3) परिस्थिति सदा अनुकूल ही रहें, ऐसी आशा न करों। संसार केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बना है।
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4) परिश्रम ही सफलता की कुन्जी है। यदि आपने वाकई परिश्रम किया हैं तो यकीन मानिये सफलता आपकी ही राह देख रहीं है।
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5) परिवार-नियोजन कार्यक्रम से आयु और कम होंगी तथा रोग बढेंगे। स्वामी रामसुखदास जी महाराज।
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6) परिवारों में सुसंस्कारिता बोये, सर्वतोन्मुखी प्रगति के दृश्य देखे।
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7) परिवर्तन से डरोगे तो तरक्की कैसे करोगे ?
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8) परिवर्तन से डरना और संघर्ष से कतराना मनुष्य की सबसे बडी कायरता है।
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9) पडित/संत-जो शास्त्रों के पीछे दौडता हैं, वह पंडित है। और जो सत्य के पीछे दौडता है, वह संत है। पंडित शास्त्रो के पीछे दौडता है। जबकि संत के पीछे शास्त्र दौडतें हैं। शास्त्र पढकर जो बोले वह पंडित और सत्य पाकर जो बोले वह संत हैं। पंडित जीभ से बोलता है, संत जीवन से बोलता हैं, जिसका जीवन बोलने लगे, वह जीवित भगवान है।
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10) पवित्र बनने के लिए प्रेम की आँख चाहिए। पुण्यवान बनने के लिए श्रद्धा की आँख चाहिए। प्रसन्न रहने के लिए आशा की आँख चाहिए। प्रभु दर्शन पाने के लिए प्रतीक्षा की आँख चाहिए।
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11) पवित्र विचारों से ओत-प्रोत व्यक्ति की ईश्वर व प्रकृति भी सहायता करने लगते है।
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12) पतिव्रता नारी गरीब-से-गरीब घर को स्वर्ग बना देती है।
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13) पीढियों को सुसंस्कृत बनाना हैं तो महिलाओ को सुयोग्य बनाओ।
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14) पीपल को अति प्राचीन, पवित्र एवं दिव्य वृक्ष माना हैं, जो अपने चारो ओर वातावरण में सतोगुणी विचार एवं भाव घोलता रहता है।
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15) पीपल के मूल में शनिवार के दिन काले तिल, दूध और जल या गंगाजल मिलाकर डालने से पाप-तापों का शमन होता हैं । शनिवार की शाम या रात को सरसों तेल का दीपक जलाने का भी विधान है।
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16) पीतल और सोने में, काँच और रत्न में जो अन्तर हैं वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति और आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है।
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17) पर दोष दर्शन एवं अपने गुण दर्शन का त्याग करना चाहिये।
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18) परमपिता परमेश्वर आपकी जीवन-साधना को परिपक्व और प्रखर करे। आपकी अंतर्निहित शक्तिया जाग्रत हो। जीवन सफलता और समृद्धि की ओर अग्रसर होता रहे। यश एवं कीर्ति के गान जिंदगी के आंगन में गूँजते रहे। उल्लास और उमंगो की नई तरंगो का स्पर्श मिलता रहे। आंतरिक प्रसन्नता व संतोष से अंतःकरण का हर कोना सुवासित होता रहे। ऐसी मंगलकामना।
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19) परम्पराओ की तुलना में विवेक को महत्व दीजिये।
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20) परमपूज्य गुरुदेव ने पाठक मनोविज्ञान को पढने का प्रयास किया था। देखा कि आत्मज्ञान घुट्टी कडवी हैं व इसे सुगर कोटेड गोली के रुप में देना हैं तो जिज्ञासा को जिन्दा बनाये रखकर धीरे-धीरे इन सभी विषयों के प्रति आकर्षण को प्रगतिशील मोड देना होगा। यही विचार-परिवर्तन हैं, ब्रेनवाशिंग हैं। वस्तुतः यह बडी धीमी प्रक्रिया होती है।
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21) परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अपने अन्तःकरण के अतिरिक्त और कोई भी अपनी गतिविधियों की समीक्षा कर सकने लायक नहीं है।
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22) परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है।
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23) परमात्मा की उपासना के साथ कामनाए जोडना ओछापन है।
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24) परमात्मा का ज्ञान परमात्मा से अभिन्न होने पर ही होता हैं और संसार का ज्ञान संसार से अलग होने पर ही होता है-यह बात आप याद कर ले।
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अखण्ड ज्योति जुलाई 1987
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