शनिवार, 1 जनवरी 2011

दादू के शिष्य रज्जब

दादू के शिष्य थे रज्जब। पहले जन्म की बात हैं, जिसमें दोनो गुरू-शिष्य के रूप में साथ थें। भिक्षा लेने गऐ। कहते जा रहे थे-‘‘दे माई सूत-ले भाई पूत।’’ उन दिनों घर-घर में सूत कातने की परंपरा थी। सूत के बदले सब कुछ ले लिया जाता था। वे वायदा कर रहे थे पूत (पुत्र) देने का। एक धनवान घर की महिला अंदर गई। उसने सूत का अंबार लगा दिया। फिर बोली-‘‘वचन मत भूलना। बेटा मिलेगा न !’’ रज्जब बोले-‘‘गुरू का आशीष होगा तो जरूर मिलेगां’’ दादू ने उनके आश्रम पहुचते ही कहा-‘‘ तू कौन होता हैं पूत देने वाला। अब कहा हैं तो शरीर छोड़ो और उसके यहां जन्म लो।’’ योगबल से रज्जब ने शरीर छोड़ा और उसी धनी महिला के यहा जन्मे। बड़े हुए मन में गुरू के संस्कार तो थे, पर घर की आसक्ति, ठाठ-बाट, ऐश्वर्य में सब भूले हुए थे। उनकी शादी का समय आ गया। सेहरा बांधे चले जा रहे थे। दादू उधर से आ निकले। दिव्यवाणी निकली-

फूलो फूलो फिरत हैं आज हमारो ब्याऊ।
छादू गाए बजाय के दियो काठ में पांव।।

बस रज्जब हो होश आ गया। सेहरा बांधे-बांधे ही वे वहां से भागे और दादू के चरणों में जा गिरे। पूर्वजन्म के गुरू का स्मरण हो आया। ऐसा कहा जाता हैं कि फिर पूरे जीवन वे सेहरा पहने ही दादू के उपदेश सुनते रहे।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Nice bhut Dhayanwad

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