सोमवार, 16 अगस्त 2010

राष्ट्र धर्म

राष्ट्र हम में से हरेक के सम्मिलित अस्तित्व का नाम है। इसमें जो कुछ आज हम है, कल थे और आने वाले कल में होंगें, सभी कुछ शामिल है। 
हम और हम में से हरेक के हमारेपन की सीमाएँ चाहे जितनी भी विस्तृत क्यो न हों, राष्ट्र की व्यापकता में स्वयं ही समा जाती है। इसकी असीम व्यापकता में देश की धरती, गगन, नदियाँ, पर्वत, झर-झर बहते निर्झर, विशालतम सागर और लघुतम सरोवर, सघन वन, सुरभित उद्यान, इनमें विचरण करने वाले पशु, आकाश में विहार करने वाले पक्षी, सभी तरह के वृक्ष व वनस्पतियाँ समाहित है। 
प्रांत, शहर, जातियाँ, यहाँ तक कि रीति-रिवाज, धर्म-मजहब, आस्थाएँ-पंरपराएँ राष्ट्र के ही अंग-अवयव है। राष्ट्र से बड़ा अन्य कुछ भी नही हैं।
भारतवासियों की एक ही पहचान है - भारत देश, भारत मातरम् । 
हम में से हरेक का एक ही परिचय है - 
राष्ट्रध्वज, अपना प्यारा तिरंगा। इस तिरंगे की शान में ही अपनी शान है। इसके गुणगान में ही अपने गुणो का गान हैं ।
हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परंपराएँ, यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती है; जहाँ तक कि ये राष्ट्र धर्म का पालन करने में, राष्ट्र के उत्थान में सहायक है। राष्ट्र की अखंड़ता, एकजुटता और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता को निछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्तव्य है। 
राष्ट्र धर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। 
यह हिंदू के लिए भी उतना ही अनिवार्य है, जितना कि सिख, मुसलिम या ईसाइ के लिए। 
यह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब या तमिल, तैलंगाना की सीमाओं से कही अधिक है। 
इसका क्षेत्र तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वत्र व्याप्त है। 
राष्ट्र धर्म के पालन का अर्थ है- राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदशील होना, कर्तव्यनिष्ठ होना; राष्ट्रीय हितो के लिए, सुरक्षा के स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत बलिदान करते रहना । 

युग परिर्वतन के अग्रदूत

परमपूज्य गुरुदेव अपने प्रवचन में कहा करते थे-

‘‘ मै धरती का भाग्य-भविष्य बदलने आया हूँ। 

मै आना नही चाहता था, पर मुझे धकेला गया है। और विशिष्ट कार्यो के लिए भेजा गया है । 

लोग मुझे मनोकामना पूरी करने की मशीन मानते है । 

मै उनकी थोड़ी मानकर उन्हें बदलने का प्रयास करता हूँ । 

जो बदल जाते हैं, वे ही मेरे सैनिक-युग परिर्वतन के अग्रदूत बन जाते है । 

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रगति रुक गई

एक बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला ही सिखाई। दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते। बाप की मूर्ति डेढ़-दो रुपये की बिकती, पर बेटे की मूर्तियों का मूल्य केवल आठ-दस आने से अधिक न मिलता। हाट से लौटने पर बेटे को पास बैठाकर बाप, उसकी मूर्तियों में रही त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए कहता। यह क्रम वर्षो चलता रहा। लड़का समझदार था। उसने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा । कुछ समय बाद लड़के की मूर्तिया भी डेढ़ रुपये की बिकने लगीं। बाप भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों की ओर उसका ध्यान खींचता। बेटे ने और अधिक ध्यान दिया तो कला भी अधिक निखरी। मूर्तियाँ पाँच-पाँच रुपये की बिकने लगी। सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद न किया। एक दिन बेटे ने झुँझलाकर कहा -‘‘आप तो दोष निकालने की बात बंद ही नही करते। मेरी कला अब तो आप से भी अच्छी है, मुझे मूर्ति के पाँच रुपये मिलते है; जबकि आप को दो ही रुपये।’’ बाप ने कहा -‘‘पुत्र ! जब मै तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया। तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रुपये से अधिक की मूर्तियाँ न बना सका। मैं चाहता हूँ वह भूल तुम न करो। 

अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो, ताकि बहुमुल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रंणी में पहुँच सको।’’ 

मनुष्य न चाहे तो भी -------

समुद्र से जल भरकर लौट रहे मरुतगणों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया। मरुत् विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुए और युद्ध ठानने को तैयार हो गए। 

विंध्याचल ने बडे़ सौम्य भाव से कहा-

‘‘महाभाग ! हम आपसे युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभिलाषा है कि आप यह जो जल लिए जा रहे हैं, वह आपको जिस उदारता के साथ दिया गया, आप भी इसे उसी उदारता के साथ प्यासी धरती को पिलाते चलें तो कितना अच्छा हो ? ’’मरुतगणों को अपने अपमान की पड़ी थी, सो वे शिखर से भिड़ गए, पर जितना युद्ध उन्होनें किया, उतना ही उनका बल क्षीण होता गया और धरती को अपने आप जल मिल गया। 

मनुष्य न चाहे तो भी ईश्वर अपना काम करा ही लेता है, पर श्रद्धापूर्वक करने का तो आनंद ही कुछ और है। 

कबीर

कबीर की ख्याति चारों ओर सिद्ध पुरुष की थी। दूर-दूर से जिज्ञासु आते, तब भी वे पहले की तरह कपड़ा बनाते और सत्संग चलाते। 

एक शिष्य ने पूछा-
‘‘आप जब साधारण थे तब कपड़ा बुनना ठीक था, पर अब आप एक सिद्ध पुरुष है और निर्वाह की भी कमी नहीं, फिर कपड़ा क्यों बुनते हैं ? 

’’ कबीर ने सरल भाव से कहा-
‘‘पहले मैं पेट पालने के लिए बुनना था, पर अब मैं जनसमाज में समाए भगवान का तन ढकने और अपना मनोयोग साधने के लिए बुनता हूँ। ’’कार्य वही हो, पर दृष्टिकोण भिन्न हो तो सकता है ! यह जानकर शिष्य का समाधान हो गया। 

ईश्वरचंद विद्यासागर

ईश्वरचंद विद्यासागर एक दिन अपने मित्र के साथ अनिवार्य कार्य से जा रहे थे। रास्तें में हैजे से पीड़ित एक दीन-हीन व्यक्ति मुर्छित अवस्था में पड़ा मिला। विद्यासागर उनकी सफाई करके पास के अस्पताल मे पहुँचाने का उपक्रम करने लगे। साथी मित्र ने कहा-‘‘हम लोग आवश्यक काम से जा रहे है, यह काम तो काई भी कर लेगा, हम लोग अपना कार्य क्यों छोडें ? 

विद्यासागर ने कहा-‘‘मानवता की सेवा से बढकर और कोई काम बड़ा हो ही नहीं सकता। निष्ठुर का कोई कार्य भला नहीं कहा जा सकता ।’’

महर्षि रमण

महर्षि रमण एक सिद्ध पुरुष थे । मौन ही उनकी भाषा थी । उनके सान्निध्य में सत्संग के माध्यम से सबको एक जैसे ही संदेश मिलते थे, मानों वे वाणी से प्रवचन देकर उठे हों। सत्संग के स्थान पर उस प्रदेश के निवासी कितने ही प्राणी नियत स्थान और नियत समय पर, उनका संदेश सुनने आया करते थे । बंदर, तोते, साँप, कौए सभी को ऐसा अभ्यास हो गया कि आगंतुको की भीड़ से बिना डरे-झिझके अपने नियत स्थान पर आ बेठते थै । मौन सत्संग समाप्त होते ही अपने घोंसलों व स्थानों को चल दिया करते थे । 


महापुरुष का सान्निध्य होता ही ऐसा विलक्षण है।

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