शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

वंदन करते हैं हॄदय से


वंदन करते हैं हॄदय से,
याचक हैं हम ज्नानोदय के,
वीणापाणी शारदा मां !
कब बरसाओगी विद्या मां?
कर दो बस कल्याण हे मां।
हे करुणामयी पद्मासनी
हे कल्याणी धवलवस्त्रणी!
हर लो अंधकार हे मां,
कब बरसाओगी विद्या मां ?
कर दो बस कल्याण हे मां।
जीवन सबका करो प्रकाशित,
वाणी भी हो जाए सुभाषित,
बहे प्रेम करुणा हॄदय में,
ना रहे कोई अज्ञान किसी में,
ऎसा दे दो वरदान हे मां,
कर दो बस कल्याण हे मां।
ज्ञानदीप से दीप जले,
विद्या धन का रुप रहे,
सौंदर्य ज्ञान का बढ़ जाए,
बुद्धी ना कुत्सित हो पाए,
ऎसा देदो वरदान हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां॥

--प्रेमलता

तिरंगा


ये तिरंगा ये तिरंगा ये हमारी शान है
विश्व भर में भारती की ये अमिट पहचान है।
ये तिरंगा हाथ में ले पग निरंतर ही बढ़े
ये तिरंगा हाथ में ले दुश्मनों से हम लड़े
ये तिरंगा दिल की धड़कन ये हमारी जान है

ये तिरंगा विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है
ये तिरंगा वीरता का गूँजता इक मंत्र है
ये तिरंगा वंदना है भारती का मान है

ये तिरंगा विश्व जन को सत्य का संदेश है
ये तिरंगा कह रहा है अमर भारत देश है
ये तिरंगा इस धरा पर शांति का संधान है

इसके रेषों में बुना बलिदानियों का नाम है
ये बनारस की सुबह है, ये अवध की शाम है
ये तिरंगा ही हमारे भाग्य का भगवान है

ये कभी मंदिर कभी ये गुरुओं का द्वारा लगे
चर्च का गुंबद कभी मस्जिद का मिनारा लगे
ये तिरंगा धर्म की हर राह का सम्मान है

ये तिरंगा बाईबल है भागवत का श्लोक है
ये तिरंगा आयत-ए-कुरआन का आलोक है
ये तिरंगा वेद की पावन ऋचा का ज्ञान है

ये तिरंगा स्वर्ग से सुंदर धरा कश्मीर है
ये तिरंगा झूमता कन्याकुमारी नीर है
ये तिरंगा माँ के होठों की मधुर मुस्कान है

ये तिरंगा देव नदियों का त्रिवेणी रूप है
ये तिरंगा सूर्य की पहली किरण की धूप है
ये तिरंगा भव्य हिमगिरि का अमर वरदान है

शीत की ठंडी हवा, ये ग्रीष्म का अंगार है
सावनी मौसम में मेघों का छलकता प्यार है
झंझावातों में लहरता ये गुणों की खान है

ये तिरंगा लता की इक कुहुकती आवाज़ है
ये रवि शंकर के हाथों में थिरकता साज़ है
टैगोर के जनगीत जन गण मन का ये गुणगान है

ये तिंरगा गांधी जी की शांति वाली खोज है
ये तिरंगा नेता जी के दिल से निकला ओज है
ये विवेकानंद जी का जगजयी अभियान है

रंग होली के हैं इसमें ईद जैसा प्यार है
चमक क्रिसमस की लिए यह दीप-सा त्यौहार है
ये तिरंगा कह रहा- ये संस्कृति महान है

ये तिरंगा अंदमानी काला पानी जेल है
ये तिरंगा शांति औ' क्रांति का अनुपम मेल है
वीर सावरकर का ये इक साधना संगान है

ये तिरंगा शहीदों का जलियाँवाला बाग़ है
ये तिरंगा क्रांति वाली पुण्य पावन आग है
क्रांतिकारी चंद्रशेखर का ये स्वाभिमान है

कृष्ण की ये नीति जैसा राम का वनवास है
आद्य शंकर के जतन-सा बुद्ध का सन्यास है
महावीर स्वरूप ध्वज ये अहिंसा का गान है

रंग केसरिया बताता वीरता ही कर्म है
श्वेत रंग यह कह रहा है, शांति ही धर्म है
हरे रंग के स्नेह से ये मिट्टी ही धनवान है

ऋषि दयानंद के ये सत्य का प्रकाश है
महाकवि तुलसी के पूज्य राम का विश्वास है
ये तिरंगा वीर अर्जुन और ये हनुमान है

- राजेश चेतन

वनवासी राम


मात-पिता की आज्ञा का तो केवल एक बहाना था।
मातृभूमि की रक्षा करने प्रभु को वन में जाना था॥
पिता आपके राजा दशरथ मॉं कौशल्या रानी थी
कैकई और मंथरा की भी अपनी अलग कहानी थी
भरत शत्रुध्न रहे बिलखते लखन ने दी कुरबानी थी
नई कथा लिखने की प्रभु ने अपने मन में ठानी थी
सिंहासन है गौण प्रभु ने हमको पाठ पढाना था
अवधपुरी थी सुनी सुनी टूटी जन जन की आशा
वन में हम भी साथ चलेगें ये थी सब की अभिलाषा
अवधपुरी के सब लोगो ने प्रभु से नाता जोड लिया
चुपके से प्रभु वन को निकले मोह प्रजा का छोड दिया
अपने अवतारी जीवन का उनको धर्म निभाना था
सिंहासन पर चरण पादुका नव इतिहास रचाया था
सन्यासी का वेश भरत ने महलों बीच बनाया था
अग्रज और अनुज का रिश्ता कितना पावन होता है
राम प्रेम में भरत देखिये रात रात भर रोता है
भाई भाई सम्बन्धों का हमको मर्म बताना था
किसने गंगा तट पर जाकर केवट का सम्मान किया
औ” निषाद को किसने अपनी मैत्री का वरदान दिया
गिद्धराज को प्रेम प्यार से किसने गले लगया था
भिलनी के बेरों को किसने भक्तिभाव से खाया था
वनवासी और दलित जनों पर अपना प्यार लुटाना था
नारी मर्यादा क्या होती प्रभु ने हमें बताया था
गौतम पत्नी को समाज में सम्मानित करवाया था
सुर्पंखा ने स्त्री जाती को अपमानित करवाया जब
नाक कान लक्ष्मण ने काटे उसको सबक सिखाया तब
नारी महिमा को भारत में प्रभु ने पुनः बढ़ाना था
अगर प्यार करना है तुमको राम सिया सा प्यार करो
वनवासी हो गई पिया संग सीता सा व्यवहार करो
जंगल जंगल राम पूछते सीता को किसने देखा
अश्रुधार नयनों से झरती विधि का ये कैसा लेखा
राम सिया का जीवन समझो प्यार भरा नजराना था
स्वर्णिम मृग ने पंचवटी में सीता जी को ललचाया
भ्रमित हुई सीता की बुद्धि लक्ष्मण को भी धमकाया
मर्यादा की रेखा का जब सीता ने अपमान किया
हरण किया रावण ने सिय का लंका को प्रस्थान किया
माया के भ्रम कभी ना पडना हमको ध्यान कराना था
बलशाली वानर जाति तो पर्वत पर ही रह जाती
बाली के अत्याचारों को शायद चुप ही सह जाती
प्रभु ने मित्र बनाये वानर जंगल पर्वत जोड दिये
जाति और भाषा के बन्धन पल भर में ही तोड दिये
जन-जन भारत का जुड जाये प्रभु ने मन मे ठाना था
मैत्री की महिमा का प्रभु ने हमको पाठ पढाया था
सुग्रीव-राम की मैत्री ने बाली को सबक सिखाया था
शरणागत विभीषण को भी प्रभु ने मित्र बनाया था
लंका का सिंहासन देकर मैत्री धर्म निभाया था
मित्र धर्म की पावनता का हमको ज्ञान कराना था
भक्त बिना भगवान की महिमा रहती सदा अधूरी है
हनुमान बिना ये कथा राम की हो सकती क्या पूरी है
सिया खोज कर लंक जलाई जिसने सागर पार किया
राम भक्ति में जिसने अपना सारा जीवन वार दिया
भक्ति मे शक्ति है कितनी दुनिया को दिखलाना था
अलग-अलग था उत्तर-दक्षिण बीच खडी थी दीवारें
जाति वर्ग के नाम पे हरदम चलती रहती तलवारें
अवधपुरी से जाकर प्रभु ने दक्षिण सेतुबन्ध किया
उत्तर-दक्षिण से जुड जाये प्रभु ने ये प्रबन्ध किया
सारा भारत एक रहेगा जग को ये बतलाना था
राक्षस राज हुआ धरती पर ऋषि-मुनि सब घबराते थे
दानव उनके शीश काटकर मन ही मन हर्षाते थे
हवन यज्ञ ना पूर्ण होते गुरूकुल बन्द हुये सारे
धनुष उठाकर श्री राम ने चुन चुन कर राक्षस मारे
देव शक्तियों को भारत में फिर सम्मान दिलाना था
गिलहरी, वानर, भालू और गीध भील को अपनाया
शक्ति बडी है संगठना में मंत्र सभी को समझाया
अगर सभी हम एक रहे तो देश बने गौरवशाली
दानव भय से थर्रायेगें रोज रहेगी दीवाली
संघ शक्ति के दिव्य मंत्र को जन-जन तक पहुंचाना था
मर्यादा पुरुषोतम प्रभु ने सागर को समझाया था
धर्म काज है सेतुबन्ध ये उसको ये बतलाया था
अहंकार में ऐंठा सागर सम्मुख भी ना आया था
क्रोध से प्रभु ने धनुष उठाया सागर फिर घबराया था
भय बिन होये प्रीत ना जगत में ये संदेश गुंजाना था
रावण के अत्याचारों से सारा जगत थर्राता था
ऋषि मुनियों का रक्त बहाकर पापी खुशी मनाता था
शिव शंकर के वरदानों का रावण ने उपहास किया
शीश काटकर प्रभु ने अरि का सबको नव विश्वास दिया
रावण के अत्याचारों से जग को मुक्त कराना था
लंका का सुख वैभव जिनको तनिक नही मन से भाया
अपनी प्यारी अवधपुरी का प्यार जिन्हें खींचे लाया
मातृभूमि और प्रजा जनों की जो आवाज समझते थे
प्रजा हेतु निज पत्नी के भी नही त्याग से डरते थे
मातृभूमि को स्वर्ग धाम से जिसने बढकर माना था
बाल्मिकी रत्नाकर होते रामायण ना कह पाते
तुलसी पत्नी भक्ति में ही जीवन यापन कर जाते
रामानन्द ना सागर होते राम कथा ना दिखलाते
कलियुग में त्रेता झांकी के दर्शन कभी ना हो पाते
कवियों की वाणी को प्रभु ने धरती पर गुंजाना था
जन-जन मन में ”चेतन” है जो राम कथा है कल्याणी
साधु सन्त सदियों से गाते राम कथा पावन वाणी
पुरखों ने उस राम राज्य का हमको पाठ पढाया था
राम राज्य के आदर्शों को हम सबने अपनाया था
भरत भूमि के राजाओं को उनका धर्म बताना था

साबरमती के सन्त



दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
आँधी में भी जलती रही गाँधी तेरी मशाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
रघुपति राघव राजा राम

धरती पे लड़ी तूने अजब ढंग की लड़ाई
दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई
दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई
वाह रे फ़कीर खूब करामात दिखाई
चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
रघुपति राघव राजा राम

शतरंज बिछा कर यहाँ बैठा था ज़माना
लगता था मुश्किल है फ़िरंगी को हराना
टक्कर थी बड़े ज़ोर की दुश्मन भी था ताना
पर तू भी था बापू बड़ा उस्ताद पुराना
मारा वो कस के दांव के उलटी सभी की चाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
रघुपति राघव राजा राम

जब जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े
मज़दूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े
हिंदू और मुसलमान, सिख पठान चल पड़े
कदमों में तेरी कोटि कोटि प्राण चल पड़े
फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
रघुपति राघव राजा राम

मन में थी अहिंसा की लगन तन पे लंगोटी
लाखों में घूमता था लिये सत्य की सोंटी
वैसे तो देखने में थी हस्ती तेरी छोटी
लेकिन तुझे झुकती थी हिमालय की भी चोटी
दुनिया में भी बापू तू था इन्सान बेमिसाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
रघुपति राघव राजा राम

जग में जिया है कोई तो बापू तू ही जिया
तूने वतन की राह में सब कुछ लुटा दिया
माँगा न कोई तख्त न कोई ताज भी लिया
अमृत दिया तो ठीक मगर खुद ज़हर पिया
जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
रघुपति राघव राजा राम

गरिमामयी वेला

एक-एक क्षण का महत्त्व हैं, हम सक्रिय हो जायें।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

पहले स्वयं आत्मबल अर्जित करें साधनाओं से,
करना हैं संघर्ष धैर्य से हमको बाधाओं से,
गुरु के आदर्शों के हम हो अति उत्कृष्ट नमूना,
रहे न कोई कोना अपना, गुरु प्रभाव से सूना,

ब्रम्हवाक्य जैसे सूत्रों को जीवन में अपनायें।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

प्रामाणिक बन नगर-गाँव , घर-घर हमको जाना हैं,
जन-जन तक सन्देश युगपुरुष का फिर पहुँचाना हैं,
जनसाधारण या विशिष्ट जन हो, सब तक जायेंगे,
गुरु के तप का निज वाणी में हम प्रभाव पाएंगे,

तम के हर घेरे तक पहुँचें उनकी दिव्य प्रभाएँ।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

परिचित होंगे तो आकर्षण उनके प्रति जागेगा,
प्रश्न-तर्क होंगे, प्रबुद्धजन फिर प्रमाण माँगेगा,
जन-जन को समझाने की सरलीकृत पद्धति होगी,
किन्तु मनीषी जन के लिए पृथक ही प्रस्तुति होगी,

इसके लिए निरन्तर अपनी हम पात्रता बढा़एँ।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

समय बहुत थोड़ा हैं लेकिन काम बहुत भारी हैं,
ध्वंस हो रहा किंतु सृजन-अभियान सतत जारी हैं,
यदि संकल्पित होंगे हम, विश्वास न डिग पायेगा,
गुरु से साहस तथा शक्ति फिर हर परिजन पाएगा,

परिवर्तन की इस वेला में मिलकर कदम बढा़एँ।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

-शचीन्द्र भटनागर अखण्ड ज्योति अगस्त 2008 

"धन्य हैं वे"



धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।
धन्य हैं वे लेखनी, गुणगान गुरु का जो लिखें।।

प्राण में गुरुतत्त्व की, गुरुता मचलती ही रहे।
कर्म में सदगुरु की, गरिमा उछलती ही रहें।।
आचरण वे धन्य, गुरु आदर्श जो धारण करें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

ज्ञान के हैं सिन्धु सदगुरु, ज्ञान के हम बिन्दु हों।
चंद्र से हैं सौम्य सद्गुरु, शान्ति के हम इंदु हों।।
ज्ञान का आलोक बांटे , हम सुधा जैसा झरें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

छलछलाता भाव-संवेदन, भरे हैं सदगुरु।
दुखी जन पर, द्रवित करुणा-सा झरे हैं सदगुरु।।
भाव-मरहम लगा, रिसते घाव दुखियों के भरे।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

मनुजता पीड़ित हुई हैं, मनुज के व्यवहार से।
सतत उठती जा रही संवेदना, संसार से।।
मानवीय संवेदना का, स्वर्ग हम सर्जित करें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
अखण्ड ज्योति नवम्बर २००५

उम्मीदों के दीप जला

दूर अँधेरा-मन का कर दे,
आशाओं के-दीप-जला।
उल्लासों से जीवन भर दे,
जिज्ञासा के-दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के-दीप-जला।।

अंधयारे की घडी न स्थिर,
पल पल जाने वाली है।
कहाँ अँधेरा अमां रात का,
चहुँ देख उजियाली है।
छोड हताशा और निराशा,
विश्वासों के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

मन के जीते-जीत उसी का,
नाम भला है खुशहाली।
समृद्धि की शाम उसी का,
नाम भला है दीवाली।
समृद्धि -पैगाम-समझ के-
आभासों के दीप जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

विश्वासों की ऊर्जा मन में,
हृदय दीप प्रज्वलित कर।
मुस्कानों को मीत बना ले,
हुलसित हृदय प्रफुल्लित कर।
उजालों के धनी-प्रणेता,
आभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

घर-आँगन मुंडेर द्वार पे,
हो आलोक-उजालों का।
मन के सूने गलियारों में,
भर दे रंग-उजालों का।
आत्मा ज्ञान-प्रज्ञा के मन में
प्रभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी
उम्मीदों के दीप-जला।।

खुद दीपक बन-जला नहीं-
उसको जीवन मिला नहीं।
बिना जले जो करे उजाला,
ऐसा दीपक-जला नहीं।
हृदयाकाश-आलोकित हो,
ताराओं से दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

--रामगोपाल राही

युगानुरुप परिवार


विश्व भर में हैं हमारा पारिवारिक संगठन,
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

हो गया अब तों मिशन का व्योम-सा विस्तार हैं,
विश्व के हर छोर को छूता विषद परिवार हैं,
यत्न हो अपना कि घर में भी जटिल शैली न हो,
दृष्टि सबकी स्वच्छ हो, दिग्भ्रांत मटमैली न हो,

धैर्यपूर्वक हम करें हर प्रश्न -शंका का शमन।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

विश्व-मन में आस्था फिर आज अंकुराने लगी ,
अब विधेयात्मक पुन: होने लगी हैं जिंदगी,
उस सुखद वातावरण की सृष्टि घर में भी करें,
भावना संवेदना-सहकार की, सबमें भरें ,

हो घरों में भी उसी निर्दिष्ट पथ का अनुसरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

विश्व के परिवार का लघु रुप घर परिवार हो,
हो सहज सामीप्य सब में, आत्मवत् व्यवहार हो,
हो नहीं संकीर्णता, सबकी सुविस्तृत सोच हो,
दोष-स्वीकृति में किसी को भी नहीं संकोच हो,

हो सरल, विश्वास -आधारित परस्पर आचरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

हर सुखद परिवार हो ऐसा, कि ज्यों उद्यान हो,
वृक्षवत् सुंदर सुगढ़ व्यिक्तत्व का निर्माण हो,
हर विटप को संस्कृति से यूँ सतत पोषण मिले,
वह न झंझावात के आघात से तिल भर हिले,

हो न पाए फिर वहां कोई विषेला संक्रमण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

उस विषद परिवार का प्रत्येक घर आदर्श हो,
कुप्रथाओं से सभी का संगठित संघर्ष हो,
शान्ति हो, संतोष हो, मन हो न कोई क्लेश में,
हो सहज शालीनता व्यवहार, वाणी, वेश में,

आधुनिकता हो वहां , पर हो न कृत्रिम आवरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

अखण्ड ज्योति दिसम्बर २००७

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