बुधवार, 26 जनवरी 2011

दधीचि

पौराणिक कथाओं के अनुसार हजारो वर्ष पूर्व एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं की हार हुई और वृत्रासुर ने देवलोक पर अधिकार कर लिया। असुरगण को वरदान था की धातु व लकड़ी का बना कोई भी अस्त्र उसका वध नही कर सकता। ऐसे मे असुरों की पराजय असंभव ही जान पड़ती थी। युग-युगों से सत्य व धर्म की रक्षा करने हेतु, अवतारी शक्तियाँ मनुष्य शरीर मे जन्म लेती रहीं हैं और उसी संकल्प को पूरा करने के हेतु एक दिव्य शक्ति ने ऋषि अथर्वण व चित्ति के यहाँ जन्म लिया और उनका नाम दधीचि रखा गया। सूर्य की ऊर्जा को कौन बांध सकता है। जैसे-जैसे दधीचि बडे़ होते गये, उनकी तपस्या की कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगी। ऐसे मे, आशीर्वाद एवं दिशादर्शन के उद्देश्य से देवराज इंद्र दधीचि की शरण मे पहुँचे। उसके आगे की कथा मानवता के इतिहास में, त्याग और बलिदान का श्रेष्ठतम उदाहरण है देवत्व की रक्षा के लिये, महर्षि दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों का दान कर दिया। जिनके जोड़ से बना अस्त्र वृत्रासुर की मृत्यु का कारण बना। 
आज इस अंधेरे में, जब आस्था और विश्वास के दीये हवा के झोंको से डगमगा जाते हो, महर्षि दधीचि के बलिदान की गाथा, सभी के लिये अटूट ज्योति की किरण के समान है।

प्रसन्न रहना

प्रसन्न रहना सब प्रकार के रोगों की दवा हैं और प्रसन्न रहने के लिये आवश्यक है अपना जीवन निष्कलुष बनाया जाये। निष्कलुक, निष्पाप, निर्दोष और पवित्र जीवन व्यतित करने वाला व्यक्ति ही सभी परिस्थियों मे प्रसन्न रह सकता है। और यह तो सिद्व हो ही चुका है कि मनोविकारों से बचकर प्रसन्नचित्त मनःस्थिति ही सुदृढ स्वास्थ्य का आधार है।

श्वास

श्वास की डोर से जीवन माला गुँथी है। जिंदगी का हर फूल इससे जुडा हैं, और इसी मे पिरोया है। श्वासों की लय और लहरें इन्हें मुस्कराहटें देती है। इनमें व्यतिरेक, व्वयधान, बाधायें-विरोध, और गतिरोध होने लगे तो सब कुछ अनायास ही मुरझाने और मरने लगता है। शरीर हो या मन, दोनों ही श्वास की लय से लयबद्व होते है। इसकी लहरे ही इन्हें सींचती है, जीवन देती है, यहाँ तक की सर्वथा मुक्त एवं सर्वव्यापी आत्मा का प्रकाश भी श्वासों की डोर के सहारे जीवन मे उतरता है।

श्वासों की लय बदलते ही जीवन का रंग रूप अनायास ही बदलने लगता है। क्रोध, घृणा, करूणा, वैर, राग-द्वेष, ईष्र्या-अनुराग प्रकारांतर से श्वास की लय की भिन्न-भिन्न अवस्थायें ही है, यह बात कहने सुनने की नही है, अनुभव करने की है। यदि महिने भर की सभी भावदशाओं एवं अवस्थाओं का चार्ट बनाया जाये तो जरूर पता चल जायेगा की श्वास की कौनसी लय हमें शान्ति एवं विश्रान्ति देती है। किस लय मे मौन और शान्त, सुव्यवस्थित होने का अनुभव होता है। किस लय के साथ अनायास ही जीवन मे आनन्द घुलने लगता है ? ध्यान और समाधि भी श्वासों की लय की परिवर्तनशीलता ही है।

श्वास की गति व लय को जागरूक हो परिवर्तित करने की कला ही तो प्राणायाम है। यह मानव द्वारा की गई अब तक की सभी खोजो मे महानतम है, यहाँ तक की चांद और मंगल ग्रह पर मनुष्य द्वारा पहुँच जाने से भी महान्, क्योकि शरीर से मनुष्य कही भी जा पहुँचे, वह जस का तस रहता है, परन्तु श्वास की लय के परिवर्तन से तो उसका जीवन ही बदल जाता है। हालांकि यह लय भी परिवर्तित होना चाहियें आंतरिक होशपूर्वक, जो प्राणायाम की किसी बंधी-बधाई विधी द्वारा संभव नही है। यदि विधि खोजनी ही है तो प्रत्येक श्वास के साथ होशपूर्वक रहना होगा। ऐसा हो तो श्वासों की लय के साथ जीवन की लय भी बदल जाती है।

‘संयम’

सम्राट पुष्यमित्र के अश्वमेध के सफलतापूर्वक संपन्न होने पर अतिथियों की विदाई के समय एक नृत्योत्सव रखा गया। यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि भी उस उत्सव में शामिल हुए। महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखरी। एक दिन जब महर्षि योगदर्शन पढ़ा रहे थे, उसने पूछ ही लिया-‘‘गुरूवर ! क्या नृत्य गीत के रसंरग चित्तवृत्ति के निरोध में सहायक होते हैं ?’’ महर्षि समझ गए। उन्हों कहा-‘‘सौम्य ! आत्मा रसमय हैं। वह रस विकृत न हो और शुद्ध बना रहे, इसी सावधानी का नाम ‘संयम’ हैं। विकार की आशंका से रस का परित्याग नहीं किया जाता। यह तो पलायन हैं रसरहित जीवन बनाकर किया गया संयम का प्रयास ऐसा ही हैं, जैसे जल को तरलता और अग्नि को ऊष्मा से वंचित कर देना। भद्र ! तुम्हारी आशंका का समाधान हुआ ?’’ सिर झुकाकर चैत्र ने कहा-‘‘प्रभु ! समाधान हुआ। अज्ञान के लिए क्षमा प्रार्थी भी हूँ।’’

माँगने से नहीं मिलेगा

मिट्टी का एक कण, पानी की एक बूँद, हवा की एक लहर, अग्नि की एक चिनगारी और आकाश का एक कतरा-‘‘पाँचो पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर भगवान सूर्य से प्रार्थना करने लगे-‘‘हे सविता देव ! हम भी आपके समान बनना चाहते हैं। हमें भी अपनी ही तरह प्रकाशवान-ऐश्वर्यवान बना दो।’’ सूर्य की एक किरण चमककर अपने आराध्य का संदेश लेकर आई- ‘‘भाइयों-बहनों !भास्कर के समान तेजस्वी बनना चाहते हो तो उठो। किसी से कुछ माँगो मत। अपना जो कुछ हैं, वह प्राणिमात्र की सेवा में आज से ही उत्सर्ग करना आरंभ कर दो। याद रखो ! गलने में ही उपलब्धि का मूलमंत्र हैं। जितना तुम औरों के लिए दोगे, उतना ही तुम्हें मिलेगा। माँगने से नहीं मिलेगा।’’

ऐसे होता हैं कायाकल्प

मगध देश के राजा चित्रांगद वनविहार को निकले। एक सुन्दर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटीर दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुए कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हैं यह। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गई, पर सब लौटा दी गई। राजा स्वयं गए और पूछा कि आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नही की ? महात्मा हँसकर बोले- ‘‘मेरी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन हैं।’’ राजा ने देखा कुटीर में एक तूंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र भर था, यहाँ तक कि धन रखने के लिए और कोई आलमारी आदि भी नहीं थीं। राजा ने फिर कहा-‘‘मुझे तो कहीं कुछ दिखाई नहीं देता।’’ महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर उसके कान में बोला-‘‘मैं रसायनी विद्या जानता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ।’’ अब राजा की नींद उड़ गई। वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और महात्मा के पास सुबह ही पहुँचकर कहा-‘‘महाराज ! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि में राज्य का कल्याण कर सकूँ।’’ महात्मा ने कहा-‘‘इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर रोज मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनना। एक वर्ष बाद तुम्हें सिखा दूँगा।’’ राजा नित्य आने लगा। सत्संग एवं विचारगंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच बदल चुकी थी। महात्मा ने स्नेह से पूछा-‘‘विद्या सीखोगे ?’’ राजा बोले-‘‘प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूँगा।’’ ऐसे होता हैं कायाकल्प।

भारतीयता


भारतीयता में भारतमाता की लाड़ली संतान होने के भाव भरे है। इसमे भारत की मिट्टी की सोंधी सुगन्ध से अपनत्व का एहसास हैं। यही वह भावना हैं, जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम सभी भारतवासी भाई-बहनों को स्नेह-संबंधों के धागों में पिरोती हे। यह शब्द जब हृदय में अंतर्दीप की तरह प्रज्वलित-प्रकाशित होता हैं तो पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आसाम, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड के शूरवीर साहसी सैनिक सीमाओं के प्रहरी बनकर दुश्मनों का दिल दहलाते हैं।
भारतभूमि के कण-कण में भारतीयता की ऊष्मा एवं ऊर्जा हैं, जो केरल के मेजर उन्नीकृष्णन को मुंबई हमले में आतंकवादियों को परास्त करते हुए शहीद होने के लिए प्रेरित करती है। यही पंजाब के गगनदीप सिंह वेदी को दक्षिण भारत में आए सुनामी के खौफनाक लहरों में कडलूरवासियों का खेवैया बनने का साहस देती हैं। कुछ कुटिल कुबुद्धि वाले कुचक्री लोग प्रांतीयता, क्षेत्रीयता, जातीयता, सांप्रदायिकता की बातें करके भारतीयता की भावनाओं में दरार डालना चाहते हैं।
लेकिन इस प्रयास में उनकी पराजय सुनिश्चित हैं। क्योंकि हम सबकी पहली और अंतिम पहचान भारतीयता हैं। फिर भले ही हममें से कोई किसी भी प्रान्त, क्षेत्र अथवा जाति का क्यों न हो, उसकी कोई भी भाषा और कोई भी धर्म क्यों न हो, परंतु ये सब कभी हमारे भरतवंशी, भारतवासी और भारतीय होने में रूकावट नहीं बन सकते। भारत देश के किसी भी कोने के किसी भी व्यक्ति की श्रेष्ठता हमारी श्रेष्ठता है। उस पर हमें गर्वित होने का पूरा हक हैं और इसी तरह भारतभूमि के किसी छोर के किसी भी इनसान की कमजोरी व कमी हमारी अपनी कमजोरी व कमी हैं। इसे हटाने-मिटाने के लिए हर तरह से प्रयत्नशील होना हमारा निजी कर्तव्य हैं। स्वाधीन भारत के निवासियों की एक ही पहचान हे। -भारतीयता और इस वर्ष के गणतन्त्र दिवस पर हममें से हर एक का एक ही संकल्प हैं- अपनी भारतभूमि एवं भारतीयता के लिए सर्वस्व निछावर करने के लिए सर्वदा तैयार रहना। 

झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

ऐ मेरे वतन के लोगों

ऐ मेरे वतन के लोगों, तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का, लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर, वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये

ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

जब घायल हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लड़े वो, फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा, सो गये अमर बलिदानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो आपने, थी धन्य वो उनकी जवानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पर मरनेवाला, हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर, वो खून था हिंदुस्तानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

थी खून से लथ-पथ काया, फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा, फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त-समय आया तो, कह गये के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों, अब हम तो सफ़र करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने, क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

तुम भूल न जाओ उनको, इस लिये कही ये कहानी
जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुरबानी ll

जय हिन्द, जय हिन्द की सेना
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द

-प्रदीप

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