रविवार, 11 अक्टूबर 2009

ज्ञानदान की पुण्य परम्परा पुनर्जीवित हो

वाङ्मय क्रमांक-६६ 'युग निर्माण योजना-दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम' (पृष्ठ २-५९ से २.६१) से संपादित 

इस संसार की सर्वोत्कृष्ट वस्तु 'ज्ञान' है । ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान बनता है, बन्धन से मुक्त होता है । इस ज्ञान के अभाव की जो 'अज्ञान' स्थिति है, उसमें डूबा रहने से ही मनुष्य पतन के, पाप के, अन्धकार के गर्त में डूबकर दुर्गति को प्राप्त होता है । इसलिए शास्त्रों ने और आप्त पुरुषों ने सदा एक स्वर से ज्ञानप्रप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने के लिए हर व्यक्ति को आदेश दिया है । गीताकार का कथन है कि-''इस संसार में ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ और कोई वस्तु नहीं है ।'' ज्ञान दान को बह्मदान कहते हैं । प्राचीनकाल में ब्राह्मण और साधु ज्ञानदान का परम पुनीत सत्कर्म निरन्तर किया करते थे । जब तक वे अपना कर्तव्य पालन ठीक प्रकार करते रहे, तब तक हम अपने गुण, कर्म और स्वभाव की श्रेष्ठता के कारण विश्व के नेता भी रहे और प्रचुर भौतिक सम्पदाओं के अधिपति भी । बुद्धिमान को ही बलवान कहा जाता है । बुद्धिहीन का बल तो एक क्षणभंगुर दिखावा मात्र है । 

जैसे लोहे को किसी अन्य आकृति में ढालना हो तो उसे गरम करके नरम बनाना पड़ता है, तब वह पिछली आकृति को छोड़कर किसी अन्य आकृति में ढलता है, वैसे ही मनुष्य का अन्तःकरण ज्ञान और विवेक की आग में ही नरम बनता है और तभी वह अपने पूर्व पक्ष को छोड़कर किसी अच्छे मार्ग पर चलने को तैयार होता है । पाप और बुराई को तो लोग दूसरों की देखा-देखी एवं उनसे प्राप्त होने वाले तात्कालिक लाभों से प्रभावित होकर ही अपना लेते हैं, पर कुकर्म का लोभ त्याग कर, सत्कर्म की ओर अग्रसर होना, हीन स्थिति में ऊँचे उठकर उच्च स्थिति के लिए प्रयत्नशील होना, बिना तीव्र भावना एवं बिना उत्कृष्ट प्रेरणा के संभव नही हो सकता और यह कार्य ज्ञान की अग्नि द्वारा ही संभव हो सकता है । मशीनें कोयला, भाप, तेल गैस, बिजली, अणु आदि आग्नेय शक्ति द्वारा गतिशील होती हैं । मनुष्य रूपी मशीन को यदि उत्कर्ष के मार्ग पर चलाना हो तो उसे ज्ञान की-विवेक की शक्ति अनिवार्यतः चाहिए । इसके बिना हृदय की आँखें नहीं खुलतीं और न दूरवर्ती भलाई, बुराई सूझ पड़ती है । केवल ज्ञान में ही वह शक्ति सन्निहित है, जो व्यक्ति के अंतःस्थल को पलटे और उसे अनुपयुक्त मार्ग से हटाकर उपयुक्त मार्ग पर प्रवृत्त करे । ज्ञान-दान की पुनीत प्रक्रिया को हम लोग इस संसार का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ समझकर उसे अत्यधिक महत्त्व दें और इस बात का प्रयत्न करें कि विचार एवं विवेकशीलता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले । हर आदमी ज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता को समझे । 

हम ज्ञान का प्रकाश फैलाने का व्रत लें । धर्म-सेवा का अनादि काल से लेकर अद्यावधि यह एक ही सर्वोपरि माध्यम रहा है । सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो भी तो नहीं सकता । इसे गरीब, अमीर, विद्वान, अविद्वान सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते हैं । सबल भावना वाला व्यक्ति अपने समीपवर्ती क्षेत्र में अपनी भावनाएँ-मान्यताएँ अवश्य फैला सकता है । 

यह ठीक है कि हर एक के पास निज के उपार्जित उत्कृष्ट विचार नहीं हो सकते और उसका निज का व्यक्तित्व भी इतना प्रभावशाली नहीं हो सकता कि उसकी दी हुई शिक्षा को लोग शिरोधार्य कर लें, पर इतना तो हो ही सकता है कि संदेशवाहक के रूप में उत्कृष्ट विचारों को अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों तक पहुँचाया जा सके । भोजन बनाना कठिन हो सकता है, पर उसका उपयोग करने में-दूसरों को समय बता देने में क्या असुविधा पड़ेगी? ज्ञानप्रसार के व्रतधारी युग निर्माण के लिए प्रस्तुत की जाने वाली प्रचण्ड एवं प्रखर विचारधारा को जन-साधारण तक पहुँचाने में एक संदेशवाहक का कार्य तो आसानी से कर सकते हैं । थोड़ी-सी अभिरुचि एवं प्रवृत्ति इस ओर मुड़नी चाहिए । कुछ दिनों इसे अपने स्वभाव में सम्मिलित करने की तो कठिनाई रहेगी पर यह सब जैसे ही अभ्यास बना, वैसे ही एक धर्म सेवा की, ज्ञानयज्ञ की एक महान प्रक्रिया चल पड़ेगी और साधारण व्यक्ति भी युग निर्माण के लिए एक उपयोगी परमार्थ करने का श्रेय लाभ लेने लगेगा । 

एक घंटा रोज का समय हम इस कार्य के लिए नित्य लगाया करें कि युग निर्माणी विचारधारा को सुनने-समझने की अभिरुचि साधारण लोगों में उत्पन्न की जा सके । पुस्तकें बाँट देने से या पुस्तकालय खोल देने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । जब तक लोगों की अभिरुचि ही न जागेगी, तब तक मुफ्त में मिली हुई पुस्तक को भी लोग न पढ़ेंगे और पुस्तकालय खुल गये, तो भी उसमें पढ़ने न आवेंगे । कार्य तो जन-सम्पर्क से ही होगा । 

शिक्षितों को यह साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए । किन्तु अशिक्षित को, स्त्री-बच्चों को सुनाने के लिए भी इन पुस्तकों में बहुत कुछ । बाहर के लोग सुनने न आयें, न सही, हम अपने घर के स्त्री-बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें अखण्ड ज्योति में प्रस्तुत छोटी-छोटी कथा-कहानियाँ एवं उनके समझने लायक आवश्यक बातें अपनी भाषा में सुनाने-समझाने के लिए घरेलू सत्संग तो चला ही सकते हैं । लोगों से घर-घर मिलने जाने और व्यक्तिगत चर्चाएँ करने से भी सत्संग का उद्देश्य पूरा हो सकता है । अशिक्षितों को इकट्ठा करने पर उनसे पृथक-पृथक मिलकर अपनी विचारधारा से परिचित कराया जा सकता है । स्वाध्याय और सत्संग ज्ञानयज्ञ के दो पहलू हैं, हमें इन्हें आरंभ कर देना चाहिए, ताकि लोगों की सोई हुई जिज्ञासा एवं अभिरुचि का जागरण हो सके । यदि उस कुम्भकरणी निद्रा से मानवी चेतना को जागाया जा सका तो वह जागरण अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न करने वाला होगा, यह निश्चित है 

युग निर्माण योजना

स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है । स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो । चूँकि हम आत्मा ही हैं, शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है, इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचे, किन्तु स्वामी दुःख पावे तो ऐसा कार्यक्रम मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा । इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान प्रधान रूप से रखा जाता है । आत्म का उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार सुखी एवं सन्तुष्ट रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप उपस्थित होती रहती हैं । इसमें केवल अनावश्यक विलासिता पर ही अंकुश लगता है । फिर भी यदि कभी ऐसा अवसर आये कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा को लाभ देना पड़े, तो उसमें संकोच न करना ही बुद्धिमानी है, यही परमार्थ है । परमार्थ का अर्थ है परम स्वार्थ । 

आत्म-कल्याण और युग-निर्माण का जो कार्यक्रम लेकर हम चले हैं, वह सच्चे अर्थों में परमार्थ की साधना है, क्योंकि उससे अपना तो लौकिक और पारलौकिक हित साधन होता ही है, साथ ही आसपास का वातावरण भी सुधारता है, दूसरों को भी लाभ मिलता है । जिस सुधार कार्य को हम आरम्भ करेंगे वह सबसे पहले हमारे निकटवर्ती लोगों को प्रभावित करेगा, क्योंकि यह प्रचार और प्रसार कहीं दूर देश में नहीं, वरन् अपने घर-कुटुम्ब और पड़ौस से ही आरम्भ करना है । उनके विचार उत्कृष्ट बनाने से, उनमें श्रेष्ठता और देवत्व की मात्रा बढ़ाने से निश्चय ही हम पर उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ेगा । वे असहयोगी एवं आक्रमणकारी न रहकर हमारे लिए प्रेम, सहयोग एवं सज्जनता से बरतने वाले बनेंगे । 

परमार्थ से लाभ ही लाभ 
युग-निर्माण कार्यक्रम सच्चे अर्थों में अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण स्वार्थ-साधन है, क्योंकि उसके द्वारा हम अपने आसपास सज्जनों का निर्माण करते हैं, सज्जनों का स्नेह एवं सहयोग हमारे सुख में बढ़ोत्तरी ही करेगा । सेवा करने का, आत्मसन्तोष, यश, प्रतिष्ठा एवं परलोक के लिए पुण्य-संचय का विशेष लाभ इसके अतिरिक्त है । इस ओर बढ़ाये हुए कदम हमें युगनिर्माता, लोकसेवी, देशभक्त, समाज-सुधारक, धर्मात्मा, परोपकारी एवं महापुरुषों की श्रेणी में ले जाकर बिठा देते हैं । इतिहासकारों की कलम के नीचे हमारा नाम जमता है और जनता हमें अभिनंदनीय मानती है, यह लाभ इसके अतिरिक्त है । 

वस्तुतः यह अपनी और अपने बच्चों की स्वार्थ-साधना का श्रेष्ठ तरीका है । इन प्रयत्नों में कोई और न सुधरे, केवल हमारा परिवार ही सम्भ्रान्त बन जाये, तो उसकी सज्जनता से हमारा आज का समय भी आनंद से कटेगा और बुढ़ापा भी उनके बीच रहते हुए शान्ति से बीतेगा । कुसंस्कारी परिजन नरक में रहने वाले यमदूतों से अधिक दुःख देते हैं । इसका अनुभव उन्हें भलीभाँति होगा, जिनके स्त्री, पति, पुत्र, पुत्री, भाई, भतीजे, दामाद, बहनोई कर्कश, उद्दण्ड एवं कुमार्गगामी मिले हैं । उनकी गतिविधियों से जिसका जी दिन-रात जलता रहता है, वह बेचारा घायल से भी बुरा होता है । घायल अपने कष्ट को कह सकता है, दूसरों को अपना जख्म दिखा तो सकता है, कराह तो सकता है, पर उस बेचारे के लिए तो इस पर भी प्रतिबंध है । जी की जलन में भीतर ही भीतर सुलगते रहने की व्यथा कितनी कष्टकारक होती है, इसे कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है । 

समय से पहले चेतें 
इस व्यथा से छुटकारा दिलाने का कोई कारगर उपाय यदि मिल सके तो इस प्रकार का परिजन-पीड़ित, पड़ोसियों और स्वजन-सम्बन्धियों का सताया हुआ मनुष्य, उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग और खर्च करने को तैयार हो सकता है । हमें सोचना चाहिए कि भयंकर बीमारी में फँस जाने पर प्रचुर धन खचर् करने की अपेक्षा उस बीमारी को न होने देने या रोके रहने के लिए समय रहते थोड़ा कुछ खर्च कर लिया जाए तो क्या वह बुद्धिमानी न होगी? शत्रु का हमला होने पर उसे लड़कर परास्त करने का तरीका महँगा और समय रहते शत्रु को निरस्त कर देने का तरीका सस्ता है । हैजा या इन्फ्लुऐंजा फैलने के दिनों में क्या हम अपने घर में सब को सुरक्षा की सुई नहीं लगवा देते सुरक्षा की सुई के रूप में ही हमें अपने निकटवर्ती क्षेत्र में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का शिक्षण कार्य आरम्भ कर देना चाहिए । 

अपने बच्चों का भविष्य बनाने और उन्हें सुखी रखने के लिए यों हम बहुत कुछ सोचते और बहुत कुछ करते हैं । अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, ऊँची शिक्षा, विवाह-शादी में विपुल खर्च, चिकित्सा, मनोरंजन आदि की सुविधाएँ जुटाने में हर अभिभावक बहुत त्याग और बहुत खर्च करता है । इन बातों पर सोचता-विचारता भी बहुत रहता है । अपने प्यारे बच्चों और परिजनों के लिए ऐसा करना उचित भी है । पर इसी स्थान पर दाल में नमक डालना भूल जाने की तरह एक बहुत बड़ी भूल हम यह कर बैठते हैं कि उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए कुछ नहीं करते । शिक्षा तो देते-दिलाते रहते हैं, पर दीक्षा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता । 

सुसंस्कारी की गरिमा 
हजार योग्यताएँ और लाख समृद्धियाँ एक ओर और सुसंस्कारों को एक ओर रखकर तोला जाए, तो सुसंस्कारों का पलड़ा भारी बैठेगा । सुसंस्कारी व्यक्ति गरीब रहते हुए भी आनन्द एवं उल्लास का जीवन व्यतीत कर सकता है, पर कुसंस्कारी व्यक्ति कुबेर की सम्पदा और इन्द्र-से वैभव का स्वामी होते हुए भी संतप्त रहेगा और अपने सम्बन्धियों को संतप्त करेगा । इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति का कत्तर्व्य है कि अपने उत्तराधिकारियों को जमीन, घर, नकदी, शिक्षा आदि से विभूषित करने की बात ही न सोचें, वरन् उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए भी प्रयत्न करें । 

यह कार्य अध्यापकों पर नहीं छोड़ा जा सकता, यह तो हमारे स्वयं करने का है । युग निर्माण योजना के अन्तर्गत व्यक्ति निर्माण के लिए हम जो कुछ करते हैं, उससे इसी आवश्यकता की पूर्ति होती है । अपने परिजनों को दीक्षा देने का, उन्हें सुसंस्कार, सद्विचार, सद्भाव, उदार दृष्टिकोण, सच्चरित्रता, मानवता एवं दूरदर्शिता अपनाने के लिए प्रेरणा देने का जितना कारगर उपाय इस योजना में सन्निहित है, उतना अन्य प्रकार से संभव नहीं हो सकता । यदि हम इस ओर उपेक्षा करते हैं तो मानव जीवन को धन्य बनाने वाले एक श्रेष्ठ पुण्य-परमार्थ से ही वंचित नहीं होते, वरन् अपने निकटवर्ती लोगों को कुमागर्गामी बनने से रोकने में उपेक्षा करने के अपराधी भी बनते हैं ।

संकीणर्ता नहीं, दूरदशिर्ता चाहिए
हम स्वार्थ में ही न लगे रहें, परमार्थ की बात भी सोचें । परमार्थ किसी पर कोई अहसान या उपकार करना नहीं, वरन् अपने ही दूरवर्ती एवं चिरस्थायी स्वार्थ को बुद्धिमता के साथ सम्पन्न करना है । जो परमार्थ साधता है, वही सच्चा स्वार्थी है, क्योंकि उसे आज ही नहीं, कल भी सुख प्राप्त होता है । उसकी आज की ही अभिलाषा पूर्ण नहीं होती, वरन् चिरकाल तक अपने अभीष्ट की सिद्धि का लाभ उठाता रहता है । हम संकुचित स्वार्थ की सीमा से बाहर सिर उठाकर यदि दूर तक सोच सकें तो व्यक्ति निर्माण की, युग निर्माण की प्रस्तुत योजना रोटी कमाने के आवश्यक कार्यों की तरह ही उपयोगी एवं अपनाने योग्य प्रतीत होगी ।

उठो पार्थ ! गांडीव उठाओ

वाङ्मय 'युग निर्माण योजना-दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम' (पृष्ठ २.१४ से २.१५) से संपादित 

मनुष्य के अन्तःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रकृति कहते हैं । इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है । गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिसमें लड़ाया गया है, वह वस्तुतः आध्यात्मिक युद्ध ही है । आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल हैं । कौरवों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है, सेना भी उनकी बड़ी है । पाण्डव पाँच ही थे, उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही थे, फिर भी भगवान ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा-लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । तामसिक-आसुरी प्रकृति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रकृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा, इसलिए लड़ना जरूरी है । अर्जुन पहले तो झंझट में पड़ने से कतराये, पर भगवान ने जब युद्ध को अनिवार्य बताया तो उसे लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा । इस लड़ाई को इतिहासकार 'महाभारत' के नाम से पुकारते हैं । अध्यात्म की भाषा में इसे 'साधना समर' कहते हैं । 

देवासुर-संग्राम की अनेक कथाओं में उसी 'साधना समर' का अलंकारिक निरूपण है । असुर प्रबल होते हैं, देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं, वे भगवान के पास जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, भगवान उनकी सहायता करते हैं । अन्त में असुर सारे मारे जाते हैं, देवता विजयी होते हैं । देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है । हमारा अन्तःप्रदेश ही वह धर्म क्षेत्र है, जिसमें महाभारत होता रहता है । असुर मायावी है । तमोगुण का असुर हमें माया में फँसाये रहता है । इन्द्रिय सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फैलाता है और अपने मायापाश में जीव को बाँध लेता है । उस असुर के और भी कितने ही अस्त्र-शस्त्र हैं, जिनसे जीव को अपने वशवर्ती करके पद-दलित करने में वह सफल होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छः ऐसे ही सम्मोहन अस्त्र हैं, जिसमें मूर्छित होकर जीव बँध जाता है और वह मूर्च्छा ऐसी होती है कि उससे निकलने की इच्छा भी नहीं होती है, वरन् उसी स्थिति में पड़े रहने को जी चाहता है । 

आत्मा का कल्याण उस तम प्रवृत्ति में पड़े रहने से नहीं हो सकता, जिसमें माया-मोहित अगणित जीव पाशबद्ध स्थिति में पड़े रहते हैं । इन बन्धनों को काटे बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं । आत्मा की पुकार 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की है । वह अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना चाहती है । तम अन्धकार और सत ही प्रकाश है, उसको धारण करने का प्रयत्न ही 'साधना' है । साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया है । तम की दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा केवल इस एक ही उपाय से हो सकता है । सच्ची शांति और प्रगति का मार्ग भी यही है । 

अन्तरात्मा में निरन्तर चलने वाले देवासुर-संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख-साधन इकट्ठे करते रहना और सात्विकता का पक्ष आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है । जब दोनों में से कोई एक पक्ष प्रबल हो उठता है तो संग्रम में तेजी दिखाई देने लगती है । यदि असुरता प्रबल हुई तो दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होकर पतन का नारकीय परिपाक सामने आ जाता है; और यदि सुर पक्ष प्रबल हुआ तो सत्प्रवृत्तियों का उभार आता है और मनुष्य सत्पुरुष, महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनकर पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दु्रतगति से आगे बढ़ता है । 

एक बीच की स्थिति ही, रजोगुण ही अवसाद भूमिका कहलाती है । इसमें तम और सत् दोनों मिले रहते हैं । लड़ाई बन्द हो जाती है और काम चलाऊ समझौता-सा करके दैवी और आसुरी तत्व एक ही घर में रहने लगते हैं । भले और बुरे दोनों ही तरह के काम मनुष्य करता रहता है । पाप के प्रति घृणा न रहने से, आत्मिक प्रगति की ओर कोई विशेष उत्साह न रहने से दिन काटने की जैसी स्थिति बन जाती है, जैसी कि मन्द विष पीकर मूर्छित हुए अर्द्धमृत प्राणी की होती है । मानव जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्राप्त होने पर इस प्रकार का अवसाद चिन्ताजनक ही है । इस अवसाद की स्थिति का अन्त करना ही उचित है, देवासुर-संग्राम में अपने देवपक्ष को विजयी बनाना ही श्रेयस्कर है । तम को छोड़ें और सत् का प्रकाश ग्रहण करें, इसी में हमारा हित है, साधना में ही मनुष्य का सच्चा स्वार्थ निहित है । 

आत्म-निरीक्षण करें


वाङ्मय 'युग निर्माण योजना-दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम' (पृष्ठ १.१६ से १.१७) से संपादित 

रात्रि सदा नहीं रहती । अंधेरा सदैव कहाँ छाया रहता है? विपत्ति की घटाएँ निरंतर कब घुमड़ती हैं? ग्रहण देर तक कहाँ बना रहता है? अशुभ घड़ियाँ आती तो हैं, पर देर तक नहीं रहतीं । दुःख, अपमान, संकट, घाटा, दुर्भाग्य, विग्रह आदि के क्षण आते तो हैं, पर जल्दी ही चले भी जाते हैं । 

मनुष्य के ऊपर इन दिनों असुरता का आक्रमण हुआ है और सूर्य-चन्द्र पर पड़ने वाली राहु-केतु की छाया की तरह ग्रहण लग गया है । यह असमंजस की घड़ी अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकती । अंधकार के बाद प्रकाश आता ही है । अब प्रभात के सूर्योदय का प्रकाश उदय होने में देर नहीं । ऊषाकाल की आभा प्राची में लालिमा बनकर प्रकट हो रही है । 

कहना न होगा कि अगणित रूपों में प्रस्तुत विपत्तियों का एक ही कारण है-मानवीय कर्तव्य में निकृष्टता का समावेश और उसका निमित्त है अशुद्ध चिन्तन एवं विकृत दृष्टिकोण । सड़े तालाब में से लाख-करोड़ मच्छर पैदा होते हैं । एक-एक मच्छर को पकड़ना और मारना कठिन है । तालाब की सफाई करने से ही उस विपत्ति से छुटकारा मिलेगा । विपत्तियाँ और विकृतियाँ भौतिक अवश्य हैं पर उनका स्थायी समाधान दार्शनिक आधार पर ही किया जा सकता है । युग परिवर्तन का मूल उद्गम इसी पर केन्द्रित है । भगवान वह प्रक्रिया खड़ी करने जा रहे हैं, जिसमें मनुष्य को अशुद्ध चिन्तन के दुष्परिणामों का भान हो-वह अपनी भूल समझे और उसे सुधारने के लिए उलट पड़े । यह प्रक्रिया जिस क्रम से सम्पन्न होगी, उसी अनुपात से विकृतियों के समाधान अनायास ही अप्रत्याशित रूप से निकलते चले आयेंगे । 

दूसरा दूसरों को न तो खींच सकता है और न दबा सकता है । बाहरी दबाव क्षणिक होता है । बदलता तो मनुष्य अपने आप है, अन्यथा रोज उपदेश, प्रवचन सुनकर भी इस कान से उस कान निकाल दिये जाते हैं । दबाव पड़ने पर बाहर से कुछ दिखा दिया जाता है और भीतर कुछ बना रहता है । इन विडम्बनाओं से क्या बनता है । बनेगा तो अन्तःकरण के बदलेने से, और इसके लिए आत्मप्रेरणा की आवश्यकता है । 

इन दिनों यही होने जा रहा है । सबसे पहले जाग्रत् आत्माओं के भीतर आत्मपरिवर्तन की तिलमिलाहट पैदा होगी । वे गहराई से आत्मा-निरीक्षण करेंगे । अन्धी भेड़ों के गिरोह में से अपने को अलग निकालेंगे और स्वतन्त्र चिन्तन करेंगे । 'लोग ऐसा करते हैं तो हम भी ऐसा करेंगे' का परावलम्बन बहिष्कृत होगा । विशेषतया तब, जबकि जनमानस में घोर अविवेक और गहन अनाचार ने गहरी जड़ें जमा ली हों । ऐसे समय में दूसरों का प्रभाव ग्रहण करना, उनका अनुगमन-अनुकरण करना, उन्हीं की तरह अपने को पतन के गहरे गर्त में डाले रहना उचित नहीं । 

युग परिवर्तन का आरम्भ व्यक्ति परिवर्तन की उग्र प्रक्रिया के साथ आरम्भ होगा । इसके लिए भगवान ऐसा सूक्ष्म प्रेरणा प्रवाह उत्पन्न कर रहे हैं, जो हर जीवित और जाग्रत् आत्मा को व्याकुल, बेचैन कर दे । अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए हर घड़ी विवश कर और उसे घसीटकर उस स्थान पर खड़ा कर दे, जहाँ स्वतंत्र चिन्तन अनिवार्य हो जाता है । विवेक का प्रकाश जब अपनाया जाता है तब अँधेरे की आशंकाएँ और विभीषिकाएँ सभी तिरोहित हो जाती हैं । ईश्वरीय प्रकाश विवेक के रूप में अवतरित होता है और जहाँ भी वे दिव्य किरणें पड़ती हैं, वहाँ अंधानुकरण एवं पूर्वग्रहों का विनाश होता है । मनुष्य इतना साहस अनुभव करता है कि औचित्य के मार्ग पर अकेला ही चल पड़े । भले ही उसके तथाकथित शुभचिन्तक उसके लिए उसे रोकते, टोकते ही रह जाएँ । 

आत्मपरिवर्तन के साथ-साथ यही जाग्रत् आत्माएँ विश्व परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करेंगी । जाग्रत आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है । उनकी अन्तरात्मा उन्हें पग-पग बेचैन कर रही हैं, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जिएँगे, पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नरकीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे, ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे । लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे, उनके लिए स्वतः अनुकरणीय आदर्श बनकर खड़े होंगे । यह आन्तरिक समुद्र मन्थन इन दिनों हर जीवित और जाग्रत् आत्मा के अन्दर इतनी तेजी से चल रहा है कि वे सोच नहीं पा रहे कि आखिर यह हो क्या रहा है वे पुराने ही हैं पर भीतर कौन घुस पड़ा, जो उन्हें ऊँचा सोचने के लिए ही नहीं, ऊँचा करने के लिए भी विवश, बेचैन कर रहा है! निश्चित रूप से यह ईश्वरीय प्रेरणा का अवतरण है । 

नव जागरण का प्राथमिक श्रेय निश्चित क्रम से सुसंस्कारी जाग्रत् आत्माओं को मिलेगा । वे ही आगे आवेंगी, मशाल की तरह जलेंगी और सर्वत्र प्रकाश उत्पन्न करेंगी । अविवेक और अनौचित्य के बन्धनों से वे स्वयं मुक्त होंगी । और अपने आदर्शों से असंख्य लोगों को अनुगमन के लिए प्रभावित ही नहीं, बाध्य भी करेंगी । 

युग निर्माण परिवार ऐसी ही जाग्रत् और सुसंस्कारी आत्माओं का समूह है । संयोग ही कहना चाहिए कि उसे इन बिखरे हुए मणि-माणिक्यों को एक सूत्र में आबद्ध होकर एक बहुमूल्य माला के रूप में गुँथ जाने का अवसर मिल गया । अगले ही दिनों युग निर्माण परिवार का प्रत्येक घटक अपनी वह भूमिका प्रस्तुत करेगा, जिसका विस्तार युग परिवर्तन के रूप में असंदिग्ध रूप में दृष्टिगोचर हो सके ।

एक आदर्श ब्राह्मण हमारे गुरुदेव और उनकी अंतर्वेदना

परम पूज्य गुरुदेव अपने जीवन की विभूतियों को ब्राह्मणत्व की साधना का सुफल मानते हैं । उन्होंने अपने शिष्यों को तप और साधना के बल पर सच्चा ब्राह्मण बनने की प्रेरणा दी और इसी आधार पर 'मानव में देवत्व' और 'धरती पर स्वर्ग' के अवतरण का उद्घोष किया । जन्म शताब्दी वर्ष (२०११-१२) की तैयारियों में जुटे हम सबको वसंत पर्व की इस पुनीत वेला में उनकी इस अंतर्वेदना को अनुभव करते हुए ब्राह्मणत्व की साधना में तत्पर हो जाना चाहिए । प्रस्तुत हैं इस संदर्भ में प.पू. गुरुदेव द्वारा समय-समय पर कहे गये विचारों का संकलन । 

''इस आड़े वख्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है । यदि वह कहीं जीवित हो, तो आगे आये । जाति और देश में हम वर्ण का सम्बन्ध नहीं जोड़ते । ब्राह्मण हम उन्हें कहते हैं कि जिनके मन में आदर्शवादिता के लिए इतना दर्द मौजूद हो कि वह अपनी वासना-तृष्णा से बचाकर शक्तियों का एक अंश अध्यात्म की प्राणरक्षा के लिए लगा सकें। '' 

''ब्राह्मणत्व एक साधना है । मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान है । इस साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शूद्र ऐतरेय भी ब्राह्मण हो जाते हैं । साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल और धुंधकारी शूद्र हो गए । सही तो है, जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ है? ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे । स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेकों को सुपथ पर चलना सिखाए ।'' 

''हमारा जीवन-प्रयोग प्रत्यक्ष है । हमने सारे जीवन ब्राह्मण बनने की साधना की । इसके लिए पल-पल तपे, इंच-इंच बढ़े । जिंदगी में यज्ञोपवीत संस्कार का वह क्षण कभी नहीं भूला, जब महामना मदनमोहन मालवीय ने गायत्री महामंत्र सुनाने के साथ ही कहा था-गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है ।'' 

''ब्राह्मण की सही मायने में पूँजी तो विद्या और तप है, जो उसे गायत्री की साधना से मिलती है । भौतिक सुविधाओं के मामले में तो उसे सर्वथा अपरिग्रही होना चाहिए ।'' 

''खेद है आज अपरिग्रह को दरिद्रता समझ लिया गया, जबकि अपरिग्रह का मतलब है स्वयं पर विश्वास, समाज पर विश्वास एवं ईश्वर पर विश्वास और ब्राह्मण का जीवन इसका चरमादर्श है । जब मनुष्य का स्वयं पर, समाज पर और भगवान पर विश्वास उठ जाता है, तभी वह लालची होकर सुविधाएँ बटोरने लगता है ।'' 

''आज तो ब्राह्मणबीज ही इस धरती पर से समाप्त हो गया है । मेरे बेटो! तुम्हें फिर से ब्राह्मणत्व को जगाना और उसकी गरिमा का बखान कर स्वयं जीवन में उसे उतारकर जन-जन को उसे अपनाने को प्रेरित करना होगा । यदि ब्राह्मण जाग गया तो सतयुग सुनिश्चित रूप से आकर रहेगा ।'' 

''यह जो कलियुग दिखाई देता है, मानसिक गिरावट से आया है । मनुष्य की अधिक संग्रह करने की, संचय की वृत्ति ने ही वह स्थिति पैदा की है जिससे ब्राह्मणत्व समाप्त हो रहा है । प्रत्येक के अंदर का वह पशु जाग उठा है, जो उसे मानसिक विकृति की ओर ले जा रहा है । आवश्यकता से अधिक संग्रह मन में विक्षोभ, परिवार में कलह तथा समाज में विग्रह पैदा करता है । कलियुग मनोविकारों का युग है एवं ये मनोविकार तभी मिटेंगे जब ब्राह्मणत्व जागेगा ।'' 

''ब्राह्मण सूर्य की तरह तेजस्वी होता है, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी चलता रहता है । वह कहीं रुकता नहीं, कभी आवेश में नहीं आता तथा लोभ, मोह पर सतत नियंत्रण रखता है । ब्राह्मण शब्द ब्रह्मा से बना है तथा समाज का शीर्ष माना गया है । कभी यह शिखर पर था तो वैभव गौण व गुण प्रधान माने जाते थे । जलकुंभी की तरह छा जाने वाला यही ब्राह्मण सतयुग लाता था । आज की परिस्थितियाँ इसलिए बिगड़ीं कि ब्राह्मणत्व लुप्त हो गया । भिखारी बनकर, अपने पास संग्रह करने की वृत्ति मन में रखकर उसने अपने को पदच्युत कर दिया है । उसी वर्ण को पुनः जिंदा करना होगा एवं वे लोकसेवी समुदाय में से ही उभर कर आयेंगे, चाहे जन्म से वे किसी भी जाति के हों ।''

व्यक्तित्व परिष्कार का आधार हैं स्वाध्याय - सुविचार

उत्कृष्ट श्रेणी का जीवनयापन करने के लिए स्वाध्याय को ईश्वर उपासना की ही तरह प्रमुखता दी जानी चाहिए, ताकि उस प्रकार की प्रेरणा देते रहने वाले प्रौढ़ विचार हमें निरन्तर मिलते रहें । साधना में निष्ठा बनाए रहना सद्ज्ञान की ही निरन्तर प्रेरणा से संभव होता है अन्यथा उस नीरस कार्य से मन ऊबने लगता है, आलस आता है और उत्साहपूर्वक आरम्भ की हुई साधना पहले अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित होती है और अंत में वह छूट ही जाती है । 

चिरसंचित संस्कार धीरे-धीरे ही दूर होते हैं । छोड़ देने की इच्छा रहते हुए भी अभ्यास में आई बातें बार-बार प्रबल हो उठती हैं और प्रयत्नों को असफल करने की रचना रचती हैं । यह कठिनाई प्रत्येक आत्मसुधार करने वाले के सामने आती है । सफल वही होता है जो असफलताओं से खिन्न होकर प्रयत्न नहीं छोड़ता । 

यदि विचार बदल जाएँगें तो कार्यों का बदलना सुनिश्चित है । कार्य बदलने पर भी विचारों का न बदलना सम्भव है, पर विचार बदल जाने पर उनसे विपरीत कार्य देर तक नहीं होते रह सकते । विचार बीज हैं, कार्य अंकुर; विचार पिता हैं, कार्य पुत्र । इसलिए जीवन परिवर्तन का कार्य विचार परिवर्तन से आरम्भ होता है । जीवन-निर्माण का, आत्म-निर्माण का अर्थ है-विचार-निर्माण । 

लोहे से लोहा काटा जाता है, काँटे से काँटा निकलता है, विष से विष मरता है, सशस्त्र सेना का मुकाबला करने के लिए वैसी ही सेना चाहिए । कुविचारों का शमन सद्विचारों से ही संभव है । इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियाँ एवं बुराइयाँ दिखाई दें, उनके विरोधी विचारों को पर्याप्त मात्रा में जुटा कर रखा जाय और उन्हें बार-बार मस्तिष्क में स्थान मिलते रहने का प्रबंध किया जाए । जब आलस्य घेर रहा हो तब परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता को प्रोत्साहन देने वाले विचारों पर देर तक मनन-चिंतन करना चाहिए, आलस्य हट जाएगा । 

जब कामुकता जग रही हो तो ब्रह्मचर्य, मातृ-भावना एवं चारित्रिक पवित्रता की विचारधारा को मन में स्थान देना चाहिए, वासना शांत हो जाएगी । क्रोध का आवेश चढ़ रहा हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति उदारता की दृष्टि से विचार करना शुरू कर देना चाहिए, गुस्सा ठंडा हो जाएगा । शोक, निराशा और चिंता घेरने लगे तब साहस, आशा, पुरुषार्थ और पुनर्निर्माण की बात सोचनी चाहिए, मन संतुलित होने लगेगा । यदि निकृष्ट विचार मनुष्य को गिरा सकते हैं तो उत्कृष्ट विचार उसे ऊँचा भी उठा सकते हैं । 

अपनी दुर्बलताएँ छोड़ने के लिए यह आवश्यक है कि उनकी हानियों पर अधिक से अधिक विचार किया जाए । साथ ही वह बुराई छोड़ देने पर जो लाभ मिलेगा । उसका आशापूर्णक चित्र भी मन में बनाना चाहिए । नशा छोड़ना हो तो उसके द्वारा जो शारीरिक, आर्थिक और मानसिक हानियाँ होती हैं, उन पर विचार करना और उसे छोड़ने पर स्वास्थ्य-सुधार, पैसे की बचत तथा मनोबल बढ़ने का सुनहरा चित्र मनःक्षेत्र में स्थापित करना आवश्यक है । कुछ दिन लगातार यह उपक्रम चलने लगे तो नशे के प्रति घृणा हो जाएगी और वह अवश्य छूट जाएगा, किन्तु यदि इस प्रक्रिया को पूर्ण किए बिना ही किसी जोश-आवेश में नशा छोड़ देने की प्रक्रिया कर ली है तो यह आशंका बनी ही रहेगी कि वह उत्साह ठंडा होने पर पुरानी आदत फिर से सबल हो उठे और नशा करना फिर शुरू हो जाए । इसलिए इस सुनिश्चित तथ्य को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि जीवन को सुधार की दिशा में मोड़ने के लिए उत्कृष्ट कोटि की विचारधारा को मनोभूमि में नियमित रूप से स्थान देते रहना नितान्त आवश्यक है । इस अनिवार्य आवश्यकता की उपेक्षा करके कभी कोई व्यक्ति न अब तक आत्म-निर्माण कर सका है और न आगे कर सकेगा । 

यदि हम अपने व्यक्तित्व को श्रेष्ठता के ढाँचे में ढालने के लिए सचमुच ही उत्सुक एवं उद्यत हों तो अपने दैनिक कार्यक्रम में उत्कृष्ट विचारधाराओं को मस्तिष्क में ठूँसने का एक नियमित विभाग हमें बना ही लेना चाहिए । मन लगे चाहे न लगे, फुरसत मिले चाहे न मिले, इसके लिए बलपूर्वक, हठपूर्वक समय निकलना ही चाहिए । नित्य कितने ही काम अनिच्छापूर्वक भी करने पड़ते हैं और समय न रहने पर भी आकस्मिक स्थिति के अनुरूप समय निकालना पड़ता है । विचार-निर्माण को भी ऐसी ही एक अनिवार्य आवश्यकता मानना चाहिए और उसके लिए हठपूर्वक कटिबद्ध हो जाना चाहिए । थोड़े ही समय में यही क्रम बहुत ही रुचिकर लगने लगेगा, संतोष और आनन्ददायक प्रतीत होगा ।

जीवन पुष्प खिलाएँ


हमारा जीवन रूपी पुष्प हमेशा खिला हुआ रहे, कहीं मुरझा न जाये, इसके लिए निराशा एवं निरुत्साह को पास नहीं फटकने देना चाहिए । सौन्दर्य एवं उल्लास को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए हमें आशा का दीपक अपने उर में जलाकर रखना चाहिए और उसमें श्रेष्ठ, उच्च एवं दिव्य विचारों का घृत डालते रहना चाहिए । (अखण्ड ज्योति सितम्बर-१९७५) 

हम उपासक हैं, लेकिन किस भगवान के ?

इस संसार में समस्त दुःख पापों के ही परिणाम हैं । मनुष्य अपने किए पापों का दण्ड भुगतता है या फिर दूसरों के पापों की लपेट में आ जाता है । दोनों प्रकार के दुःखों का कारण पाप ही होते हैं । यदि पापों को मिटाया जा सके, तो समस्त दुःख दूर हो सकते हैं । यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दुःखों में निश्चय ही कमी हो सकती है । पाप व्यक्ति के कुविचारों और कुकर्मों का परिणाम होते हैं । कुविचारों और कुकर्मों पर नियंत्रण धर्म-बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है और यह धर्म-बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है ।

ईश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है । इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है । आत्म-नियंत्रण के लिए ईश्वर-विश्वास की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है । व्यक्तिगत सदाचार और सामूहिक कर्तव्य परायणता के पालन के लिए ईश्वरीय विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता । इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्तव्यों में ईश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है ।

खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है । भौतिकवादी विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि ईश्वर न तो आँखों से दिखाई पड़ता है और न प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है, इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं । अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं । न तो वे कर्म-आस्था पर विश्वास करते हैं और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते हैं ।

दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं । वे अपने को आस्तिक कहते और किसी ईश्वर को मानते भी हैं, पर उनका यह कल्पित ईश्वर वास्तविक ईश्वर से सर्वथा भिन्न होता है । वे समझते हैं कि ईश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है । इतने से ही वह प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता । लोग सोचते हैं कि पूजा करने वालों के समस्त पाप किसी सामान्य धार्मिक कर्मकाण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं । यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु-ब्राह्मण परमात्मा के अधिक निकट हैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए, तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहुँच जाती है । फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दंड से बचने की सुविधा हो सकती है । यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखाई तो ईश्वर-विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है । जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया, तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसंद करेगा ।

ऐसी अनेक कथा-कहानियाँ गढ़ी गईं, जिनमें जीवन भर निकृष्ट से निकृष्ट कर्म करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से 'नारायण' का नाम लेने से मुक्त हो गये । इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है । ऐसी शिक्षा देने वाला अध्यात्म वस्तुतः अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है । आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी कर्तव्य परायण बनाना है । यदि इस बात को भुलाकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें, तो यह माना जाएगा कि उन्होंने ईश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा काम करने वाला मान लिया है । फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी? ''जो कुछ होता है ईश्वर की इच्छा से ही होता है ।'' ऐसा मानने वाले आलसी और अकर्मण्य बनकर अपनी हीन स्थिति का दोष ईश्वर को लगाते रहते हैं और प्रगति के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब कभी ईश्वर की इच्छा हो जाएगी, तभी अनायास सब कुछ हो जाएगा । ऐसे लोग अनीति और अत्याचारों को भी ईश्वरेच्छा मानकर चुपचाप सहते रहते हैं ।

आस्तिकता का असली स्वरूप भुला कर जो अविवेकपूर्ण धारणा हमने अपनाई, उसके कारण हम वस्तुतः ईश्वर से अधिकाधिक दूर होते गये । आस्तिकता के नाम पर हमने दिखावटी पूजा-पाठ का जो भाव अपनाया, उससे हमने पाया कुछ नहीं, केवल खोया ही खोया । युग निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आस्तिकता का प्रसार किया जा रहा है, उसमें जप, तप, हवन, पूजन, भजन, ध्यान, कथा, कीर्तन, तीर्थ, पाठ, व्रत, अनुष्ठान आदि के लिए परिपूर्ण स्थान है, पर साथ ही समस्त शक्ति लगा कर हर आस्तिक के मन में यह संस्कार जमाये जा रहे हैं कि ईश्वर को निष्पक्ष, न्यायकारी और घट-घट वासी समझते हुए कुविचारों और दुष्कर्मों से डरें और उनसे बचने का प्रयत्न करें । प्रत्येक प्राणी में ईश्वर को समाया हुआ समझकर उसके साथ सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार किया कर्त्तव्यपालन की ईश्वर की प्रसन्नता का सबसे बड़ा उपहार मानें और प्रभु की इस सुरम्य वाटिका-पृथ्वी में अधिकाधिक सुख-शान्ति विकसित करने के लिए एक ईमानदार माली की तरह सचेष्ट बने रहें । अपना अन्तःकरण इतना निर्मल और पवित्र बनाया जाए कि उसमें ईश्वर का प्रकाश स्वयमेव झिलमिलाने लगे । प्रार्थना केवल सद्बुद्धि, सद्गुण, सद्भावना, सहनशीलता, पुरुषार्थ, धैर्य, साहस और सहिष्णुता के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने की ही की जाए । परिस्थितियों को सुलझाने और अभावों की पूर्ति के लिए जो साधन हमें मिले हुए हैं, उन्हें ही प्रयोग में लाया जाए और संघर्ष का जीवन हँसते-खेलते बिताते हुए मन को संतुलित रखा जाए । ये ही सब आस्तिकता के सच्चे लक्षण हैं । युग निर्माण योजना का प्रयत्न यह है कि इन लक्षणों से युक्त भक्ति और पूजा की भावना को जन-मानस में स्थान मिले और सच्ची आस्तिकता को अपनाने के लिए मानव मात्र का अन्तःकरण उत्साहित होने लगे ।

सेवाधर्म एक सरल और व्यावहारिक योग साधना

मानवी काय-कलेवर अनेकानेक शक्तियों का भण्डागार है । ये शक्तियाँ प्रायः प्रसुप्त स्थित में पड़ी रहती हैं । प्रसुप्त को जाग्रत् करना ही महान् पुरुषार्थ है । योग साधनाओं की विविध परम्पराओं का सृजन इसी निमित्त हुआ है । उनमें अनेकता-विविधता देखते हुये किसी को भी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये । जिस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के आहार, पोशाक, भाषा, परम्परा एवं विनोद क्रम में अन्तर पाया जाता है, उसी प्रकार यदि अध्यात्म-साधनाओं में अन्तर पाया जाता है, तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये और भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये । वे सभी उपयोगी हैं । लक्ष्य सभी का एक है-आत्म परिष्कार । वह जिस सीमा तक पूरा होता है, उसी क्रम से गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश होता है । इस प्रकार परिपुष्ट हुआ व्यक्ति अपने में सामान्यजनों की अपेक्षा प्रतिभा, प्रामाणिकता, सुव्यवस्था और तत्परता की मात्रा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी देखता है । यही ऋद्धि-सिद्धियों का बीज है । इसके पल्लवित होने पर सामान्य स्थिति में जन्मे, पले लोग भी उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं । वे ऐसे काम कर दिखाते हैं, जिन्हें अभिवंदनीय, अनुकरणीय कहा जा सके । इसी प्रगतिक्रम के साथ-साथ आत्म-सन्तोष और लोक सम्मान उपलब्ध होता चलता है । जन सहयोग की भी कमी नहीं रहती है ।

योगाभ्यासों में, तप-साधनाओं में सभी उपासना परक कर्मकाण्डों में अनुबंधित हों, ऐसी बात नहीं है । एक अति सरल और व्यावहारिक योग भी है-सेवायोग । इस निमित्त भी आत्मसंयम बरतना पड़ता है । शक्तियों को अनावश्यक कार्यों में क्षरित होने से रोकना पड़ता है । इतना ही नहीं समय, साधन, चिंतन आदि को सत्प्रयोजनों के निमित्त अर्पित करना पड़ता है । सादा जीवन और उच्च विचार का जीवनचर्या में सघन समावेश किया जाता है । औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ता है । 

सेवाधर्म अपनाने का संकल्प-उत्साह मन में तब उठता है, जब आत्मा की मलीनता हटती है और सद्गुण बढ़ते हैं । संकीर्ण स्वार्थपरता के भव-बंधनों से जैसे-जैसे छुटकारा मिलता जाता है, वैसे ही आत्मा की महानता उसी प्रकार परिलक्षित होने लगती है जैसे कीचड़ में दबकर तली में बैठी हुई लकड़ी पानी भरते चलने पर ऊपर उभरती चलती है । मलीनता का दबाव हटते ही महानता का ऊपर उभरना आरम्भ हो जाता है । 

सद्भावना फूल है और जन-कल्याण के निमित्त प्रयत्नशीलता उसका प्रतिफल । सेवा कृत्यों में मात्र हलचल ही नहीं होती रहती, उसके साथ सत्प्रवृत्तियों का समागम भी चलता रहता है । जो आदर्शवादी न होगा, उसे अपनी लोभ-लिप्सा से ही फुरसत न मिलेगी । सस्ती वाहवाही लूटने के लिये लोग दिखावटी आडम्बर मात्र ओढ़ पाते हैं । नाम छपने, फोटो प्रकाशित होने, पदाधिकारी कहलाने भर में उनकी रुचि होती है । उस विज्ञापनबाजी के लिये ही वे थोड़ा समय और धन खर्च कर पाते हैं । जहाँ ऐसा अवसर न हो, वहाँ से वे दूर ही रहते हैं । उदार आत्मीयता की भावनायें परिपक्व होने पर ही यह सूझता है कि दूसरों का दुःख बँटाया जाय, अपना सुख बाँटा जाय । गिरतों को उठाया जाय, उठतों को बढ़ाया जाय । 

सेवा की उमंग तभी उठती है, जब अन्यों में भी अपनी ही आत्मा का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होने लगे । इस स्तर की सद्भावना, सदाशयता अनायास ही नहीं उभर आती । इसके लिये लम्बे समय तक आत्मशोधन की साधना करनी पड़ती है । तुच्छता को महानता में, कामना को भावना में बदलना पड़ता है । जब सेवाभावी चिन्तन जग पड़े और उसे कार्यान्वित करने की विधा चल पड़े, तो समझना चाहिये कि चिंतन क्षेत्र में उत्कृष्टता घर बनाने लगी । जब वह कार्यान्वित होने लगे, तो मानना चाहिये कि श्रद्धा ने मूर्तरूप धारण कर लिया । 

सेवाधर्म अपनाने पर पग-पग पर उदारता का परिचय देना पड़ता है । सहृदयता के बिना सेवा बन ही नहीं पड़ती । इसी तथ्य को यों कहा जा सकता है कि जन-कल्याण में प्रवृत्त होने वाला क्रमशः अधिकाधिक उदार बनते चलने के लाभ से वंचित नहीं रह सकता । सदाशयता और सेवा एक ही प्रक्रिया के अविच्छिन्न पक्ष हैं । एक के रहते दूसरी का भी आ पहुँचना स्वाभाविक है । प्रकाश के सामने अंधकार नहीं टिक सकता । उदारता के उभरते ही संकीर्ण स्वार्थपरता का निर्वाह हो नहीं सकता । सेवा परायण व्यक्ति दुर्जन बना नहीं रह सकता । उसे सज्जनता का पक्षधर बनना ही पड़ता है । 

अन्य योग साधनाओं में विधि-विधान सही न होने पर उल्टा परिणाम भी हो सकता है । हानि भी उठानी पड़ सकती है । पर सेवायोग में ऐसा कोई खतरा नहीं है । पुण्य-परमार्थ का स्वल्प समयदान भी सत्परिणाम ही प्रस्तुत करता है । जन-कल्याण में निरत व्यक्ति सज्जन बन कर रहता है । इतना बन पड़ने पर आत्म-कल्याण की दिशा में प्रगति क्रम अनुगामी ही बनता है ।

ऐसे करें अपने बच्चों का विकास


महापुरुषों का कथन है कि बालक की नैतिक शिक्षा उसके जन्म से पूर्व ही आरम्भ हो जाती है । अतः अपनी सन्तान को सच्चरित्र बनाने की अभिलाषा रखने वाले माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे बालक के जन्म से ही उन गुणों को स्वयं प्राप्त करने का प्रयत्न करें, जिन गुणों को वे अपनी सन्तान में होना आवश्यक समझते हैं । फिर भी जिन बालकों के माता-पिता ने इस ओर उचित ध्यान नहीं दिया, उनकी प्रवृत्तियों का भी अच्छी परिस्थिति की सहायता से बहुत कुछ सुधार किया जा सकता है । भले साथियों के सहवास से बुरी प्रवृत्तियों का दमन तथा अच्छी प्रवृत्तियों को उत्तेजित किया जा सकता है । 

वंश परम्परा तथा कुसंगति द्वारा प्राप्त कुप्रवृत्तियों का पारिवारिक सुधार कुछ अंशों में सदाचार शिक्षा द्वारा हो सकता है, परन्तु इस प्रकार की शिक्षा देने में निम्नलिखित छः बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है- 
(१) कुछ सीमा के अन्दर बालकों को थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता अवश्यमेव देनी चाहिए । उनकी प्रवृत्तियों का व्यर्थ दमन करने तथा हर समय उनको सख्त कैद में रखने से बहुत हानि की आशंका रहती है । इस प्रकार बालक डरपोक बन जाते हैं और उनमें आत्मविश्वास, स्वावलम्बन, दृढ़ निश्चय, उद्योगशीलता तथा मौलिकता आदि गुणों का विकास नहीं होने पाता । अतः बालकों को स्वतन्त्र रीति से कार्य करने का अधिक से अधिक अवसर देना चाहिए, जिससे कि उनके व्यक्तित्व और चरित्र का उचित रूप से विकास हो सके । 

(२) बालकों में आत्मसंयम का भाव उत्पन्न किया जाय तथा उनकी बुरी प्रवृत्तियों को रोका जाय । यह विशेषकर उन बालकों के लिए बहुत आवश्यक है, जिनकी पारिवारिक परम्परा तथा बाल्यकाल का सहवास अच्छा नहीं होता । इस प्रकार के बालकों को उसी समय दृढ़तापूर्वक रोकने की आवश्यकता होती है, जबकि वे सीमा का उल्लंघन करने को उद्यत होते हैं । ऐसी अवस्था में यदि अन्य साधनों से सफलता प्राप्त न हो, तो दण्ड का भी प्रयोग किया जा सकता है, जिससे कि बालक की कुप्रवृत्तियों का दमन होकर उसमें संयम का भाव उत्पन्न हो सके । 

(३) बालकों को उन गुणों, नियमों आदर्शों तथा कर्त्तव्यों से परिचित करा देना चाहिए, जिनके आधार पर उनके चरित्र का निर्माण करना है । जिससे उनको भली-भाँति विदित हो जाये कि कौन-सी बातें उनके लिए हितकर हैं, कौन-सी अहितकर, कौन-सी बातें उचित हैं और कौन-सी अनुचित तथा उनको किस आदर्श के अनुसार कार्य करना है? शिक्षाप्रद नाटकों, रोचक कथाओं, उत्तम-उत्तम कविताओं, आदर्श पुरुषों के जीवन-चरित्रों से बालक के आचरण संबंधी ज्ञान की वृद्धि तथा पुष्टि करें । बालकों को सुंदर-सुंदर कविताएँ, गीत, पद तथा श्लोक भी कण्ठाग्र करा देने चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा उचित निर्णय पर पहुँचने और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचित रीति से व्यवहार करने में बहुत सहायता मिलती है । 

(४) बालकों को निषेधात्मक कार्य की अपेक्षा विधेयात्मक कार्यों का स्मरण दिलाना अधिक श्रेयस्कर है । यदि बालक को किसी कार्य को करने का निषेध किया जाता है, तो उस कार्य को करने के लिए वह अधिक लालायित हो जाता है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल शाब्दिक रीति से अच्छी आदतों का बोध देकर ही शिक्षक तथा माता-पिता को सन्तुष्ट न होना चाहिए । उनके मन में उन आदतों के प्रति श्रद्धा तथा उनको अपने जीवन में चरितार्थ करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न की जानी चाहिए । इस प्रकार की दृढ़ इच्छा उत्पन्न हो जाने पर भिन्न-भिन्न गुणों, कर्त्तव्यों तथा सिद्धान्तों के सम्बन्ध में बालकों के मन में स्थायीभाव (सेंटीमेण्ट्स) उत्पन्न हो जाते हैं । इस भाव के उत्पन्न हो जाने से वे उन कार्यों को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हैं । 

(५) ऐसे भावों को बालकों के मन में अवश्य उत्पन्न करना चाहिए, जिनको उसके समाज में विशेष महत्त्व दिया जाता है । इसके साथ-साथ कुछ ऐसे गुणों के प्रति भी उसके मन में स्थायी भाव (सेंटीमेण्ट्स) उत्पन्न कर देना आवश्यक है, जिनका होना मनुष्यता का सूचक है और सभ्य समाज में प्रत्येक के लिए वांछनीय है, जैसे-आत्मसम्मान, सभ्यता, ईमानदारी, सत्य, स्वच्छता, स्वास्थ्य रक्षा, साहस, निर्भीकता, न्यायशीलता, दया, परोपकार, सहनशीलता, आस्तिकता, र्कत्तव्यपालन, संयम, नियम पालन आदि । इसमें सबसे आवश्यक आत्मसम्मान का स्थायीभाव है । बालकों के चरित्र गठन में इससे सबसे अधिक सहायता मिलती है । जिस बालक में यह भाव उत्पन्न हो जाता है, वह कोई अनुचित कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि इस भाँति के व्यवहार से उसके आत्मसम्मान में धब्बा लग जाने, उसके यश के कलंकित हो जाने और अन्य लोगों की दृष्टि में उसके गिर जाने की उसको सदा आशंका रहती है । इस भाव का विकास शनैः-शनैः होता है । इसको पूर्ण रूप से जाग्रत् करने के लिए बालक पर विश्वास करना चाहिए और उसके उत्तरदायित्व के भाव को जाग्रत् करना चाहिए। 

(६) कोई अनुचित कार्य हो जाने पर बालक को भला-बुरा नहीं कहना चाहिए, बल्कि ऐसा कहकर कि ''इस प्रकार का व्यवहार तुम्हारे योग्य नहीं है । यह कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता । तुमसे कदापि ऐसी आशा न थी । इत्यादि-इत्यादि... ।'' उसके आत्मसम्मान के भाव को जाग्रत् करना चाहिए, जिससे भविष्य में वह कोई भी कार्य अनुचित ढंग से न करे । ऐसे अवसर पर भला-बुरा कहने से बालक का उत्साह सदा के लिए भंग हो जाता है और दिन-प्रतिदिन उसकी अवनति होने लगती है । 

चरित्र-गठन के लिए बालकों में दृढ़ संकल्पशक्ति का होना भी आवश्यक है, जिससे कि विघ्न-बाधाओं तथा शारीरिक कष्टों का सामना करते हुए बच्चे अपने निर्णयों को कार्य रूप में परिणत कर सकें । इस दृढ़ता को उत्पन्न करना भी बालक के माता-पिता एवं गुरुजनों का आवश्यक कर्तव्य है ।


बच्चे आपके सच्चे मित्र


सच्चे, सरल और निष्कपट मित्र की तलाश संसार में किसे न होगी ! ऐसा मित्र जिससे अपनी प्रत्येक गुप्त से गुप्त बात प्रकट कर सकें, तो भी ऐसी आश़ंका न रहे कि वह बात कहीं अन्यत्र फैल जायेगी । जो इतना सरल हो कि अपनी प्रत्येक त्रुटि को उदारतापूर्वक क्षमा कर सके । जो हर कार्य में सच्चा सहयोगी सिद्ध हो सके । अभिन्न हृदय, अभिन्न आत्मा, न कोई छल, न कपट; ऐसा मित्र मिल जाय तो पूर्वजन्म का कोई पुण्य, कोई सुकृत ही समझना चाहिए । पर ऐसी मित्रता इस जगत में अपवाद ही हो सकती है । प्रायः मित्रता किसी लाभ या स्वार्थ की दृष्टि से कायम होती है और जब उन परिस्थितियों में ढीलापन आने लगता है, तो आत्मीयता के बंधन भी समाप्त होने लगते हैं । 

हमारी दृष्टि में अपने बच्चों की मित्रता अधिक निश्चिंत और उपयोगी हो सकती है । मित्र में जो गुण होने चाहिए, वे बच्चों में मौलिक रूप से देखे जायें, तो वे सबसे प्रिय संगी, स्नेही और सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं । विश्व प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा करते थे-''परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है, तो उसे मैंने बच्चों में पाया । बालकों को मैं अपने जीवन का प्रेरणास्रोत मानता हूँ ।'' पं. जवाहरलाल जी की बालकों के साथ घनिष्टता विश्व-विख्यात है । उन्होंने एक बार कहा था-''मैं इस संसार में अपने मित्रों के कारण बहुत सुखी हूँ । यह जो भोले-भाले बच्चे हैं, यही हमारे प्रिय सखा हैं ।'' 

बच्चों में असाधारण सूझ-बूझ होती है, उसे यदि ठुकराया न जाय तो वे ऐसी सुघड़ सलाह देते हैं, जैसी कोई मित्र भी नहीं दे सकता । जॉर्ज बर्नाडर्शा के एक नाटक में किसी पात्र के मुँह से ऐसी बात कहलाई गई थी, जो उसे न कहनी चाहिए थी । उसे एक बालक ने ठीक किया था । ''पिताजी, मनुष्य को उद्देश्यहीन उत्सवों में नहीं शामिल होना चाहिए ।'' यह उपदेश बालक नैपोलियन ने अपने पिता को दिया था । सुभाषचन्द्र बोस अपने घर में नजरबन्द थे, तो वहाँ से मौलवी के वेश में निकल जाने की योजना उनकी छोटी भतीजी ने ही बनाई थी । 

मित्रों से एक अपेक्षा यह की जाती है कि वे सुख-दुःख में सच्चे आत्मीय की तरह हमारे साथ रहें । हम नहीं कह सकते कि इस नियम का व्यवहार में कितना पालन होता है, पर बच्चों से अधिक संवेदनशीलता बड़ों में नहीं होती । माता-पिता को दुःखी देखकर बच्चों के चेहरे पहले मुरझा जाते हैं । वे प्रसन्नता के समय घर को उल्लास से भर देते हैं । इन दोनों समय में बच्चों की आत्मीयता प्राप्त कर सच्चे आत्मसन्तोष का अनुभव किया जा सकता है । दुःख के समय बालकों के ममत्व से दुःख कटता है, सुख में उन पर हल्का उत्तरदायित्व छोड़ने से उनका स्वाभिमान, उनकी आत्मीयता की भावना और उदारता की वृत्ति का परिष्कार होता है । इन दोनों अवसरों पर अपनी मानसिक स्थिति को बच्चों के सामने खुली हुई रखनी चाहिए । 

कभी-कभी मित्रों के गुण-सौन्दर्य बहुत प्रभावित करते हैं । किसी में आत्मीयता अधिक होती है, किसी से मनोविनोद होता है, कोई प्राणवान होते हैं, कोई कर्त्तव्यपालन और व्यवहारकुशलता में श्रेष्ठ होते हैं । बच्चों में इस प्रकार के अनेक सद्गुणों और सद्भावों का सम्मिलित एकीकरण देखा जा सकता है, पर उसे कृपया पुत्र होने की अधिकार भावना से न देखकर मैत्रीपूर्ण भावनाओं से देखिए । एक-दूसरे पर समान अधिकार का आश्वासन देकर ही एक-दूसरे के गुणों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है । 

सरलता बालकों का स्वाभाविक गुण है । वे प्रतिदिन ऐसे मनमोहक दृश्य उपस्थित करते रहते हैं । कभी बच्चा कपड़ों और देह में मिट्टी लपेटकर आपके समक्ष आ खड़ा होगा, ठीक बाल-शिव की तरह । उसे देखकर आप मुस्कराये बिना नहीं रहेंगे । उसे कपड़े पहनने के लिए कहेंगे तो उल्टी कमीज पहनकर आ जायेगा । आपकी किताबों को सारे कमरे में बिखेर देगा । उन्हें इस तरह खोलेगा, मानो किसी विशेष सन्दर्भ की तलाश हो । 

आपको भी उसकी इन क्रियाओं से मनोविनोद करना चाहिए, पर यदि उसे इन कौतुकों के फलस्वरूप आपकी डॉट-डपट और मार-झिड़क मिली, तो कुछ ही दिनों में उसकी सारी सरलता कठोरता में बदलने लगेगी । यदि आप इन आदतों में से किसी को सुधारना ही चाहते हैं, तो उसका सही नमूना बार-बार उसके आगे प्रदर्शित कीजिए, बच्चा अपने-आप उसका अनुसरण कर लेगा । समझायें भी तो हँसते हुए कुछ कहें, वह भी आत्मीयता के साथ । ''नहीं, मुन्ने ऐसे नहीं, कंघा यों पकड़ना चाहिए और ऐसे बाल ठीक करने चाहिए ।'' इस प्रकार कहते हुए आप कोई बात उसे समझाइये । चिल्लाकर, चौंकाकर कोई बात कहेंगे तो बच्चा डर जायेगा और आपके प्रति उसकी भावनाओं में कठोरता पनपने लगेगी । यह दबाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुटिल परिणाम उपस्थित करने वाला होता है । 

आपके बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ आप पर हैं, उन को पूरा करने में निःसन्देह कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक आती हैं, पर इससे बालक पर स्वामित्व या अधिकार की भावना प्रकट करना उचित नहीं । आपके घर वह परमात्मा का मेहमान बनकर आता है । आत्मा की दृष्टि से आप में और बच्चे में कोई असमानता नहीं होती । जिम्मेदारियाँ अधिक होने से आप बड़े अवश्य हैं, पर तमाम कत्तर्व्यों का भली-भाँति निर्वाह आप बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार करके ही पूरा कर सकते हैं । आप उन्हें इस दृष्टि से देखा करें तो निःसन्देह उनका बड़ा भला कर सकते हैं और स्वयं भी आत्म-लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।


भावनाशील बनें और व्यवहार कुशल भी

भावना जीवन-वृक्ष की जड़ है और उसके द्वारा खींचा जाने वाला पोषक पदार्थ व्यवहार । दोनों के समन्वय से ही परिवार को उपयुक्त परिपोषण मिलता है । भावना में आत्मीयता की सघनता होती है । उससे दूसरों को लाभ पहुँचाते समय उल्लास और उनका दुःख बँटाते समय सन्तोष की अनुभूति होती है । लेकिन उस आचार-संहिता को भी महत्व और प्रश्रय देना होगा, जो भावनाओं के अनाचार को रोकती है । रेलगाड़ी की सार्मथ्य कितनी ही बड़ी क्यों न हो, पटरी की मर्यादा में उसे अनुशासित न रखा जाय, तो वह कहीं से कहीं बहकेगी और अन्ततः अपना तथा दूसरों का विनाश करेगी । 

भावुक अक्सर ठगे जाते हैं, इसका कारण यह नहीं कि भावना की श्रेष्ठता में कोई सन्देह है, वरन् यह है कि व्यवहार और मर्यादाओं का नियंत्रण न रहने से उस दिव्य संवेदना का दुरुपयोग होता है । धूर्तों को इस कला में प्रवीणता प्राप्त होती है कि वे भावुकता भड़काकर किस प्रकार उस संवेदनशील मनोभूमि का लाभ उठायें । विपत्ति की सम्भावना बताकर ज्योतिषी और चिकित्सक किस प्रकार उनके स्वजन, परिजनों का अनुचित दोहन करते हैं, इसके प्रमाण-उदाहरण हर जगह उपलब्ध हो सकते हैं । शिशु-वात्सल्य की अतृप्त भावना को पूर्ण करने के लिए पराये बच्चे दत्तक लिये जाते हैं । इस दुर्बलता को वे बच्चे थोड़ी समझ आते ही भाँप लेते हैं और अपने परिपालकों का बुरी तरह शोषण ही नहीं करते, त्रास भी देते हैं । 

युवक-युवतियों के प्रेम-प्रसंगों में भावुकता की उड़ानें ही आकाश में पतंगों की तरह उड़ती दीखती हैं । संध्याकाल की रंगीनी आकाश के पश्चिमी भाग में कितनी मनोहर लगती है, पर उसका न तो कोई अस्तित्व होता है और न आधार । ऐसा ही उन्माद इन तथाकथित प्रेम-प्रसंगों के मूल में रहता है । न औचित्य समझ में आता है, और न यथार्थ । नशे पर नियंत्रण कौन करे? सपनों की सीमा कैसे बाँधे? प्रेमोन्माद भी लगभग ऐसा ही होता है । 

मैत्री के नाम पर कितना शोषण होता है, इसका अपना एक अलग ही क्षेत्र है । पुराने जमाने में शत्रु आमना-सामना करते लड़ाई लड़ते और हानि पहुँचाते थे । आज के जमाने का आधुनिकतम आविष्कार यह है कि मित्रता गाँठी जाय, वफादारी का प्रमाण दिया जाय और रंगीन सपने दिखाकर अथवा अपनी कठिनाई जताकर मित्र का शोषण आरंभ कर दिया जाय । दाव लगते ही उसे चित्त-पट्ट करके रफूचक्कर बना जाय । 

पति-पत्नी की द्विधासत्ता को एकत्व में परिणत कर देने का प्रधान कारण आत्मीयता की सघन भावुकता ही है । यही पतिव्रत और पत्नीव्रत की उच्च सच्चरित्रता के रूप में परिलक्षित होती है । एक-दूसरे के प्रति परिपूर्ण वफादारी का आधार यही है । एक-दूसरे को बहुत कुछ, सब कुछ देने की उमंगें इस संदर्भ में उठती भी हैं और उठनी भी चाहिए, किन्तु यदि यह उभार औचित्य की मर्यादा लाँघने लगे, तो समझना चाहिए कि अर्थ का अनर्थ होने जा रहा है । 

सम्पन्न लोग पत्नी को कुछ भी शारीरिक श्रम न करने देने के लिए नौकरों की व्यवस्था करते हैं । उनके लिए शृंगार और विनोद के अनेकानेक साधन जुटाते हैं । इसके प्रबंध के पीछे उनका उद्देश्य पत्नी पर भारी स्नेह होने का परिचय देना भर होता है । इस एकांगी चिन्तन में अंततः पत्नी की स्वस्थता, समर्थता, प्रखरता और प्रतिभा को बुरी तरह क्षति पहुँचती है और वह अंततः किसी कृषक, मजदूरों की श्रमजीवी पत्नी से भी अधिक घाटे में रहती है । गुड़िया बने रहने में उसके क्या खोया और क्या पाया? 

छोटों का अधिक काम करना, बड़ों को अधिक आराम देना सहज शिष्टाचार है । लेकिन बड़ों को आराम देने का अर्थ उन्हें आलसी और दुर्व्यसनी बना देना है, तो उसके कहीं अच्छा यह है कि उन्हें व्यवस्था, शिक्षा एवं लोकसेवा जैसे किसी उपयोगी काम में जुटाये रखने का ताना-बाना बुना जाय । देखने में यह बड़ों के प्रति अनुदारता बरतने जैसा प्रतीत होता है, किन्तु दूरदर्शिता यही कहेगी कि सद्भावना और सुव्यवस्था का समावेश हर दृष्टि से उचित है । 

जो कमाया जाय, उसका उत्तराधिकार संतान को ही मिले, यह प्रचलन हर दृष्टि से निंदनीय है । इसमें संतान को मुफ्तखोरी की लानत उठानी पड़ती है और संचयकर्त्ता मोहग्रस्त कहलाते हैं । औचित्य इतना ही है कि अभिभावक अपनी संतान को समर्थ, सुसंस्कृत बनाने के साथ अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझें और संतान भी अपने पूर्वजों से इससे अधिक की आशा न करें । असमर्थ आश्रितों को ही पूर्वजों की कमाई पर गुजारा करने का अधिकार रहना चाहिए, पर जो अपने बाहुबल से कमाने में समर्थ हैं, उन्हें स्वावलम्बन पूर्वक निर्वाह करना चाहिए । बिना परिश्रम की कमाई, चाहे वह चोरी में, लॉटरी में या उत्तराधिकार में या किसी दूसरे रास्ते से मिली हो, तथ्यतः अनैतिक है । जो कमाएँ सो खायें, यही सिद्धांत सही है । 

मोहग्रस्त अभिभावक, भावुकतावश अपनी संचित कमाई का उत्तराधिकार अपने वंशजों के लिए छोड़ते हैं तो प्रचलन के अनुसार इसे स्वाभाविक ही कहा जायेगा, किन्तु जहाँ तक विवेक एवं औचित्य का प्रश्न है, इस हस्तांतरण का कोई औचित्य नहीं है । कृषि, उद्योग आदि के तंत्र पीढ़ी-दर पीढ़ी चलते रहें और उनके सहारे परिवार को काम मिलता रहे, यह व्यवस्था अलग है, इसका समर्थन भी हो सकता है । किन्तु जहाँ ऐसा कुछ नहीं, बाप की कमाई बेटों को बँटनी भर है, वहाँ निश्चित रूप से भावुकता का अनुचित उपयोग ही है । इसमें देने वाले और लेने वाले-दोनों पर ही औचित्य की भावुकता के दुरुपयोग का कलंक लगता है । ऐसा धन विशुद्ध रूप से सार्वजनिक उपयोग के लिए प्रयुक्त होना चाहिए । भले ही उसे मृत्यु टैक्स के रूप में सरकार वसूल करे अथवा प्राचीनकाल की श्राद्ध व्यवस्था के अनुसार उसे स्वेच्छापूर्वक धर्म-प्रयोजन के लिए वितरित कर दिया जाय । 

इन दिनों भी परिवारों में भावना का अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान है । भाव संवेदनाएँ घटती तो जा रही हैं, पर वे अभी समाप्त नहीं हुई हैं । अब जो करने योग्य है, वह यह है कि उस दैवी तत्त्व का उपयोग विवेकपूर्वक होने दिया जाय । पारिवारिकता अपने सही स्वरूप में पनपे, उसे मोहग्रस्तता की विकृत स्थिति में न रहना पड़े ।

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