रविवार, 12 अक्टूबर 2008

महत्वाकांक्षा

एक बूढ़ा घास खोदने में सबेरे से लगा हुआ था। दिन ढलने तक वह इतनी खोद सका था, जिसे सिर पर लाद कर घोड़े वाले की हाट में बेचने ले जा सके।

एक सुशिक्षित देर से उस बुड्ढ़े के प्रयास को देख रहा था। सो उसने पूछा, क्यों जी, दिन भर परिश्रम से जो कमा सकोगे, उससे किस प्रकार तुम्हारा खर्च चलेगा ? घर में तुम अकेले ही हो क्या ?

बूढे ने मुस्कराते हुए कहा, कई व्यक्तियों का मेरा परिवार है। जितने की घास बिकती है, उतने से ही हम लोग व्यवस्था बनाते है और काम चला लेते है।

युवक को आश्चर्यचकित देख कर बूढे ने पूछा, मालुम पड़ता है, तुमने अपनी कमाई से बढ़-चढ़ कर महत्वाकांक्षाएं संजो रखी है, इसी से तुम्हे गरीबी पर गुजारे से आश्चर्य होता हैं।

युवक से ओर तो कुछ कहते न बन पड़ा, पर अपनी झेंप मिटाने के लिए कहने लगा। गुजारा ही तो सब कुछ नहीं है, दान-पुण्य के लिए भी तो पैसा चाहिए।

बुड्ढा हँस पड़ा। उसने कहा, मेरी घास में तो बच्चों का पेट ही भर पाता है, पर मैंने पड़ोसियो से मॉंग-मॉंग कर एक कुआ बनवा दिया है, जिससे सारा गॉंव लाभ उठाता है। क्या दान-पुण्य के लिए अपने पास कुछ न होने पर दूसरे समर्थों से सहयोग माँग कर कुछ भलाई का काम कर सकना बुरा है।

युवक चला गया। रात भर सोचता रहा कि महत्वाकांक्षाएं संजोने ओर उन्ही की पूर्ति में जीवन लगा देना ही क्या एकमात्र तरीका जीवन जीने का है।


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