रविवार, 11 दिसंबर 2011

खुदा के आदेशों का पालन

खलीफा उमर एक बार अपने धर्मस्थान पर बैठे हुए थे। उन्हें स्वर्ग में एक फरिश्ता उड़ता हुआ दिखाई दिया। उसके कंधे पर बहुत मोटी पुस्तक लदी हुई थी। खलीफा ने उसे पुकारा, वह नीचे उतरा तो उन्होंने उस पुस्तक के बारे में पूछा कि इसमें क्या हैं ? फरिश्ते ने कहा-‘‘इसमें उन लोगों के नाम लिखे हैं, जो खुदा की इबादत करते हैं।’’

उन्होंने अपना नाम तलाश कराया तो फरिश्ते ने सारी पुस्तक ढूँढ़ डाली, उसका नाम कहीं न मिला। इस पर खलीफा बहुत दुखी हुए कि हमारा इतना परिश्रम बेकार ही चला गया।

कुछ दिन बाद एक और फरिश्ता छोटी-सी किताब लिए उधर से गुजरा। खलीफा ने उसे भी बुलाया और पूछा कि इसमें क्या हैं ? फरिश्ते ने कहा-‘‘इसमें उन लोगों के नाम लिखे हैं, जिसकी इबादत खुदाबंद करीम खुद करते हैं।’’

खलीफा ने पूछा-‘‘क्या ईश्वर भी किसी की इबादत करता हैं?’’फरिश्ते ने कहा-‘‘हाँ! जो लोग खुदा के आदेशों का पालन करते हैं, उन पर दुनिया को चलाने की कोशिश करते हैं, उन्हें खुदा बहुत आदर की दृष्टि से देखता है और उनकी इबादत वह खुदा करता है।’’

क्या इसमें मेरा भी नाम है ? खलीफा ने पूछा। फरिश्ता बोला कुछ नहीं, पुस्तक वहीं छोड़कर आगे अढ़ गया। खलिफा ने खोलकर देखा तो उनका नाम सबसे पहला था।

चमत्कार नहीं, चरित्र और ज्ञान...

एक बार एक व्यक्ति ने एक ऊँची बल्ली पर रत्नजडि़त कीमती कमंड़लु टाँग दिया और घोषणा की कि जो कोई साधु इस बल्ली पर सीधा चढ़कर कमंड़लु उतार लेगा उसे यह कीमती पात्र ही नहीं, बहुत दक्षिणा भी दूँगा। बहुत से त्यागी और विद्वान साधुओं ने भी प्रयत्न किया, पर किसी को सफलता न मिली। अंत में कष्यप नामक नट विद्या में बहुत-सा जीवन बिताकर साधु बने एक बौद्व भिक्षु ने उस बल्ली पर चढ़कर कमंडलु उतार लिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई और धन मिला।

जब यह समाचार भगवान बुद्व के पास पहुँचा तो वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने सब शिष्यों को बुलाकर कहा-‘‘भविष्य में तुम में से कोई भिक्षु इस प्रकार का चमत्कार न दिखाए और न उन लोगों से भिक्षा ग्रहण करे जो साधु का आचार नहीं, चमत्कार देखकर उसे बड़ा मानते हों।’’

चमत्कार नहीं, चरित्र और ज्ञान ही साधुता की कसौटी है।

उपयोगिता

एक धनपति था। वह नित्य ही एक घृतदीप जलाकर मंदिर में रख आता था। एक दूसरा निर्धन व्यक्ति था। वह सरसों के तेल का एक दीपक जलाकर नित्य अपनी गली में रख देता था। वह अँधेरी गली थी। दोनों मरकर जब यमलोक पहुँचे तो धनपति को निम्न स्थिति की सुविधाए दी गई और निर्धन व्यक्ति को उच्च श्रेणी की। यह व्यवस्था देखी तो धनपति ने धर्मराज से पूछा-‘‘यह भेद क्यों, जबकि मैं भगवान के मंदिर में दीपक जलाता था, वह भी घी का।’’

धर्मराज मुस्कराए और बोले-‘‘पुण्य की महत्ता मूल्यों के आधार पर नहीं, कार्य की उपयोगिता और भावना के आधार पर होती हैं। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशमान था। उस व्यक्ति ने ऐसे स्थान पर प्रकाश फैलाया, जिससे हजारों व्यक्तियों ने लाभ उठाया। उसके दीपक की उपयोगिता अधिक थी।’’

नीति और न्याय

रावण ने एक और कूटनीतिक चाल फेंकी। बोला-अंगद ! जिस राम ने तेरे पिता को मारा, तू उन्हीं की सहायता कर कहा है ? मेरे मित्र का पुत्र होकर भी तू मुझ से बैर कर रहा है !

अंगद हँसा और बोला-रावण ! अन्यायी से लड़ना और उसे मारना ही सच्चा धर्म है। चाहे वह मेरा पिता हो अथवा आप ही क्यों न हों।

अंगद के ऐसे तेजस्वी शब्द सुनकर रावण को उतर देते न बना।

संबध नहीं, नीति और न्याय का पक्ष ही वरेण्य है।

सत्पात्र

आचार्य उपकौशल को अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की खोज थी। उनके गुरूकुल में कई विद्वान ब्रह्मचारी थे, किंतु वे कन्यादान के लिए ऐसे सत्पात्र की खोज में थे, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रताडि़त न करे। परीक्षा के लिए उन्होंने सब ब्रह्मचारियों को गुप्त रूप से आभूषण लाने को कहा, जिसे माता-पिता क्या, कोई न जाने। सब छात्र चोरी से कुछ-न-कुछ आभूषण लेकर लौटे। आचार्य ने वे आभूषण सॅंभालकर रख लिए। अंत में वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत खाली हाथ लौटे। आचार्य ने उनसे पूछा-क्या तुम्हें एकांत नहीं मिला ? ब्रह्मदत ने उत्तर दिया-निर्जनता तो उपलब्ध हुई, पर मेरी आत्मा और परमात्मा तो देखते ही थे चोरी को। बस, आचार्य को वह सत्पात्र मिल गया, जिसकी उन्हें खोज थी।

ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान देखने वाला कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता।

माँ की शिक्षा

माँ कहा-बच्चे ? अब तुम समझदार हो गए हो। स्नान कर लिया करो और प्रतिदिन तुलसी के इस पौधे में जल भी चढ़ाया करो। तुलसी उपासना की हमारी परम्परा पुरखों से चली आ रही है।“


बच्चे ने तर्क किया-माँ ? तुम कितनी भोली हो, इतना भी नहीं जानतीं कि यह तो पेड़ है। पेड़ों की भी कहीं पूजा की जाती हैं ? इसमें समय व्यर्थ खोने से क्या लाभ ?

लाभ है मुन्ने ? श्रद्धा ही है। श्रद्धा छोटी उपासना से विकसित होती है और अंत में जीवन को महान बना देती है, इसलिए यह भाव भी निर्मूल नहीं।

तब से विनोबा भावे जी (बच्चे) ने प्रतिदिन तुलसी को जल देना शुरू कर दिया। माँ की शिक्षा कितनी सत्य निकली, इसका प्रमाण अब सबके सामने है।

आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार

पुजारी नियत समय पूजा करने आता और आरती करते-करते वह भाव विहल हो जाता, पर घर जाते ही वह अपने पत्नी-बच्चों के प्रति कर्कश व्यवहार करने लगता।

एक दिन उसका नन्हा बच्चा भी साथ लगा चला आया। पुजारी स्तुति कर रहा था-हे प्रभु ? तुम सबसे प्यार करने वाले, सब पर करूणा लुटाने वाले हो।

अभी वह इतना ही कह पाया था कि बच्चा बोल उठा-पिताजी ? जिस भगवान के पास इतने दिन रहने पर भी आप करूणा और प्यार करना न सीख सके, उस भगवान के पास रहने से क्या लाभ ? पुजारी को अपनी भूल मालूम पड़ गई, वह उस दिन से आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार में लग गया।

भगवान के गुणों का कीर्तन ही नहीं, उन्हों जीवन में उतारने का प्रयास भी करना चाहिए।

अपने दोष...

बिच्छू बोला-तुम मुझे पार पर पहुँचा दो, डंक नहीं मारूँगा। कछुए ने कहा-अच्छा ! और बिच्छू को पीठ पर बैठाकर पानी में तैर चला। अभी कुछ ही दूर चला था कि बिच्छू ने डंक मार दिया। कछुए ने पूछा-यह क्या किया ?

बिच्छू बोला- यह तो मेरा स्वभाव हैं। कछुए ने कहा- अच्छा हुआ मैंने अपने को सुरक्षित किया हुआ है, पर तेरे आततायीपन का दंड़ तो तुझे मिलना ही चाहिए।

यह कहकर उसने डुबकी मार ली और बिच्छू पानी में डूबकर मर गया।

अपने दोष ही अंततः विनाशकारी सिद्व होते हैं।

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