शनिवार, 20 सितंबर 2008

धर्म

श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ को विभिन्न धर्मो और उनके प्रवक्ताओ से बड़ा लगाव था। राज-काज से बचा हुआ समय वे उन्हे ही पढ़ने और सुनने में लगाते थे। यह क्रम चलते बहुत दिन बीते थे कि राजा असमंजस में पड़ गये, जब धर्म शाश्वत हैं तो उनके बीच मतभेद और विग्रह क्यो ?

समाधान के लिए वे भगवान बुद्ध के पास गये और अपना असमंजस कह सुनाया। बुद्ध हंसें उन्हे सत्कारपूर्वक ठहराया और दूसरे दिन प्रात:काल उनके समाधान का वचन दिया।

दिनभर के प्रयास से एक हाथी और पॉँच जन्मांध जुटा लिये गये। प्रात:काल तथागत सम्राट को लेकर उस स्थान पर पहुँचें। किसी जन्मांध का इससे पूर्व कभी हाथी से संपर्क नहीं हुआ था। उनसे कहा गया कि वह सामने खड़ा है, उसे छुओ और उसका स्वरुप बतलाओ। अंधें ने उसे टटोला और जितना जिसने स्पष्ट किया, उसी अनुरुप उसे खंभे जैसा, रस्सी जैसा, सूप जैसा, टीले जैसा आदि बताया।

तथागत ने कहा, ‘‘राजन् ! संप्रदाय अपनी सीमित क्षमता के अनुरुप ही धर्म की एकांगी व्याख्या करते है। और अपनी मान्यता के प्रति हठी होकर झगड़ने लगते है।

जिस प्रकार हाथी एक है और उसका अंधविवेचन भिन्नतायुक्त। धर्म तो समता, सहिष्णुता, एकता, उदारता और सज्जनता में है। यही हाथी का समग्र रुप है। व्याख्या कोई कुछ भी करता रहे।’’

उपदेश की योग्यता

साधु आत्मानंद की कुटिया गाँव के पास ही थी। प्राय: प्रतिदिन सायंकाल ग्रामीण लोग उनके पास जाते और धर्म-चर्चा का लाभ प्राप्त करते। जब संध्या भजन का समय आता, गाँव के दो नटखट लड़के जा धमकते और कहते, महात्मन् ! आपसे ज्ञान प्राप्त करने आये है, फिर शुरु करते गप्पें। बीच-बीच में साधु को चिढ़ाने, गुस्सा दिलाने वाली बातें भी करते जाते। उनका तो मनोरंजन होता, पर आत्मानंद का भजन-पूजन का समय निकल जाता। यह कर्म महीनों चलता रहा, पर साधु एक दिन भी गुस्सा नहीं हुए। बालकों के साथ बात करते हुए आप भी हँसते रहते।

बहुत दिन बाद भी जब वे नटखट लड़के उन्हें क्रुद्ध न कर सके, तो उन्हें अपने आप पर क्षोभ हुआ, उन्होंने क्षमा मांगते हुए पूछा, ‘‘महात्मन् ! हमने जान-बूझकर आपको चिढ़ाने का प्रयत्न किया, फिर भी आप न कभी खीझे, न क्रुद्ध हुए।’’ आत्मानंद ने हँसते हुए कहा, वत्स ! यदि मैं ही क्रुद्ध हो जाता, तो आप सबको सिखा क्या पाता ?

मौसेरा भाई

राजा के दरबार में एक वृद्ध पहुँचा और बोला, ‘‘भगवन् ! मैं आपका मौसेरा भाई हूँ । कभी आपकी तरह मैं भी था। ३२ नौकर थे, एक-एक करके चले गये। दो मित्र थे, वे भी साथ चलने से कतराने लगे। दो भाई है, सो बडी मुश्किल से थोडा-बहुत काम करते है। पत्नी भी उल्टे-सीधे जवाब देती है। मेरी मुसीबत देखते हुए यदि आप कुछ सहायता कर सकें तो कर दे।’’

राजा ने उसका आदर किया और रुपयों की एक थैली थमा दी। सभासदों ने साश्चर्य कहा, ‘‘ यह दरिद्री आपका मौसेरा भाई कैसे हो सकता है !’’

राजा ने कहा, ‘‘इसने मुझे मेरे कर्तव्यों का ज्ञान कराया है। इसके मुंह में मेरी ही तरह ३२ दांत थे, सो भी उखड गये। दो पैर मित्र थे, सो डगमगा गये। दो भाई हाथ है, जो अशक्त होने के कारण थोडा-बहुत ही काम करते है। बुद्धि इसकी पत्नी थी, सो वह भी अब सठिया गयी है, कुछ-का-कुछ जवाब देती है। मेरी माँ अमीरी और उसकी गरीबी है। ये दोनो बहने हैं, इसलिए हम दोनो मौसेरे भाई है। वृद्ध का कहना गलत नहीं है।’’

इन संकेतो ने राजा ने स्वयं के लिए एक संदेश पाया और अपना शेष समय सत्कार्यो में, प्रजाजनो के कल्याण हेतु नियोजित करने का संकल्प लिया।

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