श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ को विभिन्न धर्मो और उनके प्रवक्ताओ से बड़ा लगाव था। राज-काज से बचा हुआ समय वे उन्हे ही पढ़ने और सुनने में लगाते थे। यह क्रम चलते बहुत दिन बीते थे कि राजा असमंजस में पड़ गये, जब धर्म शाश्वत हैं तो उनके बीच मतभेद और विग्रह क्यो ?
समाधान के लिए वे भगवान बुद्ध के पास गये और अपना असमंजस कह सुनाया। बुद्ध हंसें उन्हे सत्कारपूर्वक ठहराया और दूसरे दिन प्रात:काल उनके समाधान का वचन दिया।
दिनभर के प्रयास से एक हाथी और पॉँच जन्मांध जुटा लिये गये। प्रात:काल तथागत सम्राट को लेकर उस स्थान पर पहुँचें। किसी जन्मांध का इससे पूर्व कभी हाथी से संपर्क नहीं हुआ था। उनसे कहा गया कि वह सामने खड़ा है, उसे छुओ और उसका स्वरुप बतलाओ। अंधें ने उसे टटोला और जितना जिसने स्पष्ट किया, उसी अनुरुप उसे खंभे जैसा, रस्सी जैसा, सूप जैसा, टीले जैसा आदि बताया।
तथागत ने कहा, ‘‘राजन् ! संप्रदाय अपनी सीमित क्षमता के अनुरुप ही धर्म की एकांगी व्याख्या करते है। और अपनी मान्यता के प्रति हठी होकर झगड़ने लगते है।
जिस प्रकार हाथी एक है और उसका अंधविवेचन भिन्नतायुक्त। धर्म तो समता, सहिष्णुता, एकता, उदारता और सज्जनता में है। यही हाथी का समग्र रुप है। व्याख्या कोई कुछ भी करता रहे।’’