सोमवार, 11 अप्रैल 2011

दरिद्रता

दरिद्रता इच्छाओं की कोख से पैदा होती हैं। जिसकी इच्छाएँ जितनी अधिक हैं, उसे उतना ही दरिद्र होना पड़ेगा, उसे उतना ही याचना और दासता के चक्रव्यूह में फँसना पडे़गा। इसी के साथ उसका दुःख भी उतना ही बढ़ेगा। इसलिए जिसे दरिद्रता निवारण के लिए कदम आगे बढ़ाने हैं, उसे इच्छाओं की ओर से अपने पाँव उतने ही पीछे हटाने होंगे, क्योंकि जो जितना अपनी इच्छाओं को छोड़ पाता हैं, वह उतना ही स्वतंत्र, सुखी और समृद्ध होता हैं। जिसकी चाहत कुछ भी नहीं हैं, उसकी निश्चिन्तता एवं स्वतन्त्रता अनन्त हो जाती हैं। 

इस सम्बन्ध में सुफियों में एक कथा कही जाती हैं। फकीर बालशेम ने एक बार अपने एक शिष्य को कुछ धन देते हुए कहा-‘‘इसे किसी दरिद्र व्यक्ति को दान कर देना।’’ शिष्य अपने गुरू के पास से चलकर थोड़ा आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसके गुरू ने गरीब के स्थान पर दरिद्र व्यक्ति को यह धन देने के लिए कहा हैं। और जैसा कि उसने बालशेम के सत्संग में जाना था कि गरीब व गरीबी परिस्थितियोंवश होती हैं, लेकिन दरिद्र व दरिद्रता मनःस्थितिजन्य हैं। सो उसने किसी दरिद्र व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की। 

अपनी इस तलाश में वह एक राजमहल के पास जाकर रूक गया। वहाँ कुछ लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि राजा ने अपनी इच्छाओं के पूरा करने के लिए प्रजा पर कितने कर लगाए हैं, कितने लोगो को लूटा हैं। इन बातों को सुनकर उसे लगा कि उसकी तलाश पूरी हुई। बस, उसने राजा के दरबार में हाजिर होकर उस राजा को अपने सारे रूपये सौंप दिए। एक फकीर के द्वारा इस तरह अचानक रूपये दिए जाने से वह राजा हैरान हुआ। इस पर बालशेम के शिष्य ने उसे अपने गुरू की बात कह सुनाई और कहा-‘‘राजन् ! इच्छाएँ हो तो दरिद्रता व दुःख बने ही रहेंगे। इसलिए जो इन इच्छाओं के सच को जान लेता हैं, वह दुःख से नहीं, अपनी चाहतो से मुक्ति खोजता हैं, क्योंकि जो अपनी इच्छाओं व चाहतों से छुटकारा पा लेता हैं, उसके जीवन से दरिद्रता, दुःख याचना व दासता स्वतः ही हट एवं मिट जाते हैं। 

अखण्ड ज्योति मार्च 2011

पाप क्या हैं ?

कुछ युवकों ने मुझसे पूछा, ‘पाप क्या हैं ?’ मैने कहा-‘मूर्च्छा’। वस्तुतः होशपूर्वक कोई भी पाप करना असंभव हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और जो मूर्च्छा के बिना न हो सके, वही पाप हैं। 

एक युवक ने साधु से जाकर कहा, ‘मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।’ साधु ने कहा, ‘स्वागत हैं, परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत हैं।’ वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोला, ‘लेकिन बहुत त्रुटियां हैं मुझमें- मैं बहुत पापी हूं।’ यह सुन साधु हँसने लगा और बोला, परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता हैं, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं ? मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं।’ उस युवक ने कहा, ‘लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं, मैं व्यभिचारी हूं।’

वह साधु बोला, ‘इन सबसे कोई भेद नहीं पड़ता, लेकिन देखों ! मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम मुझे स्वीकार करोगे ? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं ? युवक ने आश्वासन दिया। गुरू का इतना आदर स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह लौटा और उसके गुरू ने पूछा कि तुम्हारे पापों का क्या हाल हैं, तो वह हँसते हुए बोला, मैं जैसे ही उनकी मूर्च्छा में पड़ता हूं कि आपकी आँखे सामने आ जाती हैं और मैं जाग जाता हूं। आपकी उपस्थिति मुझे जगा देती हैं। जागते हुए तो गड्ढों में गिरना असंभव हैं।’’ मेरे देखे पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुतः तो वे हमारे अंतःकरण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएं हैं। 
-ओशो

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