दरिद्रता इच्छाओं की कोख से पैदा होती हैं। जिसकी इच्छाएँ जितनी अधिक हैं, उसे उतना ही दरिद्र होना पड़ेगा, उसे उतना ही याचना और दासता के चक्रव्यूह में फँसना पडे़गा। इसी के साथ उसका दुःख भी उतना ही बढ़ेगा। इसलिए जिसे दरिद्रता निवारण के लिए कदम आगे बढ़ाने हैं, उसे इच्छाओं की ओर से अपने पाँव उतने ही पीछे हटाने होंगे, क्योंकि जो जितना अपनी इच्छाओं को छोड़ पाता हैं, वह उतना ही स्वतंत्र, सुखी और समृद्ध होता हैं। जिसकी चाहत कुछ भी नहीं हैं, उसकी निश्चिन्तता एवं स्वतन्त्रता अनन्त हो जाती हैं।
इस सम्बन्ध में सुफियों में एक कथा कही जाती हैं। फकीर बालशेम ने एक बार अपने एक शिष्य को कुछ धन देते हुए कहा-‘‘इसे किसी दरिद्र व्यक्ति को दान कर देना।’’ शिष्य अपने गुरू के पास से चलकर थोड़ा आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसके गुरू ने गरीब के स्थान पर दरिद्र व्यक्ति को यह धन देने के लिए कहा हैं। और जैसा कि उसने बालशेम के सत्संग में जाना था कि गरीब व गरीबी परिस्थितियोंवश होती हैं, लेकिन दरिद्र व दरिद्रता मनःस्थितिजन्य हैं। सो उसने किसी दरिद्र व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की।
अपनी इस तलाश में वह एक राजमहल के पास जाकर रूक गया। वहाँ कुछ लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि राजा ने अपनी इच्छाओं के पूरा करने के लिए प्रजा पर कितने कर लगाए हैं, कितने लोगो को लूटा हैं। इन बातों को सुनकर उसे लगा कि उसकी तलाश पूरी हुई। बस, उसने राजा के दरबार में हाजिर होकर उस राजा को अपने सारे रूपये सौंप दिए। एक फकीर के द्वारा इस तरह अचानक रूपये दिए जाने से वह राजा हैरान हुआ। इस पर बालशेम के शिष्य ने उसे अपने गुरू की बात कह सुनाई और कहा-‘‘राजन् ! इच्छाएँ हो तो दरिद्रता व दुःख बने ही रहेंगे। इसलिए जो इन इच्छाओं के सच को जान लेता हैं, वह दुःख से नहीं, अपनी चाहतो से मुक्ति खोजता हैं, क्योंकि जो अपनी इच्छाओं व चाहतों से छुटकारा पा लेता हैं, उसके जीवन से दरिद्रता, दुःख याचना व दासता स्वतः ही हट एवं मिट जाते हैं।
अखण्ड ज्योति मार्च 2011