1) ब्राह्मणत्व एक साधना हैं मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान हैं।इस साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शुद्र ऐतरेय ब्राह्मण हो जाते हैं। साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल और धुंधकारी शुद्र हो गये। सही तो हैं जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ हैं ? ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे। स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेको को सुपथ पर चलना सिखाये।
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2) कष्ट और विपत्तियाँ मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है।
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3) कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।
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4) कर्कोटक, दमयन्ती, नल और ऋतुपर्ण का नाम लेने से कलियुग असर नहीं करता। इसी तरह भगवन्नाम का जप, कीर्तन करने से कलियुग असर नहीं करता है।
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5) कम बोलना और ज्यादा सुनना यही बुद्धिमान के लक्षण है।
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6) कर्मो को श्रेष्ठ, विकर्मो को दग्ध तथा संस्कारों को शुद्ध करने का उपाय हैं योग।
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7) कर्म का बीज बोना अत्यन्त सरल हैं, परन्तु उसका भार ढोना अत्यन्त दुष्कर है।
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8) कर्म का मूल्य उसके बाहरी रुप और बाहरी फल में इतना नहीं हैं जितना कि उसके द्वारा हमारे अन्दर दिव्यता की वृद्धि होने में है।
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9) कर्म के पीछे कर्तापन का होना अज्ञानता का द्योतक हैं। यही कर्तापन का अभाव ज्ञानातीत अवस्था की ओर संकेत करता है।
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10) कर्म ही पूजा हैं, और कर्तव्य पालन भक्ति।
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11) कर्म, भक्ति एवं ज्ञान:- भक्ति एवं ज्ञान से विमुख कर्म केवल महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन व जीवन में भटकन का पर्याय बन कर रह जाता हैं। इसी तरह कर्म एवं ज्ञान से विमुख भक्ति कोरी भावुकता बन जाती हैं और यदि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से विमुख हो, तो कोरी विचार तरंगे ही पल्ले पडती है। जो मात्र दिवास्वपनो की सृष्टि करती रहती है।
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12) कर्मकाण्ड और पूजा पाठ की श्रेणी में साधक तभी आता हैं, जब उसका जीवन क्रम उत्कृष्टता की दिशा में क्रमबद्ध रीति से अग्रसर हो रहा हो और क्रिया कलाप में उस रीति-नीति का समावेश हो जो आत्मवादी के साथ आवश्यक रुप से जुडे रहते है।
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13) कर्मनिष्ठता से पुरुषार्थ उसी तरह दैदिप्यमान होता हैं, जिस प्रकार अग्नि में तपने से कुन्दन।
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14) कठिनाइया एक खराद की तरह हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराशकर चमका दिया करती है।
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15) कठिनाई और विरोध की मिट्टी में शौर्य और आत्मविश्वास का विकास होता है।
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16) कथनी करनी भिन्न जहाँ हैं, धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ है।
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17) कहा जाता हैं कि जीवन में दुःखो से संघर्ष करने के लिये साहस चाहिये। वास्तविकता यह हैं कि साहसी व्यक्ति तक दुःख पहुँचता ही नहीं।
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18) की हुयी भूल को पुनः न दोहराने का व्रत लेकर सरल विश्वास पूर्वक प्रार्थना करनी चाहिये।
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19) कभी मत सोचिए लोग क्या कहेंगे ? हमेशा सोचिए आप क्या करेंगे ।
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20) कपडे को रंगने से पूर्व धोना पडता हैं। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पडती हैं। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिये भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता हैं। साधक ही सच्चे अर्थो में उपासक हो सकता हैं। जिससे जीवन साधना नहीं बन पडी उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलतः मन लगेगा ही नहीं। लिप्साए और तृष्णायें जिसके मन को हर घडी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकाण्ड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नही। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध हैं। जहाँ भावनाएँ होगी, वहाँ मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।
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21) करते वहीं राष्ट्र उत्थान, जिन्हे निज चरित्र का ध्यान।
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22) करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहें। करना तो अपना हैं, पर होना भगवान् की कृपा से हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनो में भगवान् की समान कृपा है।
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23) करने वाले को आज तक किसने रोका हैं। रोध, अनुरोध, प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोष में नहीं, निकम्मो की जीभ पर चढे होते है।
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24) कायर अपने जीवन काल में ही अनेक बार मरते हैं, वीर लोग केवल एक बार ही मरते है।
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