शनिवार, 16 जुलाई 2011

vichar pariwartan


यज्ञ मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि

रोगों की जड़ शरीर में नहीं, मन में होती है। यह मानकर अपने मानसिक संतुलन को सुस्थिर रखा जाय, तो कोई शारीरिक रोग होने पर भी वह जीवन क्रम सामान्य ढंग से चलाया जा सकता है। मानसिक संतुलन साधने के लिए यह मान्यता बड़ी ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि उस तथ्य को सभी रोगों में एक समान लागू होते देखा जा सकता है। उनकी प्रतिक्रिया, लक्षण शरीर पर भले ही दिखाई दें, लेकिन उनकी जड़ मनुष्य के मन में होती है। वृक्ष की जड़ जिस प्रकार जमीन के भीतर होती है और उसका तना, शाखाएँ, पत्ते, फूल, फल और शिखर आकाश में होते हैं। इसी प्रकार रोगों का स्वरूप, उत्पात, प्रतिक्रिया शरीर के तल पर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका मूल मन में होता है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए महर्षियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा है। प्रज्ञापराधं रोगस्य मूल कारणं अर्थात् प्रज्ञापराध, मानसिक अस्त-व्यस्त, असंतुलित मनःस्थिति, चिन्ता, क्षोभ और अन्यान्य मानसिक विकृतियाँ समस्त रोगों का मूल कारण है। यदि अपनी मानसिक स्थिति को सँभाला जाय, उसे शांत-संतुलित बनाया जाय, तो शरीर को पूर्ण स्वस्थ, निरोग और पुष्ट रखा जा सकता है। शरीर का निदान-परीक्षण बाद में, पहले मन को ही स्वस्थ बनाये रखने की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से परे मन को हलका-फुलका बनाने वाली किसी भी विधि का सहारा लिया जा सकता है। इसमें वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा संपादित यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यज्ञोपैथी, ऐलौपैथी, नेचरोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिकल चिकित्सा पद्धति आदि चिकित्सा प्रणालियों की तरह विभिन्न देशों में यज्ञों से भी रोगों के उपचार की विधि खोज ली गयी है और उसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाने लगा है।

अब तो यज्ञ को मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि समझा जाने लगा है। कई देशों में यज्ञ-चिकित्सा दिनों-दिन लोकप्रिय होती जा रही है। इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत रोगियों को यज्ञ के वायु से निकलने वाली तरंगों को श्वास-प्रश्वास के माध्यम से ही देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। पागल और विक्षिप्त समझे जाने वाले व्यक्तियों की मस्तिष्कीय क्षमता पहले ही प्रयास में इस योग्य तो नहीं बन पाती कि वे बताई गयी विधि का अक्षरशः पालन कर लें; लेकिन धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के श्वास-प्रश्वास करने की शैली को पहचानने लगते हैं और तथा उन श्वास-प्रश्वास (प्राणायाम) द्वारा ही उत्तर देने लगते हैं। प्राणायाम के माध्यम से रोगी का यह क्रम धीरे-धीरे शरीर के अंतःस्थल तक भी पहुँच जाता है और परिणामतः रोगी के रोगमुक्त होने में दिनों-दिन सफलता प्राप्त होने लगती है।

जिन व्यक्तियों को विक्षिप्त मान लिया जाता है और पागल समझकर समाज से अलग कर दिया जाता है, ऐसे व्यक्ति का दिमाग वास्तव में बेकार नहीं हो जाता है। वस्तुतः लोग भावनाओं पर अत्यधिक ठेस लगने के कारण मस्तिष्कीय संतुलन खो बैठते हैं। कभी-कभी यह असर इतना गहरा हो जाता है कि वह व्यक्ति समाज की धारा से पूरी तरह कट-पिटकर अपने आप में सिमट जाता है। यज्ञ में भावनाओं को जाग्रत करने और सम्बल देने को ही नहीं, उनके परिष्कृत बनाने तथा उनका संतुलन साधने की प्रभावशाली क्षमता है। शरीरशास्त्रियों की मान्यता है कि मस्तिष्क के कुछ भाग भावनाओं को उत्तेजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यज्ञ से उत्पन्न तरंगों का उन अंगों पर बहुत अच्छा और अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यज्ञ द्वारा मस्तिष्क की उन सिकुड़ी हुई मांस-पेशियों को शक्ति मिलती है। फलतः व्यक्ति को भावनात्मक बल और आनन्द मिलता है। वे पेशियाँ जो कारणवश निष्क्रिय हो जाती हैं, पुनः सक्रिय हो उठती हैं। इसी नियम को एक विधि- व्यवस्था के साथ रोग चिकित्सा के लिए अपनाया जाता है और अब तो जटिल से जटिल रोगों का उपचार भी यज्ञोपैथी द्वारा किये जाने की विधियाँ खोज ली गयी हैं। 

यज्ञोपैथी के माध्यम से रोगोपचार की यह पद्धति तो कुछ वर्षों पूर्व ही आविष्कृत की गयी है। अब चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान इस दिशा में भी गया है। बाहरी उपकरण इतना प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, तो स्वयं अपनी ही कर्म (यज्ञ करना) तो और अधिक प्रभाव उत्पन्न करते होंगे। इस विषय पर चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान भले ही अभी गया हो, परन्तु यह तो प्राचीनकाल से जान, समझ लिया गया है कि यज्ञ के द्वारा समस्त रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। यज्ञ मनुष्य को न केवल हलका-फुलका व प्रफुल्लित कर देता है, वरन् उसकी कई चिंताओं, दबावों और तनावों तथा समस्याओं के बोझ को भी बड़ी सीमा तक समाप्त कर देता है।

भारतीय मनीषियों ने यज्ञ की इस शक्ति को हजारों वर्ष पूर्व पहचान कर उसका उच्च उद्देश्यों के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया था। यज्ञ साधना का अपना एक स्वतंत्र विज्ञान है। कोई आश्चर्य नहीं कि यज्ञ का स्वास्थ्य प्रयोजन के लिए उपयोग करते-करते विज्ञान इस तथ्य को भी बहुत जल्दी स्वीकार करने की स्थिति में आ जाय कि यज्ञ मानव मात्र, प्राणिमात्र के लिए सर्वतोभावेन कल्याणकारी है। वर्तमान की अनेकानेक समस्याओं का समाधान उसमें सन्निहित है।

-गौरीशंकर शर्मा

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
vedmatram@gmail.com

Swami Nigmanad Ji


सभी धर्मों में उपवास की महत्ता

उपवास द्वारा मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी बुद्धि और विवेक की जाग्रति होती है- यह देखकर ही हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने धर्म के अन्तर्गत उपवास को विशेष स्थान प्रदान किया है। इससे मनुष्य के मानसिक और वासनाजन्य विकार शान्त हो जाते हैं और विवेक तीव्र हो उठता है।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक १५ दिन पश्चात् व्रत का विधान रखा गया है, एकादशी के अतिरिक्त प्रदोष और रविवार, भिन्न-भिन्न पुण्य तिथियों तथा पर्वों पर व्रत किया जाता है। हिन्दू धर्म में आन्तरिक शुद्धि के लिए व्रत प्रधान तत्त्व माना गया है। इसी कारण उसमें व्रतों की संख्या संसार के अन्य सब धर्मों से अधिक है। हमारे यहाँ निर्जल और चान्द्रायण आदि अनेक प्रकार के दूसरे उपवास भी हैं, किसी की मृत्यु पर लंघन करना, शोक मनाने का चिह्न है। क्या प्रसन्नता, क्या क्लेश सभी में उपवास को प्रधानता दी गयी है। जैन धर्म में लम्बे उपवासों पर आस्था है। जैन धर्म के ग्रन्थों में केवल नाना प्रकार के उपवासों का ही विधान नहीं, प्रत्युत बहुकाल व्यापी उपवासों का विधान है। जैनियों के उपवास सप्ताहों और महीनों तक चलते हैं। मिस्र में प्राचीनकाल में कई धार्मिक पर्वों पर उपवास किया जाता था, किन्तु वह जन-साधारण के लिए अनिवार्य नहीं था। यहूदी अपने सातवें महीने के दसवें दिन उपवास रखते हैं। उनके धर्म में जो इस उपवास का उल्लंघन करता है, वह दण्डनीय है। इसके अन्तर्गत प्रातः से सायंकाल तक निराहार रहना पड़ता है। ईसाई धर्म में तथा ईसा की पाँचवी शताब्दी से पूर्व, महात्मा सुकरात ने उन दिनों यूनान में प्रचलित कितने ही उपवासों का जिक्र किया है। रोमन जाति के व्यक्ति ईस्टर से पूर्व तीन सप्ताहों में शनिवार और रविवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में उपवास किया करते थे। महात्मा ईसा ने स्वयं एक बार चालीस दिन और चालीस रात्रियों का उपवास किया था। योरोप में जब पापों का प्रभाव बढ़ा, तो उपवासों को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया। मुसलमान, रमजान के महीने में अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार तीस दिन तक रोजे रखते हैं। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में कुछ खाकर सूर्यास्त के पश्चात् रोजा टूटता है। तात्पर्य यह है कि सभी प्रधान धर्मों में उपवास को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। सभी ने एक स्वर से उसकी उपयोगिता स्वीकार की है। उपवास से शरीर, मन तथा आत्मा पर लाभदायक प्रभाव को देखकर ही उसे धर्म के अन्तर्गत स्थान दिया गया है।

भारत के प्राचीन ऋषियों की तपस्या का, उपवास एक प्रधान अंग था। बड़े-बड़े धर्माचार्य स्वयं बहुत दिनों तक उपवास करके, अपने अनुयायियों और भक्तों को उसका लाभ बतलाते थे और उनका स्वयं आदर्श बनाते थे, पर आजकल जो लोग धार्मिक दृष्टि से उपवास करते हैं, प्रायः सभी देशों में उन्हें धर्मान्ध बतलाया जाता है और उसकी हँसी उड़ाई जाती है। इसका कारण यही है कि आजकल लोग प्राकृतिक नियमों से एकदम अनभिज्ञ हो गये हैं। जो लोग अन्न को ही प्राण समझते हैं, उन्हीं की आँखें खोलने के लिए, उपवास के सिद्धान्तों का फिर से प्रचार होने लगा है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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ईश्वर की अनुभूति कैसे हो?

जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी, वह उतनी ही व्यापक होगी। पंचभूतों में पृथ्वी से जल, जल से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से आकाश सूक्ष्म है, इसलिए एक-दूसरे से अधिक व्यापक हैं। आकाश-ईथर तत्त्व हर जगह व्याप्त है, पर ईश्वर की सूक्ष्मता सर्वोपरि है, इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक है। विश्व में रंचमात्र भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ ईश्वर न हो। अणु-अणु में उसकी सत्ता एवं महत्ता व्याप्त हो रही है। स्थान विशेष में ईश्वर तत्त्व की न्यूनाधिकता हो सकती है। जैसे कि चूल्हे के आसपास गर्मी अधिक होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि उस स्थान पर अग्नि तत्त्व की विशेषता है, इसी प्रकार जलाशयों के समीप शीतल स्थान में अग्नि तत्त्व की न्यूनता कही जायेगी। जहाँ सत्य का, विवेक का आचरण अधिक है, वहाँ ईश्वर की विशेष कलाएँ विद्यमान हैं। जहाँ आलस्य, प्रमाद, पशुता, अज्ञान हैं, वहाँ उसकी न्यूनता कही जायेगी। सम्पूर्ण शरीर में जीव व्याप्त है, जीव के कारण ही शरीर की स्थिति और वृद्धि होती है; परन्तु उनमें भी स्थान विशेष पर जीव की न्यूनाधिकता देखी जाती है। हृदय, मस्तिष्क, पेट और मर्मस्थानों पर तीव्र आघात लगने से मृत्यु हो जाती है; परन्तु हाथ, पाँव, कान, नाक, नितंब आदि स्थानों पर उससे भी अधिक आघात सहन हो जाता है। बाल और पके हुए नाखून जीव की सत्ता से बढ़ते हैं, पर उन्हें काट देने से जीव की कुछ भी हानि नहीं होती। संसार में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है। ईश्वर की शक्ति से ही सब काम होते हैं; परन्तु सत्य और धर्म के कामों में ईश्वरत्व की अधिकता है। इसी प्रकार पाप प्रवृत्तियों मे ईश्वरीय तत्त्व की न्यूनता समझना चाहिए। धर्मात्मा, मनस्वी, उपकारी, विवेकवान और तेजस्वी महापुरुषों को अवतार कहा जाता है। क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा के आकर्षण से ईश्वर की मात्रा उनके अंतर्गत अधिक होती है। अन्य पशुओं की अपेक्षा गौ में तथा अन्य जातियों की अपेक्षा ब्रह्मान्ड में ईश्वर अंश अधिक माना गया है; क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा, उपकारी स्वभाव ईश्वर भक्ति को बलपूर्वक अपने अन्दर अधिक मात्रा में खींच कर धारण कर लेता है।

उपरोक्त पंक्तियों में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण जड़-चेतन सृष्टि का निर्माण, नियन्त्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली आद्य बीज शक्ति को ईश्वर कहते हैं। यह सम्पूर्ण विश्व के तिल-तिल स्थान में व्याप्त है और सत्य की, विवेक की, कर्तव्य की जहाँ अधिकता है, वहाँ ईश्वरीय अंश अधिक है। जिन स्थानों में अधर्म का जितने अंशों में समावेश है, वहाँ उतने ही अंश में ईश्वरीय दिव्य सत्ता की न्यूनता है।

सृष्टि के निर्माण में ईश्वर का क्या उद्देश्य है ? इसका ठीक-ठीक कारण जान लेना मानव बुद्धि के लिए अभी तक शक्य नहीं हुआ। शास्त्रकारों ने अनेक अटकलें इस संबंध में लगाई हैं; पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं हैं, जिससे पूरा संतोष हो सके। सृष्टि रचना में ईश्वर का उद्देश्य अभी तक अज्ञेय बना हुआ है। भारतीय अध्यात्मवेत्ता इसे ईश्वर की लीला कहते हैं। अतः ईश्वरवाद का सिद्धान्त सर्वथा स्वाभाविक और मनुष्य के हित के अनुकूल है। आज तक मानव समाज ने जो कुछ उन्नति की है, उसका सबसे बड़ा आधार ईश्वरीय विश्वास ही है। बिना परमात्मा का आश्रय लिए मनुष्य की स्थिति बड़ी निराधार हो जाती है, जिससे वह अपना कोई भी लक्ष्य स्थिर नहीं कर सकता और बिना लक्ष्य के संसार में कोई महान् कार्य संभव नहीं हो सकता। इसलिए परमात्मा के विराट् स्वरूप के रहस्य को समझ कर ही हमको संसार में अपनी जीवन-यात्रा संचालित करनी चाहिए॥ 

-शैलबाला पण्ड्या

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पवित्र जीवन

मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए, क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है। पवित्रता में ही चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शान्ति, निश्चिन्तता, प्रतिष्ठा और सच्चाई छिपी रहती है। कूड़ा-करकट, मैल-विकार, पाप, गन्दगी, दुर्गन्ध, सडऩ, अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आन्तरिक निकृष्टता प्रकट होती है।

आलस्य और दरिद्रता, पाप और पतन जहाँ रहते हैं, वहीं मलिनता या गन्दगी का निवास रहता है, जो ऐसी प्रकृति के हैं, उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर,मन, व्यवहार, वचन, लेन-देन सबमें गन्दगी और अव्यवस्था भरी रहती है। इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागरूकता, सुरुचि, सात्विकता होगी, वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जायेगा। सफाई, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है, इसी को पवित्रता कहते हैं। 

गंदे खाद से गुलाब के सुन्दर फूल पैदा होते हैं, जिसे मलिनता को साफ करने में हिचक न होगी, वहीं सौन्दर्य का सच्चा उपासक कहा जायेगा। मनिलता से घृणा होनी चाहिए, पर उसे हटाने या दूर करने में तत्परता होनी चाहिए। आलसी अथवा गंदगी की आदत वाले प्रायः फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर पर्दा डाला करते हैं।

पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है। आत्मा स्वभावतः पवित्र और सुन्दर है, इसलिए आत्म-परायण व्यक्ति के विचार, व्यवहार तथा वस्तुएँ भी सदा स्वच्छ एवं सुन्दर रहते हैं। गन्दगी उसे किसी भी रूप में नहीं सुहाती, गन्दे वातावरण में उसकी श्वास घुटती है, इसलिए वह सफाई के लिए, दूसरों का आसरा नहीं टटोलता, अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सबसे पहले अवकाश निकालता है।

पवित्रता के कई भेद हैं। सबसे पहले शारीरिक स्वच्छता का नम्बर आता है, जिसमें वस्त्रों और निवास स्थान की सफाई भी आवश्यक होती है। दूसरी स्वच्छता मानसिक विचारों और भावों की होती है। आर्थिक मामलों में भी, जैसे आजीविका, लेन-देन आदि में शुद्ध व्यवहार करना श्रेष्ठ गुण समझा जाता है। चैथी पवित्रता व्यावहारिक विषयों की है, जिसका आशय बातचीत और कार्यों के औचित्य से है। अंतिम नम्बर आध्यात्मिक विषयों की पवित्रता का है, जिसके बिना हमारा धर्म-कर्म निरर्थक हो जाता है। इन सबमें शारीरिक और मानसिक पवित्रता से लोगों का विशेष काम पड़ा करता है; क्योंकि इनके होने से अन्य विषयों में स्वयं ही पवित्र भावों का उदय होता है।

-शैलबाला पण्ड्या

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कहीं आप बुढ़ापे से परेशान तो नहीं है?

प्रकृति के नियमानुसार बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आना निश्चित होता है। जैसी लालिमा सूर्य के उदय के समय रहती है, वैसी ही अस्त होने के समय भी हो जाती है। बचपन अंकुर की तरह है, जो आरंभ में दुर्बल होता है; पर धीरे-धीरे बढ़ता और मजबूत होता जाता है। युवावस्था में आकर वह मध्याह्न के तपते हुए सूर्य की तरह होता है। धीरे-धीरे ढलान की स्थिति आती है। ठीक वैसी ही डूबते हुए सूर्य की भी होती है। मनुष्य भी समयानुसार बूढ़ा हो जाता है, साथ ही कमजोर भी। वह शारीरिक दृष्टि से उतना काम नहीं कर सकता है, जितना जवानी में कर लिया करता था।

बुढ़ापा में इसीलिए विश्राम करने की सलाह दी जाती है। सरकारी नौकरी वालों को सेवानिवृत्त किया जाता है तथा घरेलू व्यवसाय में लडक़े बड़े हो जाने पर काम-धाम को उत्साहपूर्वक सँभालते हैं। चाहे वह वृद्धों को आराम देने की दृष्टि से हो या अपने अधिकार को मजबूत करने की दृष्टि से हो। वयोवृद्धों का हस्तक्षेप वे पसंद नहीं करते, उन्हें भजन, पूजा-पाठ की सलाह देकर रास्ते से हटा देते हैं। बुढ़ापा ऐसा खराब समय है, जिसमें आदमी खुद तो कुछ कमा नहीं पाता, प्रत्युत जो संग्रह किया था, वह भी दूसरों के हाथ में चला जाता है। जिस प्रकार बच्चों को किसी भी वस्तु के लिए बड़ों का मुँह ताकना पड़ता है, ठीक उसी तरह से वृद्ध भी जवानों पर आश्रित हो जाते हैं।

वृद्धाओं का हाल तो इससे भी बुरा होता है, जिस घर को उन्होंने बनाया, सँजोया था, अब वह बहुओं के हाथ में चला जाता है। इसमें हस्तक्षेप करने की स्थिति नहीं होती है। पुरानी और नयी संस्कृतियों का तालमेल नहीं बैठ पाता है। वे अपने ढंग से घर चलाती रहती हैं। नये प्रचलन उन्हें सुहाते नहीं, और पुरानी परंपराओं को नये लोग अपनाते नहीं। ऐसी दशा में वे मन ही मन खीझती रहती हैं और अपने को असहाय अनुभव करती हैं। कभी वे सर्वेसर्वा थीं, पर अब वे भार बनकर रह रही हैं। इनके शीघ्र ही मरने की कामना की जाती है। यही कारण है कि उनको बुढ़ापा भार लगता है। जवानी में तो पत्नी सुख, पैसा कमाना, यार-दोस्त, शौक, मौज-मस्ती जैसी खुशियों से भरी हुई दशा होती है। पत्नी को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, मकान बनाने आदि कार्यों से अहंकार की पूर्ति होती रहती है। जवानी के दिन तो खेलते-खाते गुजर जाता है, परन्तु बुढ़ापे में एक-एक दिन पहाड़ जैसा काटना पड़ता है।

बुढ़ापे की कई समस्याओं का समाधान यह है कि नौकरी या कृषि व्यवसाय से निवृत्त होते ही वानप्रस्थ का नया जीवन अपनाया जाय। संभव हो तो समाज के ऋण से उऋण होने के लिए घर से बाहर कहीं निवास की व्यवस्था बनायी जाए। समाज सुधार के कार्यक्रम तथा लोकमंगल के कार्यक्रमों को अपनाकर पुण्यप्रद कार्य में जुट जाना चाहिए। दहेज, ऊँच-नीच की भावना का उन्मूलन, नशा निवारण जैसे कार्य हाथ में लेकर समाज सेवा की जा सकती है। सामूहिक श्रमदान की मण्डली भी गठित करके वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियान जैसे कितने ही उपयोगी कार्यों का सूत्र संचालन किया जा सकता है। बुढ़ापे के लिए इससे अच्छा और शानदार कार्य कोई दूसरा नहीं हो सकता।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या

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गरीबी कहाँ बुरी, कहाँ भली

आर्थिक आधार पर मनुष्य को दो वर्गों में बाँटा गया है-अमीर और गरीब। जो मनुष्य साधन सम्पन्न हैं, उन्हें अमीर और जो साधन हीन हैं, उन्हें गरीब कहते हैं। इस संसार में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है तथा उसे श्रेष्ठ राजकुमार कहा गया है, फिर भी वह गरीब क्यों है ? इस संसार में सभी सम्पत्ति ईश्वर की बनायी हुई है। मनुष्य उन सभी सम्पत्तियों पर एकाधिकार करना चाहता है। प्रकृति में सभी के भरण-पोषण की पूरी व्यवस्था है; परन्तु जब कोई व्यक्ति कई व्यक्तियों के साधन स्वयं अकेले एकत्र कर लेता है, तो वह अमीर तथा जिनके साधन छिने हैं, वे गरीब कहलाते हैं।

खनिज पदार्थों के रूपान्तरण की क्षमता मनुष्य में है। इसलिए वह उसका संग्रह करके धनवान बन जाता है। अन्य प्राणियों में यह क्षमता नहीं होती है। इसलिए अन्य प्राणियों में कोई अमीर-गरीब नहीं होता है। कुछ लोग साधनहीन या गरीब इसलिए होते हैं कि वे धन का महत्त्व नहीं समझते और पुरुषार्थ नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप विद्याध्ययन नहीं कर पाते। इस प्रकार वे विद्याहीन व साधनहीन रह जाते हैं, जिसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। बड़ी संख्या में मजदूरी, मिस्त्रीगीरी आदि करने वाले सामान्य नौकरी करने वालों से अधिक उपार्जन करते हैं; परन्तु अपने दुर्व्यसनों के कारण वे गरीब बने रहते हैं। नशा, फैशन आदि में अपव्यय के कारण वे गरीब दिखाई पड़ते हैं।

बहुधा देखा जाता है कि अच्छे कलाकार श्रम भी खूब करते हैं; परन्तु बीच में एक शोषक वर्ग होता है, जो उसके लाभ पर पलता है और उन्हें उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। खरीददार द्वारा उचित मूल्य दिये जाने पर भी उत्पादक श्रमिक को कुछ अंश ही मिल पाता है, जिससे वह गरीब बना रहता है।

बुद्धिमानों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो अपनी साधन सम्पदा को अभाव ग्रस्तों में वितरित करके उनका उत्थान करता है। दीन-दुखियों की सहायता करता है। स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों को सुख पहुँचाता है। इस तरह वे गरीब-सा दिखाई पड़ते हैं, परन्तु वे सम्मान और यश के भागीदार होते हैं तथा समाज उनकी पूजा करता है। यह गरीबी त्याग और आदर्श के नाम से प्रशंसनीय होती है। उत्कृष्टता के लिए आदर्शों के प्रति यदि कर्तव्यनिष्ठ रहकर हम गरीब दिखाई पड़ते हैं, तो यह गरीबी भली कही जाती है और यदि पुरुषार्थ की कमी और आलस्य के कारण हम गरीब दिखाई पड़ते हैं, तो यह गरीबी बुरी और निन्दनीय समझी जाती है।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या

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राष्ट्र निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका

हमारा देश अभी भी अशिक्षा, गरीबी, पिछड़ेपन एवं सामाजिक अन्याय से पीडि़त है। विश्व शान्ति एवं सांस्कृतिक सद्भाव का प्रेरक देश आज आतंकवाद एवं उग्रवाद के विस्फोटों से ग्रस्त है। जातीय-साम्प्रदायिक हिंसा हमारे देश के लिए खतरा बनी हुई है। समूचा राष्ट्र भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। पूरा समाज आज नेतृत्व-विहीन है। राजनीति भ्रष्टाचार एवं अपराध का पर्याय बन गयी है। लोकतंत्र की व्यवस्था एक उपहास मात्र बनती जा रही है। राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य एक अँधेरी गली में खो गया है। राष्ट्रव्यापी असंतोष, अव्यवस्था आज देश की बुरी स्थिति को प्रकट कर रही है।

ऐसी विषम परिस्थितियों से जूझने की सामर्थ्य किसमें है ? उलटे प्रवाह को उलटकर सीधा करने का साहस कौन कर सकता है ? इन सभी प्रश्रों के उत्तर में हम युवा शक्ति का आह्वान करते हैं। हर किसी का इशारा उन्हीं की ओर होता है। सभी इस बारे में एकमत हैं कि युवाओं में प्रचण्ड ऊर्जा है, भले ही आज वह दिशाहीन होकर बिखर रही है। हमें इस युवाशक्ति को उचित दिशा की ओर प्रेरित करना चाहिए, जिससे हमारे राष्ट्र का निर्माण सफलतापूर्वक हो सके और हमारा भारत प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त कर सके।

अपनी मनोभावनाओं को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसाकि वह स्वयं है। संसार एक लम्बा चैड़ा बिल्लौरी काँच का चमकदार दर्पण है, इसमें अपना चेहरा हुबहू दिखायी पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा है, उसके लिए सृष्टि में वैसे ही तत्त्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयुगी आत्माएँ हर युग में रहती हैं और उनके पास सदैव सतयुग बरसता रहता है। आशावादी व्यक्ति कठिन से कठिन और असंभव से प्रतीत होने वाले कार्यों में जहाँ सफलता प्राप्त कर लेता है, वहीं निराशावादी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति साधारण-सी समस्या और कठिनाइयों को पार नहीं कर पाता है।

सदैव राष्ट्रीय गौरव की सुरक्षा के लिए युवाओं ने ही अपने कदम बढ़ाये हैं। संकट चाहे सीमाओं पर हो अथवा सामाजिक एवं राजनैतिक, इसके निवारण के लिए अपने देश के युवक-युवतियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आवश्यकता यही है कि अपने हृदय में समाज निर्माण की कसक उत्पन्न करें और अपनी बिखरी शक्तियों को एकत्रित करके समाज की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में लगायें। देश की प्रगति ही अपनी प्रगति और उन्नति है। इस श्रेष्ठ विचार के आधार पर ही युवा शक्ति, राष्ट्र शक्ति बनकर राष्ट्र को समृद्धि, उन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जा सकती है।

किसी देश का विकास भीड़ के सहारे नहीं, बल्कि मूर्धन्य प्रतिभाओं के सहारे होता है। आज बड़े दुःख की बात है कि अधिक धन एवं सुख-सुविधा के लोभ में देश की युवा प्रतिभाएँ विदेशों में अपना रैन बसेरा बनाने के लिए आतुर हैं। किसी भी देश के नवनिर्माण में ज्ञान एवं युवाशक्ति का योगदान सदा ही रहा है, परन्तु किसी भी काल में यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहा होगा, जितना कि आज के इस वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के युग में है। इन क्षणों में प्रत्येक युवा को जो महान् पाठ सीखना है, वह है- परिश्रम, त्याग और प्रत्येक व्यक्ति को सबके हित में कार्य करने का पाठ।

सबके जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता समान रूप में नहीं आती, किसी के जीवन में कम और किसी के जीवन में ज्यादा, परन्तु इन परिस्थितियों का सर्वथा अपवाद कोई नहीं हो सकता। यह एक सच्चाई है, जिसे हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ता है। इसीलिए इन परिस्थितियों से घबराना कायरता है। हमें इन प्रतिकूल परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जो भावनात्मक स्तर पर अपना संतुलन बनाये रखता है, वह बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। इसीलिए हमें शरीर को आरंभ से ही प्रतिकूलताओं को सहन करने हेतु सक्षम बनाना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति की भाँति प्रत्येक राष्ट्र का भी एक विशेष जीवनोद्देश्य होता है। वही उसके जीवन का केन्द्र होता है, उसके जीवन का प्रधान स्वर है, जिसके साथ अन्य सब स्वर मिलकर समरसता उत्पन्न करते हैं। भारतवर्ष में धार्मिक जीवन ही राष्ट्रीय जीवन का केन्द्र है और वही जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवनी शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करे, उससे विमुख हो जाने का प्रयत्न करे और यदि वह अपने इस कार्य में सफल हो जाय, तो वह राष्ट्र मृत हो जाता है। अतएव यदि तुम धर्म को फेंककर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य कोई दूसरी नीति को अपनी जीवनी शक्ति के केन्द्र रूपी धर्म के भीतर से ही तुम्हें अपने सारे कार्य करने होंगे। अपनी प्रत्येक क्रिया का केन्द्र इस धर्म को ही बनाना होगा।

युवाओं में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। संसार को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से भरने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय। पहले यही धर्म- प्रचार आवश्यक है। धर्म -प्रचार करने के बाद उसके साथ ही साथ लौकिक विद्या और अन्यान्य आवश्यक विद्याएँ अपने आप ही आ जायेंगी। मनुष्य केवल मनुष्य भर ही होना चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन हृदयवान उत्साही युवकों के भीतर से ही सैकड़ों वीर उठेंगे, जो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे। आज युवकों के सामने यही महान कर्तव्य है। अतएव एक बार फिर हमारे देश के युवकों को उत्तिष्ठ जाग्रत् प्राप्य वरान्नि बोधयत् का अनुसरण करना चाहिए।

-वीरेश्वर उपाध्याय

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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युवा शक्ति रचनात्मक कार्यों में लगे

युवक समाज की रीढ़ है। युवकों में शक्ति का स्रोत बहता रहता है। वे उस शक्ति का उपयोग भी करना चाहते हैं, पर जब तक उनमें आत्मविश्वास नहीं जगेगा, तब तक न तो वे अपनी शक्ति पहचान पायेंगे और न वे उसका उपयोग कर सकेंगे। आज स्थिति यह बन गई है कि युवकों में देव, गुरु और धर्म के प्रति भी विश्वास कम होता जा रहा है। किसी भी बात को तर्क की कसौटी पर कसे बिना उनका मस्तिष्क उसे मानने को तैयार नहीं होता, पर तर्क भी तो हर कहीं काम नहीं देता। जो कार्य श्रद्धा से बन जाता है, उसे तर्क नहीं बना पाता है।

युवावस्था की उठती उम्र अपने साथ शोभा, सौन्दर्य, आशा, उमंग, जोश, उत्साह ही नहीं लेकर आती, वरन मनुष्य के भाग्य और भविष्य का निर्माण भी इन्हीं दिनों होता है। गीली मिट्टी से ही बर्तन, खिलौने आदि बनते हैं। किशोरावस्था और नवयौवन के दिन ही ऐसे हैं, जिनमें व्यक्तित्व उभरता, ढलता है। कुसंग से इन्हीं दिनों पतन का मार्ग तथा सुसंग से उन्नति का मार्ग बनाया जा सकता है। उपेक्षा अभिभावकों की ओर से बरती जाये या किशोर युवकों की ओर से, उसका परिणाम उच्छृंखलता के रूप में ही हमारे सामने आता है। ब्रह्मचर्य पालन में ढील पडऩे से शरीर खोखला हो जाता है, हमें आत्महीनता घेर लेती है और स्मरणशक्ति नष्ट होने लगती है।

एक बात हर युवक को ध्यान में रखनी चाहिए कि अच्छी नौकरियाँ मिलना दिन-पर-दिन कठिन होता जा रहा है। इसीलिए शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बन की बात भी सोचनी चाहिए। कृषि, पशुपालन, उद्योग, व्यवसाय आदि की कोई पारिवारिक परंपरा हो, तो उस ओर ध्यान देना चाहिए और घर के बड़ों के साथ हाथ बँटाकर प्रवीणता संचित करनी चाहिए, जिससे नौकरी मिलने में अवरोध उत्पन्न होने पर बिना किसी असमंजस के निर्वाह का आधार तत्काल पकड़ा जा सके। ऐसी पूर्व तैयारी युवकों को रखनी ही चाहिए। इसके लिए अध्ययन काल में ही अवकाश निकाल कर इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिए, जो युवकों के लिए स्वावलम्बन का आधार बन सके। 

गंदगी बढ़ाना और सहन करना अपने मानव समाज में घुसा हुआ बहुत बड़ा अभिशाप है। इसे सभ्यता और सुरुचि के लिए प्रस्तुत चुनौती ही समझा जाना चाहिए। श्रमदान से गली-कूचों, नालियों, पोखर-तालाबों, टूटे-फूटे रास्तों के गड्ढों की मरम्मत आदि करने के लिए युवकों की स्वयंसेवा मण्डली चला करे, तो गंदगी फैलाने वालों और सहन करने वालों को भी शर्म आयेगी और इस परोक्ष मार्गदर्शन से सभ्यता का पहला पाठ स्वच्छ रहना सीखेंगे।

हमारी जनसंख्या का बड़ा भाग निरक्षर है। इसके लिए प्रौढ़ पाठशालाओं का होना आवश्यक है। शिक्षितों के लिए श्रीराम झोला पुस्तकालयों द्वारा सत्साहित्य पहुँचाने का प्रबंध होना चाहिए। ये ऐसे रचनात्मक कार्य हैं, जिन्हें हाथ में लेने वालों के सिर पर मुकुट रखे जाने या फोटो छपने जैसी लिप्सा तो नहीं सधती, पर वैसे सेवा में कोई कमी भी नहीं रहती। अपना देश, समाज यदि उठता है, तो उसके मूल में ऐसी ही सृजनात्मक प्रवृत्तियों का योगदान होगा। युवकों में शौर्य, साहस और पराक्रम का जोश होता है। उनके एक कोने में योद्धा भी छिपा रहता है, जो अवांछनीयता से जूझने के समय उभरता है। इस पौरुष को सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लेने के लिए लगाया जाना चाहिए। विद्या पढ़ी जाय, विभिन्न कला कौशल और चातुर्य सीखे जायँ, यह सब तो संतोष की बात है, पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परता पूर्वक सद्गुणों का अभ्यास किया जाए, करना चाहिए। एक तराजू में एक ओर विद्या, बल, बुद्धि और धन आदि सम्पत्तियाँ रखी जायँ और दूसरे पलड़े में केवल सद्गुण, तो निश्चय ही दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा।

हमारे युवकों को यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि सभ्य समाज के जिम्मेदार नागरिक हमेशा अपने व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाने के लिए सद्गुणों को अपने अभ्यास में निरन्तर सम्मिलित करते रहते हैं। शिष्टता ही लोकप्रिय बनाती है। सज्जनों को ही श्रद्धा मिलती है। सद्गुणी दूसरों का हृदय जीतते हैं और दसों दिशाओं में उन पर स्नेह, सहयोग बरसता है। इस राजमार्ग को जिसने अपनाया, उसे ही मनस्वी, तेजस्वी और यशस्वी बनने का अवसर मिला है।

हमारे नवयुवकों को समझना चाहिए कि ध्वंसात्मक दुष्प्रवृत्तियों, अशिष्टता एवं उच्छृंखलता को अपना लेना अति सरल है। छिछोरे साथी उठती आयु के बालकों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं, पर शालीनता और सज्जनता का अभ्यासी बनाना उनके वश की बात नहीं। इसलिए हमें व्यक्तित्व के जोशीले और उच्छृंखल लोगों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, उनके प्रभाव और सान्निध्य से दूर रहना चाहिए, अन्यथा उनकी मैत्री अपने को उच्छृंखल बना देगी और वह स्थिति पैदा कर देगी, जिससे अपनी निज की और दूसरों की आँखों में अपना व्यक्तित्व गया-गुजरा, ओछा, कमीना और निकृष्ट स्तर का बन जाय। इस स्थिति में जो पड़ा, उसके सौभाग्य का सूर्य एवं उज्ज्वल भविष्य अस्त हो गया ही समझना चाहिए।

प्रदूषण भरे वर्तमान समय में वृक्षारोपण से बढक़र पुण्य और कोई हो ही नहीं सकता है। संसार में जितने भी पौधे हैं, उन सबमें तुलसी लगाना सबसे आसान एवं सबसे श्रेष्ठ है। यह सबसे अधिक कीटाणु नाशक एवं स्वास्थ्य संवर्धन करने वाला पौधा है। इसलिए घर-घर में युवकों को तुलसी की पौध लगाने का अभियान चलाना चाहिए।

युवावस्था ही सामाजिक कार्यों को करने का श्रेष्ठ अवसर होता है। यदि महापुरुषों पर दृष्टि डालें, तो हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द, शंकराचार्य, दयानन्द, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, राणा प्रताप, तुलसी दास तथा भगवान बुद्ध आदि सभी ने युवावस्था में ही समाज सेवा के कार्य किये। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि जो फूल बिल्कुल ताजा है, जो हाथों से मसला नहीं गया है और जिसे सूँघा नहीं गया है, वही भगवान के चरणों पर चढ़ाया जाता है। उसे ही भगवान स्वीकार करते हैं। इसलिए आज के इस विश्वयुवा दिवस पर अपने राष्ट्र के समग्र विकास के लिए यदि युवा वर्ग संकल्पित होकर कटिबद्ध हो जाए, तो यही उसके लिए सच्ची राष्ट्र भक्ति होगी।

-गौरीशंकर शर्मा

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अनुशासित जीवन की प्रेरणा देता है- गुरु पूर्णिमा पर्व

गुरु पूर्णिमा को अनुशासन पर्व भी कहा जाता है। सामान्य रूप से भी सिखाने वाले गुरुजनों का अनुशासन स्वीकार किये बिना कुशलता में निखार नहीं आ सकता। जहाँ यह आवश्यक है कि गुरुजनों को अपना क्रम ऐसा बनाकर रखना चाहिए कि शिष्य वर्ग में उनके प्रति सहज श्रद्धा-सम्मान का भाव जागे, वहाँ यह भी आवश्यक है कि सीखने वाले, शिष्यभाव रखें, गुरुजनों का सम्मान और अनुशासन बनाये रखें। इस दृष्टि से यह पर्व गुरु-शिष्य दोनों वर्गों के लिए अनुशासन का संदेश लेकर आता है, इसलिए अनुशासन पर्व कहा जाता है। अनुशासन मानने वाला ही शासन करता है, यह तथ्य समझे बिना राष्ट्रीय या आत्मिक प्रगति संभव नहीं है।

गुरुपूर्णिमा पर व्यास पूजन का भी क्रम रहता है। जो स्वयं चरित्रवान हैं और वाणी एवं लेखनी से प्रेरणा संचार करने की कला भी जानते हैं, ऐसे आदर्शनिष्ठ विद्वान को व्यास की संज्ञा दी जाती है। गुरु व्यास भी होता है। इसलिए गुरु-पूजा को व्यास पूजा भी कहते हैं। वैसे महर्षि व्यास अपने आप में महान परम्परा के प्रतीक हैं। आदर्श के लिए समर्पित प्रतिभा के वे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेखक, कलाकार वक्ता अपनी लेखनी, तूलिका एवं वाणी द्वारा भाव सृजन की क्षमता रखने वाले यदि व्यासजी का अनुसरण करने लगें, तो लोक कल्याण का आधा रास्ता तो पार हुआ माना ही जा सकता है, यह भी एक अनुशासन है। आध्यात्मिक स्तर पर गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में तो अनुशासन और भी गहरा एवं अनिवार्य हो जाता है। गुरु शिष्य को अपने पुण्य, प्राण और तप का एक अंश देता है। वह अंश पाने की पात्रता, धारण करने की सामर्थ्य और विकास एवं उपयोग की कला एक सुनिश्चित अनुशासन के अंतर्गत ही संभव है। वह तभी निभता है, जब शिष्य में गुरु के प्रति गहन श्रद्धा-विश्वास तथा गुरु में शिष्य वर्ग की प्रगति के लिए स्नेह भरी लगन जैसे दिव्य भाव हों। गुरु पूर्णिमा पर्व गुरु शिष्य के बीच ऐसे ही पवित्र, गूढ़-अंतरंग सूत्रों की स्थापना और उन्हें दृढ़ करने के लिए आता है। गुरु पूर्णिमा पर्व पर निम्रांकित तथ्य गुरु-शिष्य परम्परा के अनुयायियों के लिए स्मरणीय, चिंतनीय एवं अनुकरणीय हैं-

’गुरु व्यक्ति रूप में पहचाना जा सकता है; पर व्यक्ति की परिधि में सीमित नहीं होता। जो शरीर तक सीमित है, चेतना रूप में स्वयं को विकसित नहीं कर सका, वह अपना अंश शिष्य को दे नहीं सकता। जो इस विद्या का मर्मी नहीं, वह गुरु नहीं और जो शिष्य गुरु को शरीर से परे शक्ति-सिद्धान्त रूप में पहचान-स्वीकार नहीं कर सका, वह शिष्य नहीं।

’ गुरु शिष्य पर अनुशासन दृष्टि रखता है और शिष्य गुरु से निरन्तर निर्देश पाता, उन्हें मानता-अपनाता रहता है। यह चिंतन स्तर पर, वाणी द्वारा एवं लिखने-पढऩे के स्तरों पर संभव है। जिनके बीच इस प्रकार के सूत्र स्थापित नहीं, उनका संबंध चिह्न-पूजा मात्र कहा जाने योग्य है और गुरु-शिष्य का अंध-बधिर का जोड़ा बनकर रह जाता है। 

’ भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य का संबंध दाता-भिखारी जैसा नहीं, सहयोगी-साझेदारी स्तर का बनाया जाता है। गुरु शिष्य को अपनी दिव्य संपदा का-कमाई का एक अंश देता रहता है। जो अनुशासनपूर्वक प्रयुक्त किया जाकर शिष्य के व्यक्तित्व को ऊँचा उठाता है। उठे हुए व्यक्तित्व के द्वारा शिष्य भी लौकिक-पारलौकिक कमाई करता है।

’इसी प्रकार शिष्य अपनी कमाई, श्रद्धा, पुरुषार्थ, प्रभाव एवं सम्पदा का एक अंश गुरु को समर्पित करता रहता है। इनके उचित उपयोग से गुरु का लोकमंगल अभियान विकसित होता है और उसका लाभ अधिक व्यापक क्षेत्र तक पहुँचने लगता है, इससे गुरु की पुण्य-सम्पदा बढ़ती है और उसका अधिकांश भाग शिष्यों के हिस्से में आने लगता है। जहाँ इस प्रकार की दिव्य साझेदारी नहीं, वहाँ गुरु-शिष्य संबंध अपनी संस्कृति में वर्णित असामान्य उपलब्धियाँ पैदा नहीं कर सकते।

’ जहाँ गुरु अपने स्नेह-तप से शिष्य का निर्माण-विकास कर सकता है, वहाँ शिष्य को भी अपनी श्रद्धा-तपश्चर्या से गुरु का निर्माण एवं विकास करना होता है। इतिहास साक्षी है कि जिन शिष्यों ने अपनी श्रद्धा-संयोग से गुरु का निर्माण किया, उनको ही चमत्कारी लाभ मिले। द्रोणाचार्य कौरवों के लिए सामान्य वेतन भोगी शिक्षक से अधिक कुछ न बन सके। पाण्डवों के लिए अजेय विद्या के स्रोत बने। एकलव्य के लिए एक अद्भुत चमत्कार बन गये, अंतर था-श्रद्धा-संयोग से बने गुरु तत्त्व का। 

रामकृष्ण परमहंस जन सामान्य को बाबाजी से अधिक कुछ लाभ न दे सके; किन्तु जिसने अपनी श्रद्धा से उन्हें गुरु रूप में विकसित कर लिया, उनके लिए अवतार तुल्य सिद्ध हुए। 

अस्तु, शिष्यों को अपनी श्रद्धा, तपश्चर्या, साधना द्वारा सशक्त गुरु निर्माण का प्रयास जारी रखना चाहिए, गुरुपर्व यही अवसर लेकर आता है।

-गौरीशंकर शर्मा

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उसे जड़ में नहीं, चेतन में खोजें

माना जाता है कि विधाता ही मात्र निर्माता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता नहीं हिलता। दोनों प्रतिपादनों से भ्रमग्रस्त न होना हो, तो उसके साथ ही इतना और जोडऩा चाहिए कि उस विधाता या ईश्वर से मिलने-निवेदन करने का सबसे निकटवर्ती स्थान अपना अंतःकरण ही है। यों ईश्वर सर्वव्यापी है और उसे कहीं भी अवस्थित माना, देखा जा सकता है; पर यदि दूरवर्ती भाग-दौड़ करने से बचना हो और कस्तूरी वाले मृग की तरह निरर्थक न भटकना हो, तो अपना ही अंतःकरण टटोलना चाहिए। उसी पर्दे के पीछे बैठे परमात्मा को जी भरकर देखने की, हृदय खोलकर मिलने-लिपटने की अभिलाषा सहज ही पूरी कर लेनी चाहिए। भावुकता भडक़ाने या काल्पनिक उड़ानें-उडऩे से बात कुछ बनती नहीं।

ईश्वर जड़ नहीं, चेतन है। उसे प्रतिमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता है। चेतना वस्तुतः चेतना के साथ ही, दूध पानी की तरह घुल-मिल सकती है। मानवीय अंतःकरण ही ईश्वर का सबसे निकटवर्ती और सुनिश्चित स्थान हो सकता है। ईश्वर दर्शन, साक्षात्कार, प्रभु सान्निध्य जैसी उच्च स्थिति का रसास्वादन जिन्हें वस्तुततः करना हो, उन्हें बाहरी दुनिया की ओर से आँखें बंद करके अपने ही अंतराल में प्रवेश करना चाहिए और देखना चाहिए कि जिसको पाने, देखने के लिए अत्यंत कष्ट-साध्य और श्रम-साध्य प्रयत्न किये जा रहे थे, वह तो अत्यंत ही निकटवर्ती स्थान पर विराजमान-विद्यमान है। सरलता को कठिन बनाकर रख लेना, यह शीर्षासन लगाना भी तो मनुष्य की इच्छा और चेष्टा पर निर्भर है। अंतराल में रहने वाला परमेश्वर ही वस्तुततः उस क्षमता से सम्पन्न है, जिससे अभीष्ट वरदान पाना और निहाल बन सकना संभव हो सकता है। बाहर के लोग या देवता, या तो अंतःस्थित चेतना का स्मरण दिला सकते हैं अथवा किसी प्रकार मन को बहलाने के माध्यम बन सकते हैं।

मंदिर बनाने के लिए अतिशय व्याकुल किसी भक्त जन ने किसी सूफी संत से मंदिर की रूपरेखा बना देने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने अत्यंत गंभीरता से कहा- इमारत अपनी इच्छानुरूप कारीगरों की सलाह से बजट के अनुरूप बना लो; पर एक बात मेरी मानो, उसमें प्रतिमा के स्थान पर एक विशालकाय दर्पण ही प्रतिष्ठित करना, ताकि उसमें अपनी छवि देखकर दर्शकों को इस वास्तविकता का बोध हो सके कि या तो ईश्वर का निवास, उसके लिए विशेष रूप से बने, इसी काय-कलेवर के भीतर विद्यमान है अथवा फिर यह समझे कि आत्म-सत्ता को यदि परिष्कृत किया जाय, तो वही परमात्म सत्ता में विकसित हो सकती है। इतना ही नहीं वही परिष्कृत आत्म-सत्ता, पात्रता के अनुरूप दिव्य वरदानों की अनवरत वर्षा भी करती रह सकती है। 

भक्त को कुछ का कुछ सुझाने वाली सस्ती भावुकता से छुटकारा मिला। उसने एक बड़ा हाल बनाकर सचमुच ही ऐसे स्थान पर एक बड़ा दर्पण प्रतिष्ठित कर दिया, जिसे देखकर दर्शक अपने भीतर के भगवान को देखने और उसे निखारने, उबारने का प्रयत्न करते रह सकें।

मनःशास्त्र के विज्ञानी कहते हैं कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही करता है एवं वैसा ही बन जाता है। किए हुए भले-बुरे कर्म ही संकट एवं सौभाग्य बनकर सामने आते हैं। उन्हीं के आधार पर रोने-हँसने का संयोग आ धमकता है। इसलिए परिस्थितियों की अनुकूलता और बाहरी सहायता प्राप्त करने की फिराक में फिरने की अपेक्षा, यह हजार दर्जे अच्छा है कि भावना, मान्यता, आकांक्षा, विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाय। नया साहस जुटाकर, नया कार्यक्रम बनाकर प्रयत्नरत हुआ जाय और अपने बोए हुए को काटने के सुनिश्चित तथ्य पर विश्वास किया जाय। बिना भटकाव का, यही एक सुनिश्चित मार्ग है।

अध्यात्मवेत्ता भी प्रकारान्तर से इसी प्रतिपादन पर तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य अपने स्वरूप को, सत्ता एवं महत्ता को, लक्ष्य एवं मार्ग को भूलकर ही आये दिन असंख्य विपत्तियों में फँसता है। यदि अपने को सुधार ले, तो अपना सुधरा हुआ प्रतिबिम्ब ही व्यक्तियों और परिस्थितियों में झलकता, चमकता दिखाई पडऩे लगेगा। यह संसार गुम्बद की तरह अपने ही उच्चारण को प्रतिध्वनित करता है। अपने जैसे लोगों का ही जमघट साथ में जुड़ जाता है और भली-बुरी अभिरुचि को अधिकाधिक उत्तेजित करने में सहायक बनता है। दुष्ट-दुर्जनों के इर्द-गिर्द ठीक उसी स्तर की मंडली मंडल बनाने लगती है। साथ ही यह भी उतना ही सुनिश्चित है कि शालीनता सम्पन्नों को, सज्जनों को, उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के साथ जुडऩे और महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त कर सकने का समुचित लाभ मिलता है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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गायत्री की दिव्य शक्ति

गायत्री साधना करने वालों को अनेक लाभों से लाभान्वित होते हुए देखा और सुना है। २४ अक्षरों के एक संस्कृत भाषा के पद्य (मंत्र) को जपने या साधना करने से किस प्रकार इतने लाभ होते हैं, यह एक आश्चर्यजनक पहेली है। इस पहेली को ठीक प्रकार न समझ सकने के कारण कई लोग गलत धारणाएँ बना लेते हैं।

गायत्री एक ऐसा विश्व-व्यापी दिव्य तत्त्व है, जिसे ह्रीं-बुद्धि, श्रीं-समृद्धि और क्लीं-शक्ति, इन त्रिगुणात्मक विशेषताओं का उद्गम कहा जा सकता है। यह महाचैतन्य दैवी शक्ति जब विश्वव्यापी पंच तत्त्वों से आलिंगन करती है, तो उसकी बड़ी ही रहस्यमयी प्रतिक्रियाएँ होती हैं। ईश्वरीय दिव्य शक्ति गायत्री की पंच भौतिक प्रकृति-सावित्री से सम्मिलन पाने के समय जो स्थिति होती है, उसे ऋषियों ने अपनी सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देखकर साधना के लिए मूर्तिमान कर दिया है। विश्व-व्यापिनी गायत्री शक्ति जब आकाश तत्त्व से टकराकर शब्द तन्मात्रा में प्रतिध्वनित होती है, तब उस समय २४ अक्षरों वाले गायत्री मंत्र के समान ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं। हम उसे अपने स्थूल कानों से नहीं सुन सकते; पर ऋषियों ने अपनी दिव्य कर्णेन्द्रियों से सुना कि सृष्टि के अंतराल में एक दिव्य ध्वनि-लहरी गुंजित हो रही है। उसी ध्वनि-लहरी को उन्होंने २४ अक्षर गायत्री के रूप में पकड़ लिया। इसी प्रकार अग्रि तत्त्व के साथ इस सूक्ष्म शक्ति का संबंध होते समय, रूप तन्मात्रा में जो आकृति उत्पन्न हुई, उसे गायत्री का रूप मान लिया। इसी प्रकार वायु, जल, पृथ्वी की तन्मात्राओं में जो उन सम्मिलित तत्त्वों की प्रतिक्रिया हुई, उस स्पर्श, रस और गंध का गायत्री के साथ संबंध किया गया।

मनुष्य का शरीर और मन पंच तत्त्वों का बना हुआ है। पंच तत्त्वों से गायत्री शक्ति का सम्मिलन होते समय सूक्ष्म जगत में जो प्रतिक्रिया होती है, उसी के अनुरूप मानसिक प्रतिक्रिया यदि हम अपनी ओर से अपने मनःक्षेत्र में उत्पन्न करें, तो आसानी से उस दैवी शक्ति गायत्री तक पहुँच सकते हैं। पंच भौतिक जगत और सूक्ष्म दैवी जगत के बीच एक नसेनी, रस्सी, पुल, संबंध सूत्र ऋषियों को दिखाई दिया था, उसे ही उन्होंने गायत्री उपासना के रूप में उपस्थित कर दिया है। मंत्रोच्चारण, ध्यान, तपश्चर्या, व्यवस्था आदि के साथ किये हुए साधन लटकती हुई रस्सियाँ हैं, जिन्हें पकड़ कर हमारी भौतिक चेतना, गायत्री की सर्वशक्तिमान दिव्य चेतना से जा मिलती है। जैसे नंदन वन में पहुँचने पर भूख, प्यास और थकान मिटाने के सब साधन मिल जाते हैं, वैसे ही गायत्री का सान्निध्य प्राप्त कर लेने से आत्मा की सभी त्रुटियाँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ, मलीनताएँ दूर हो जाती हैं और स्वर्गीय सुख के आस्वादन का अवसर मिलता है।

गायत्री साधना का प्रभाव सबसे प्रथम साधक के अंतःकरण पर होता है। उसकी आत्मिक भूमिका में सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो जाती है। किसी पानी के भरे कटोरे में यदि कंकड़ डालना शुरू किया जाय, तो पहले से भरा हुआ पानी नीचे गिरने और घटने लगेगा। इसी प्रकार सतोगुण बढऩे से दुर्गुण, कुविचार, दुस्वभाव, दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं। इसी परिवर्तन के कारण साधक में ऐसी अनेक विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो जीवन को सरल, सफल और शांतिमय बनाने में सहायक होती हैं। दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, संतोष, शांति, सेवा-भाव, आत्मीयता, सत्य, निष्ठड्ढा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन पर दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप, संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता एवं सम्मान के भाव बढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में, इनका निवास होगा, वहाँ आत्म-संतोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहेगी। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों, चाहे मृत अवस्था में सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते रहेंगे।

गायत्री साधना से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के चतुष्टय में असाधारण हेर-फेर होता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान और ऋतंभरा बुद्धि के विशेष रूप से उत्पन्न होने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, विपरीत, कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि में लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनंद का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।

संसार में समस्त दुःखों के कारण हैं- (१)अज्ञान, (२) अशक्ति और (३)अभाव। अंतःकरण में सतोगुण बढऩे से इन तीनों का ही निवारण होता है। सद्ज्ञान के बढऩे से दुरूखदायी भ्रान्त धारणाएँ, कल्पनाएँ और इच्छाएँ समाप्त होकर सद्गुण बढ़ते हैं। इन गुणों के कारण आहार-विहार एवं जीवन-क्रम संयमपूर्ण एवं सुव्यवस्थित हो जाता है। फलस्वरूप, शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ बढ़ती हैं। स्वस्थता, स्वच्छता और सुरक्षा रहती है। लोगों का सहयोग बढ़ता है। योग्यताएँ बढऩे, आवश्यकताएँ संयमित होने और व्यवस्था शक्ति तीक्ष्ण होने से साधारण आर्थिक स्थिति में भी कोई अभाव नहीं रहता। उसे सब दिशाओं में अपना भंडार भरा-भरा ही दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तम भूमि में उगे हुए पौधे के सभी अंग-प्रत्यंग परिपुष्ट और सुविकसित रहते हैं, वैसे ही गायत्री भूमिका से संबंधित मनुष्य का मानसिक, शारीरिक एवं सांसारिक जीवन सदा शांत, स्वस्थ एवं समृद्ध बना रहता है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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गायत्री से शक्तियों और सिद्धियों की प्राप्ति

जीभ से जो शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, ओष्ठ दन्त, जिह्वा, कण्ठमूल आदि-आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं, इस फैलाव क्षेत्र में कई सूक्ष्म ग्रन्थियाँ होती हैं, जिन पर उस उच्चारण का दबाव पड़ता है। शरीर में अनेक छोटी-बड़ी, दृश्य-अदृश्य ग्रन्थियाँ होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोषों में कोई विशेष शक्ति भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना के सम्बन्ध में षटचक्र प्रसिद्ध हैं। ऐसी अनेकों ग्रन्थियाँ शरीर में हैं। विभिन्न शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जाग्रत होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी २४ ग्रन्थियों से है, जो जाग्रत होने पर सद् बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार २४ स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती है, जिसका अदृश्य प्रभाव जगत के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रधान हेतु है।

जिस प्रकार टाइप-राइटर यन्त्र की कुंजियों पर उँगली रखते ही उससे सम्बन्धित अक्षर की तीली कागज पर लगती है और अक्षर छप जाता है, वैसे ही अमुक अक्षर के उच्चारण से मुँह में जो क्रिया उत्पन्न होती है, उसके कारण कुछ ऐसी नाडिय़ाँ विभिन्न स्थानों में अवस्थित बड़ी ही महत्त्वपूर्ण गुप्त ग्रन्थियों पर चोट करके उन्हें जगाती हैं। इस जागरण से वे ग्रन्थियाँ अपने अन्दर बड़ी ही महत्त्वपूर्ण ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न करती हैं, जिन्हें शक्तियाँ या सिद्धियाँ कहते हैं। योगी लोग अन्य योगाभ्यासों द्वारा जिन ग्रन्थियों को जाग्रत करके सिद्धियाँ एवं शक्तियाँ प्राप्त करते हैं, वे ही ग्रन्थियाँ गायत्री मन्त्र के विधिवत् उच्चारण करते रहने से - जप से स्वयमेव जाग्रत होती हैं, इस प्रकार की योग साधना ही सिद्ध होती है। सितार में कई तार होते हैं, इनके कई क्रम होते हैं। अमुक नम्बर के स्वर के बाद अमुक नम्बर का, फिर अमुक नम्बर का इतना हलका या जोर से बजने पर अमुक प्रकार की स्वर लहरी निकलती है। इस क्रम को बदल कर कोई और प्रकार के क्रम से उन तारों को बजाया जाय, तो दूसरी स्वर लहरी निकलती है। इसी प्रकार मन्त्रों में जो अक्षर हैं, उनके उच्चारण का क्रम भी शरीर में विशेष प्रकार की शक्तियों का संचार करता है। गायत्री मन्त्र के अक्षरों का अर्थ साधारण है, उसमें भगवान् से सद् बुद्धि की प्रार्थना की गई है। ऐसे मन्त्र और भी अनेकों हैं, पर गायत्री मन्त्र की विशेषता इसलिए अधिक है कि इसमें अक्षरों का गुंथन बड़े ही चमत्कारी एवं शक्तिशाली ढंग से बन पड़ा है। एक के बाद एक अक्षर ऐसे क्रम से गुथा है कि इनके उच्चारण से सितार के तार की तरह अनायास ही एक आध्यात्मिक संगीत भीतर ही भीतर गूँजता है। जिस गुंजन से आध्यात्मिक जगत के अनेकों पत्ते अपने आप कमल पुष्प की तरह खुलते चले जाते हैं और उसका परिणाम जप करने वाले के लिए उच्चकोटि के योगाभ्यास की तरह बहुत ही मंगलमय होता है।

दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं, मेघ मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है, वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगता है, मृग सुधि-बुधि भूल जाते हैं, गाएँ अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जाग्रत हो जाते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने की शब्द ध्वनि से लोहे के पुल तक गिर सकते हैं, इसलिए पुलों को पार करते समय सेना को कदम मिलाकर न चलने की हिदायत कर दी जाती है। अमेरिका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तांत्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और बाजे से सर्प, बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कंठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह कि शब्दों के कंपन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं, तो उनमें अपने प्रकार की विशेष विद्युत शक्तियाँ भरी होती हैं और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उन शक्तियों का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मंत्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मंत्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मंत्रोच्चारण में मुख के सौ अंग क्रियाशील होते हैं, उन भागों के नाड़ी तंतु कुछ विशेष ग्रंथियों को गुदगुदाते हैं, उनमें स्फुरण होने से एक वैदिक छंद का क्रमबद्ध यौगिक संगीत प्रभाव ईथर तत्त्व में फैलता है औरअपनी कुछ क्षणों में पूरी होने वाली विश्व परिक्रमा से वापस आते-आते एक स्वजातीय तत्त्वों की सेना वापस ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होती है। शब्द- संगीत के शक्तिमय कंपनों का पंचभौतिक प्रवाह और आत्मशक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया संबंध, यह दोनों ही कारण गायत्री शक्ति को ऐसी बलवान बनाते हैं, जो साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होती है।

गायत्री मंत्र को और भी अधिक सूक्ष्म बनाने वाला कारण है, साधक का श्रद्धामय विश्वास। विश्वास की शक्ति से भी मनोवैज्ञानिक वेत्ता परिचित हैं। केवल विश्वास के आधार पर लोग भय की वजह से अकारण काल के मुख में गये और विश्वास के कारण मृत प्रायः लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास ने भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ् गाते हुए श्रद्धा और विश्वासपूर्वक आराधना की है। शब्द विज्ञान और आत्म-संबंध दोनों महत्ताओं से संयुक्त गायत्री का प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्ध होती है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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गायत्री की गुप्त शक्ति

गायत्री मंत्र सनातन एवं अनादि है। पुराणों में कहा गया है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ था। इसी की साधना का तप करके सृष्टि-निर्माण की शक्ति उन्हें प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया है। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं। गायत्री को जानने वाला, वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के २४ अक्षर अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएँ मनुष्य जाति को दी गयी हैं, उन सबका सार इन २४ अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख शांति को पूर्णरूप से प्राप्त कर सकता है। 

गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधारशिलाएँ हैं। इन सबमें गायत्री का स्थान सर्वप्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया, उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।

समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। समस्त ऋषि, मुनि मुक्त कंठ से गायत्री का गुणगान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला इतना साहित्य भरा है कि उसका संग्रह किया जाय, तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है- गायत्री छन्दसामहम अर्थात गायत्री छंद मैं स्वयं ही हूँ।

गायत्री उपासना के साथ-साथ अन्य कोई उपासना करते रहने में कोई हानि नहीं। सच तो यह है कि अन्य किसी भी मंत्र का जप करने में- देवता की उपासना में तभी सफलता मिलती है, जब पहले गायत्री द्वारा उस मंत्र या देवता को जाग्रत कर लिया जाय।

गायत्री की साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं, आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रगट होता है और अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। जिस प्रकार दर्पण साफ कर देने पर उसका मैल छूट जाता है, उसी प्रकार गायत्री साधना से आत्मा निर्मल एवं प्रकाशवान होकर ईश्वरीय गुणों, सामर्थ्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाती है।

आत्मा के कल्याण की अनेक साधनाएँ हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है और उनके परिणाम भी अलग-अलग हैं। स्वाध्याय से सन्मार्ग की जानकारी होती है। सत्संग से स्वभाव और संस्कार बनते हैं। कथा सुनने से सद्भावनाएँ जाग्रत होती हैं। तीर्थयात्रा करने से भावांकुर पुष्ट होते हैं। कीर्तन से तन्मयता का अभ्यास होता है। दान-पुण्य से सौभाग्यों की वृद्धि होती है। पूजा-अर्चना से आस्तिकता बढ़ती है। इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच-समझ कर प्रचलित किये हैं; पर तप का महत्त्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्रि में पडक़र ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल पैदा होता है, जिसके द्वारा सांसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल हो सकती हैं। तप की सामर्थ्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसीलिए तप साधन को सबसे अधिक शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से तेज, प्रकाश, बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।

गायत्री उपासना प्रत्यक्ष तपश्चर्या है, इससे तुरंत आत्मबल बढ़ता है। गायत्री साधना एक बहुमूल्य दिव्य संपत्ति है। इस संपत्ति को इकट्ठी करके साधक उसके बदले में सांसारिक सुख एवं आत्मिक आनन्द भली प्रकार प्राप्त कर सकता है।

गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामंत्र की उपासना आरंभ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आत्मिक क्षेत्र में एक नई हलचल एवं रद्दोबदल आरंभ हो गयी है। सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होने से दुर्गुण, कुविचार, दुरूस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरंभ हो जाते हैं और प्रेम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, उदारता, प्रेम, संतोष, शांति, सेवाभाव, आत्मीयता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन व दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव एवं आचरण से संतुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में उनका निवास होता है, वहीं आत्मसंतोष की परम शांतिदायक शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते हैं। गायत्री साधना से साधक के मनःक्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान और ऋतंभरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्ट साध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों से जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल-सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संतोष, संयम और ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी वह अपने आनंद का मार्ग ढूँढ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है। 

प्राचीनकाल में ऋषियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और योग साधनाएँ करके अणिमा, महिमा आदि चरम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनके शाप और वरदान सफल होते थे तथा वे कितनी अद्भुत एवं चमत्कारी सामर्थ्यों से भरे-पूरे थे, इनका वर्णन इतिहास, पुराणों में भरा पड़ा है। वह तपस्याएँ और योग साधनाएँ गायत्री के आधार पर ही होती थीं। गायत्री महाविद्या से ही ८४ प्रकार की महान योग साधनाओं का उद्भव हुआ है।

(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य)

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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