गणेशशंकर विद्यार्थी ने जब ‘प्रताप’ का प्रकाशन आरंभ किया, तब वे 22-23 वर्ष के युवक ही थे। वे न केवल तिलक, गांधी, एनी बेसेंट के अनुयायी थे, वरन सभी क्रांतिकारी नवयुवकों से भी परिचित थे। उन दिनो कानपुर क्रांतिकारी आंदोलन का मुख्य केंद्र था। बटुकेश्वरदत्ता, विजयकुमार, रामदुलारे जैंसे कितने ही क्रांतिकारी विद्यार्थी जी के अनन्य मित्रों में से थे। आजाद एवं भगत सिंह ने भी उनके यहा कई बार आश्रय लिया। भगतसिंह ने तो 1924 में महीनों तक ‘बलवंतसिंह’ नाम रखकर ‘प्रताप’ के संपादकीय विभाग में काम किया। काकोरी के शहीदों के लिए विद्यार्थी जी ने जो कुछ भी अपनी बेबाक लेखनी से लिखा, वह अधिकारियों ने पढ़ा और विद्यार्थी जी एवं उनका ‘प्रताप’ उनकी हिट लिस्ट में आ गया। उन्हीं दिनो कानपुर में भयंकर दंगा फैला। इसके पीछे सरकार का हाथ था, यह सुनिश्चित दिखाई दे रहा था। उसने इतना बड़ा रूप धारण कर लिया कि चार दिन में ही 500 से अधिक व्यक्ति मारे गए। विद्यार्थी जी ने स्थान-स्थान पर जाकर दंगों को शान्त करने की कोशिश की। कई हिंदू मुहल्लों में घिरे मुसलमान भाइयों को उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया, पर धर्मान्ध उन्मत्त लोगों ने उनको घेर लिया और इन्हें मार डाला। 1890 में जन्में विद्यार्थी का 1939 में इस तहर चले जाना बड़ा दुखद था, पर वे शहीद हो गए राष्ट्रीय एकता के लिए।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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