ऐसी सामाजिक रीति-नीति, प्रथा-परम्परा हमें विकसित करनी चाहिए । धन का मान घटाया जाय और मनुष्य का मूल्यांकन उसके उच्च-चरित्र एवं लोक-मंगल के लिए प्रस्तुत किये त्याग, बलिदान के आधार पर किया जाये । सभी को सम्मान इसी आधार पर मिले । कोई व्यक्ति कितना ही धनी क्यों न हो इस कारण सम्मान प्राप्त न कर सके कि वह दौलत का अधिपति है । उचित तो यह है कि ऐसे लोगों का मूल्य और सम्मान लोक-सेवियों की तुलना में बहुत घटाकर रखा जाय । धन के कारण सम्मान मिलने से लोग अधिक अमीर बनने और किसी भी उपाय से पैसा कमाने को प्रेरित होते हैं । यदि धन का सम्मान गिर जाय, संग्रह को कंजूसी और स्वार्थपरता का प्रतीक मानकर तिरस्कृत किया जाय तो फिर लोग धन के पीछे पागल फिरने की अपेक्षा-सामाजिक सम्मान प्राप्त करने के लिए सत्कर्मों की और प्रवृत होने लगेंगे ।
सादगी को सराहा जाय और उद्धत वेशभूषा एवं भडक़ीली श्रृंगार-सज्जा एवं चित्र-विचित्र बनावट को ओछेपन का प्रतीक माना जाय और जो बचकानी श्रृंगारिकता, भौंड़ी फैशन, अर्द्धनग्ना, हिप्पी साज-सज्जा पनपी है उसे तिरस्कृत किया जाना चाहिए । केवल सत्त्प्रवृत्तियॉं सराही जायें, उन्हीं की चर्चा की जाये और उन्हीं को ही सम्मानित किया जाय ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य