राजा जनक विदेह कहलाते हैं देह से परे जीने वाले विदेह। अनेक ऋषि-मुनियों ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया हैं एवं उनका उल्लेख करते हुए निष्काम कर्म, निर्लिप्त जीवन जीने वाला बताया हैं। अगणित लोगों को उन्होने ज्ञान का शिक्षण दिया। एक गुरू ने अपने शिष्य को व्यावहारिक ज्ञान की दीक्षा हेतु राजा जनक के पास भेजा। शिष्य उलझन में था कि मैंने इतने सिद्ध गुरूओं के पास शिक्षण लिया। भोग-विलासों में रह रहा राजा मुझे क्या उपदेश देगा ! जनक ने शिष्य के रहने की बड़ी सुंदर व्यवस्था की। सुंदर सुकोमल बिस्तर, किंतु शयनकक्ष में पलंग के ठीक ऊपर एक नंगी तलवार पतले धागे से लटकती देखी, तो वह रात भर सो न सका। सोचता रहा कि गुरूदेव ने कहां फंसा दिया, जनक से शिकायत की ! कि नींद क्या आती-आपके सेवकों ने तलवार लगी छोड़ दी थी। इससे अच्छी नींद तो हमें हमारी कुटी में आती थी। जनक ने कहा-‘‘चलो आओ। रात की बात छोड़ो, भोजन कर लेते हैं। ‘‘सुस्वादु भोजनों का थाल सामने रखा गया। राजा बोले-‘‘आराम से भोजन करें, पर आप अपने गुरू का संदेश सुन लें। उन्होंने कहा हैं कि शिष्य को सत्संग में ज्ञान प्राप्त होना जरूरी हैं। यदि न हो तो उसे आप सूली पर चढ़ा दें। आपको बताना था, सो बता दिया। अब आप भोजन करें। ‘‘भोजन तो क्या करता, उसे सूली ही दिखाई दे रही थी। बेमन से थोड़ा खाकर उठ गया। बोला-‘‘महाराज ! अब आप किसी तरह प्राण बचा दें।‘‘ जनक बोले-‘‘आप सत्संग की चिंता न करें, वह तो हो चुका। रात आप सो न सके, किंतु मुझे तो नंगी तलवार की तरह हर पल मृत्यु का ही ध्यान बना रहता हैं। अतः मैं रास-रंग में डूबता नहीं। सूली की बात सुनकर तुम्हें स्वाद नहीं आया। इसी प्रकार मुझे भी इस शाश्वत संदेश का सदा स्मरण रहता है। मैं माया के आकर्षणों में कभी लिप्त नहीं होता। संसार में रहो अवश्य, पर संसार तुममे न रहे। यही सबसे बड़ा शिक्षण लेकर जाओ।’’ अब शिष्य को ज्ञान हुआ कि जनक विदेह क्यों कहलाते हैं।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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