पानी से भरा कलश सजा हुआ था उस पर चित्रकारी भी की गई थी। कलश पर एक कटोरी रखी थी, जिससे उसे ढक कर रख गया था। कटोरी ने कलश से कहा-‘‘भाई कलश ! तुम बड़े उदार हो। तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बरतन आए, तुम उसमें अपना जल उंड़ेंल देते हो। किसी को खाली नहीं जाने देते। ‘‘ कलश ने कहा-‘‘हां, यह तो मेरा कर्तव्य हैं। मैं अपने पास आने वाले हर पात्र को भर देता हूं। मेरे अंतस् का सब कुछ दूसरों के लिए हैं।’’ कटोरी बोली-‘‘लेकिन आप कभी मुझे नहीं भरते। मैं तो हमेशा आपके सिर पर मौजूद रहती हूं।’’ घट बोला-‘‘इसमें मेरा क्या दोष ! दोष तुम्हारे अभिमानी स्वभाव का हैं। तुम मान-अभिमान की चाह के साथ सदा मेरे सिर पर चढ़ी रहती हों, जबकि अन्य पात्र मेरे समक्ष आकर झुक जाते हैं अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं। तुम भी अभिमान छोड़ो, विनम्र बनो, मैं तुम्हें भी भर दूंगा।’’
वस्तुतः पूर्णत्व नम्रता एंव पात्रता के विकास से ही प्राप्त होता हैं। कोई भी अनुदान बिना सौजन्य के नहीं मिलता। अभिमान ही सबसे बड़ी बाधा हैं।
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