शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

अच्छे विचार रखना भीतरी सुन्दरता है ...

1) अच्छे एवं महान् कहे जाने वाले सभी प्रयास-पुरुषार्थ प्रारम्भ में छोटे होते है।
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2) अच्छे विचार मनुष्य को सफलता और जीवन देते है।
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3) अच्छे विचार रखना भीतरी सुन्दरता है।
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4) अच्छे जीवन की एक कुँजी हैं- अपनी सर्वश्रेष्ठ योग्यता को चुनना और उसे विकसित करना।
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5) अच्छे लोगों की संगत अच्छा सोचने की पक्की गारंटी है।
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6) अतीत से सीखो, वर्तमान का सदुपयोग करो, भविष्य के प्रति आशावान रहो।
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7) अर्जन का सदुपयोग अपने लिए नहीं ओरो कि लिए हो। इस भावना का उभार धीरे-धीरे व्यक्तित्व को उस धरातल पर लाकर खडा कर देता है, जहाँ वह अनेक लोगो को संरक्षण देने लगता है।
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8) अन्धकार में भटकों को ज्ञान का प्रकाश देना ही सच्ची ईश्वराधना है।
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9) अनीतिपूर्ण चतुरता नाश का कारण बनती है।
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10) अनाचार बढता हैं कब, सदाचार चुप रहता है जब।
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11) अनवरत अध्ययन ही व्यक्ति को ज्ञान का बोध कराता है।
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12) अनुकूलता-प्रतिकूलता में राजी-नाराज होना साधक के लिये खास बाधक है। राग-द्वेष ही हमारे असली शत्रु है। राग ठन्डक है, द्वेष गरमी हैं, दोनो से ही खेती जल जाती है।
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13) अनुकूलता-प्रतिकूलता विचलित करने के लिये नहीं आती, प्रत्युत अचल बनाने के लिये आती है।
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14) अनुभव संसार से एकत्रित करें और उसे पचानेके लिये एकान्त में मनन करे।
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15) अनुभवजन्य ज्ञान ही सत्य है।
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16) अनुशासित रहने का अभ्यास ही भगवान की भक्ति है।
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17) अन्त समय सुधारना हो तो प्रतिक्षण सुधारो।
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18) अन्तःकरण की मूल स्थिति वह पृष्ठभूमि हैं, जिसको सही बनाकर ही कोई उपासना फलवती हो सकती हैं। उपासना बीज बोना और अन्तःभूमि की परिष्कृति, जमीन ठीक करना हैं। इन दिनों लोग यही भूल करते हैं, वे उपासना विधानों और कर्मकाण्डो को ही सब कुछ समझ लेते हैं और अपनी मनोभूमि परिष्कृत करने की ओर ध्यान नहीं देते।
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19) अन्तःकरण की पवित्रता दुगुर्णो को त्यागने से होती है।
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20) अन्तःकरण की सुन्दरता साधना से बढती है।
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21) अन्तःकरण की आवाज सुनो और उसका अनुसरण करों।
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22) अन्तःकरण को कषाय-कल्मषों की भयानक व्याधियों से साधना की औषधि ही मुक्त कर सकती है।
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23) अन्तःकरण में ईश्वरीय प्रकाश जाग्रत करना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है।
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24) अन्तःकरण ही बाहर की स्थिति को परिवर्तित करता है।

आज का जीवन बीते कल की परछाई है ...

1) आत्मा का साक्षात्कार ही मनुष्य की सारी सफलताओं का प्राण है। यह तभी संभव है, जब मानव अपने वर्तमान जीवन को श्रेष्ठ, उदार तथा उदात्त भावनाओं से युक्त करने का प्रयास करता है।
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2) आत्मज्ञान, आत्मविश्वास और आत्मसंचय यही तीन जीवन को बल एवं शक्ति प्रदान करते है।
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3) औरों की अच्छाइयाँ देखने से अपने सद्गुणों का विकास होता है।
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4) आज का जीवन बीते कल की परछाई है।
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5) आज प्रदर्शन हमारे मन में इतना गहरा बैठ गया हैं कि हम दर्शन करना भूलते जा रहे है।
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6) आज जो न्याय हैं, कल वही अन्याय साबित हो सकता है।
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7) आज लोग अपना अधिकार तो मानते हैं, पर कर्तव्य का पालन नहीं करते। अधिकार तो कर्तव्य का दास है।
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8) आज, दो कल के बराबर है।
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9) आनन्द का मूल सन्तोष है।
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10) आनन्द गहरे कुएँ का जल है, जिसे उपर लाने के लिए देर तक प्रबल पुरुषार्थ करना पडता है। मोती लाने वाले गहराई में उतरते और जोखिम उठाते है। आनन्द पाने के लिए गौताखोरों जैसा साहस और कुँआ खोदने वालों जैसा संकल्प होना चाहिए।
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11) आलस्य परमेश्वर के दिए हुए हाथ-पैरो का अपमान है।
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12) आलस्य दरिद्रता का दूसरा नाम है।
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13) अस्त-व्यस्त रीति से समय गॅवाना अपने ही पैरों पर कुल्हाडी मारना है।
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14) असली आत्मवेत्ता अपने आदर्श प्रस्तुत करके अनुकरण का प्रकाश उत्पन्न करते हैं और अपनी प्रबल मनस्विता द्वारा जन-जीवन में उत्कृष्टता उत्पन्न करके व्यापक विकृतियों का उन्मूलन करने की देवदूतो वाली परम्परा को प्रखर बनाते है।
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15) अव्यवस्थित और असंयत रहकर सौ वर्ष जीने की अपेक्षा, ज्ञानार्जन करते हुए और धर्मपूर्वक एक वर्ष जीवित रहना अच्छा है।
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16) अवसर हाथ से मत जाने दो।
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17) अवसर उन्ही को मिलते हैं, जो स्पष्ट ध्येय बनाकर अपनी जीवन यात्रा का निर्धारण सही तरीके से, सही समय पर कर लेते है।
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18) अच्छी शिक्षा का आदर्श हमें नीति निपुण सर्व आत्मभावनादायक विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति दया, सेवा, अपनत्व, भलाई आदि गुण स्वभाव संस्कार वाले बनाना है।
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19) अच्छी शिक्षा क्या हैं तो इसका जवाब होगा ऐसी शिक्षा जो अच्छा इन्सान बनाये और वो इन्सान उत्तम आचरण करे। - प्लेटो।
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20) अच्छी पुस्तकें मनुष्य को धैर्य, शान्ति और सान्त्वना प्रदान करती है।
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21) अच्छी नसीहत मानना अपनी योग्यता बढाना है।
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22) अच्छा शासक वही बन सकता हैं, जो खुद किसी के अधीन रह चुका हो।
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23) अच्छाई का अभिमान बुराई की जड है।
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24) अच्छाई के अहं और बुराई की आसक्ति दोनो से उपर उठ जाने में ही सार्थकता है।
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आदमी वह ठीक हैं जिसका इरादा ठीक है ...

1) आध्यात्मिक विकास की सबसे बडी बाधा मनुष्य के अहंकार पूर्ण विचार ही है।
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2) आध्यात्मिक साधनाएँ बरगद के वृक्ष की तरह घीरे-धीरे बढती हैं, पर होती टिकाउ है।
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3) आध्यात्मिक वातावरण श्रेष्ठतर मानव जीवन को गढने वाली प्रयोगशाला है।
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4) आधा भोजन दुगुना पानी, तिगुना श्रम, चैगुनी मुस्कान
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5) आकांक्षा एक प्रकार की चुम्बक शक्ति हैं, जिसके आकर्षण से अनुकूल परिस्थितियाँ खिंची चली आती है।
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6) आप ढूँढे तो परेशानी का आधा कारण अपने में ही मिल जाता है।
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7) आपका व्यवहार गणित के शून्य की तरह होना चाहिये, जो स्वयं में तो कोई कीमत नहीं रखता लेकिन दूसरो के साथ जुडने पर उसकी कीमत बढा देता है।
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8) अज्ञान ही वह प्रधान बाधा हैं, जिसके कारण हम अपने लक्ष्य की ओर नही बढ पाते है।
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9) अज्ञान से मुक्ति ही सबसे बडा पुरुषार्थ हैं, सारे कर्मो का मर्म है।
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10) अज्ञानी रहने से जन्म न लेना अच्छा हैं, क्योंकि अज्ञान सब दुःखों की जड है।
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11) अज्ञानी दुःख को झेलता हैं और ज्ञानी दुःख को सहन करता हैं 
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12) आस्थाहीनता व्यक्ति को अपराध की ओर ले जाती है।
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13) आदमी वह ठीक हैं जिसका इरादा ठीक है।
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14) आदर-निरादर शरीर का और निन्दा-प्रशंसा नाम की होती हैं। आप इनसे अलग है।
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15) आत्मविद्या इस संसार की सबसे बडी विद्या और विश्व मानव की सुख-शान्ति के साथ प्रगति-पथ पर अग्रसर होते रहने की सर्वश्रेष्ठ विधि व्यवस्था है। किन्तु दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस संसार में प्राण-दर्शन की बडी दुर्गति हो रही हैं और इस विडम्बना के कारण समस्त मानव जाति को भारी क्षति उठानी पड रही है।
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16) आत्म ज्ञान का सूर्य प्रायः वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता हैं, पर जब कभी, जहाँ कहीं वह उदय होगा, वहीं उसकी सुनहरी रश्मियां एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देगी।
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17) आत्मबल का पूरक परमात्मबल है।
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18) आत्मविश्वास हो तो सफलता की मंजिल दूर नहीं।
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19) आत्मविश्लेषण किया जाए, तो शांति इसी क्षण, अभी और यहीं उपलब्ध है।
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20) आत्मविश्वास महान् कार्य करने के लिये सबसे जरुरी चीज है।
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21) आत्मनियन्त्रण से असीम नियन्त्रण शक्ति प्राप्त होती है।
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22) आत्मीयता का अभ्यास करने की कार्यशाला अपना घर है।
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23) आत्मा की पुकार अनसुनी नहीं करे।
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24) आत्मा का निर्मल रुप सभी ऋद्धि-सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।

आध्यात्मिक कैसे बना जा सकता हैं ?...

आध्यात्मिक कैसे बना जा सकता हैं ? पूजा-अर्चा प्रतीक मात्र हैं, जो बताती हैं कि वास्तविक उपासक का स्वरुप क्या होना चाहिए और उसके साथ क्या उद्धेश्य और क्या उपक्रम जुडा रहना चाहिए। देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहाँ हमें दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिए प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराता हैं। पुष्प चढाने का तात्पर्य यह हैं कि जीवन क्रम को सर्वांग सुन्दर, कोमल, सुशोभित रहने में कोई कमी न रहने दी जाये। अक्षत चढाने का तात्पर्य हैं कि हमारे कार्य का एक नियमित अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिये लगता रहेगा। चन्दन लेपन का तात्पर्य हैं कि सम्पर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगंध बनकर अधिक विकसित हो। नैवेद्य चढाने का तात्पर्य है, अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना। जप का उद्धेश्य हैं अपने मनः क्षेत्र में निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने की निष्ठा का समावेश करने के लिए उसकी रट लगाये रहना। ध्यान का अर्थ हैं अपनी मानसिकता को लक्ष्य विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किये रहना। प्राणायाम का प्रयोजन अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान, प्रखर प्रतिभा सम्पन्न बनाये रखना। समूचे साधना विज्ञान का तत्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत हैं कि जीवन चर्या का बहिरंग और अंतरंग पक्ष निरन्तर मानवी गरिमा के उपयुक्त ढाँचे में ढलता रहे। कषाय-कल्मषों के दोष-दुर्गुण जहाँ भी छिपे हुए हो उनका निराकरण होता चले। 

आध्यात्मिक काम विज्ञान

आध्यात्मिक काम विज्ञानः- प्रजनन प्रक्रिया के मूल में छिपी पवित्रता को पहचाना जाना चाहिए। नर और नारी दोने मिलकर एक व्यवस्थित शक्ति का रुप धारण करते हैं। जब तक यह मिलन न हो, चेतना व गति उत्पन्न ही न होगी। कामबीज का दुरुपयोग न कर उसका परिष्कार किया जाना चाहिए। नर-नारी का निर्मल सामीप्य ही आध्यात्मिक काम विज्ञान है।

स्वयं का कल्याण

1) अपने मन को केवल दूसरों के कल्याण की भावना देते रहने मात्र से स्वयं का कल्याण हो जायेगा।
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2) अपने मन में वजनदार निर्भयता या प्रेम भावना हो तो घने जंगलो में भी आनन्द से रहा जा सकता है।

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3) अपने मूल्यांकन की एक ही कसौटी हैं- सद्गुणों का विकास और इनका एकमात्र सच्चा स्त्रोत हैं- व्यक्ति की पवित्र भावना। यह भावना जिसमें जितनी हैं, उसमें उसी के अनुरुप सद्गुणो की फसल लहलहायेगी। यदि भावना में कलुष हैं तो वहाँ पर दुर्गुणो को फलते-फूलते देर न लगेगी।

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4) अपने मित्रों को एकान्त में भला बुरा कहो, परन्तु उनकी प्रशंसा सबके सम्मुख करो।

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5) अपने सिद्धान्त पर जीने की शर्त के लिये त्याग आवश्यक है।

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6) अपने विश्वास की रक्षा करना, प्राण रक्षा से भी अधिक मूल्यवान है।

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7) अपने विचारों को लिखें, आखिर एक छोटी सी पेन्सिल, लम्बा याद रखने से बेहतर है।

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8) अपने निकट सम्बन्धी का दोष सहसा नहीं कहना चाहिये, कहने से उसको दुःख हो सकता हैं, जिससे उसका सुधार सम्भव नही।

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9) अपने पर विश्वास करना आस्तिकता की निशानी है।

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10) अपने शत्रुओं की बातों पर सदैव ध्यान दीजिये, क्योकि तुम्हारी कमजोरियों को उनसे अधिक कोई नही जानता है।

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11) अपने स्वार्थ से पहले दूसरों के लाभ का भी ध्यान रखना चाहिये।

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12) अपने सुख-दुःख का कारण दूसरों को न मानना चाहिये।

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13) अपने उपर विजय प्राप्त करना सबसे बडी विजय है।

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14) अपने दृष्टिकोण को सदा पवित्र रखे।

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15) अपने दोष-दुर्गुण खोजें एवं उसे दूर करे।

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16) अपने दोषो की ओर से अनभिज्ञ रहने से बडा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।

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17) अपने दोषो को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये।

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18) अपने दोष ही अंततः विनाशकारी सिद्ध होते है।

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19) अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कारित और चरित्र को परिष्कृत बनाने वाले साधक को गायत्री महाशक्ति मातृवत् संरक्षण प्रदान करती है।

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20) अपने जीवन को अन्तरात्मा द्वारा निर्धारित उच्चतम मानदण्डो पर जीने का प्रयास करे।

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21) अपने आपको जानना हैं, दूसरों की सेवा करना हैं और ईश्वर को मानना हैं। ये तीनो क्रमशः ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग है। साथ में योग (समता) का होना आवश्यक है।

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22) अपने आचरण से शिक्षा देने वाला आचार्य कहलाता है।

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23) अपने गुण कर्म स्वभाव का शोधन और जीवन विकास के उच्च गुणों का अभ्यास करना ही साधना है।

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24) आराधना के समय उन लोगो से दूर रहो, जो भक्त और धर्मनिष्ठ लोगो का उपहास करते हो।

‘‘नकारात्मक विचारों का प्रवेश बन्द’’...

1) अपनी पीडा सह लेना और दूसरे जीवों को पीडा न पहुँचाना, यही तपस्या का स्वरुप है।
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2) अपनी प्रशंसा आप न करे, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेगे।
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3) अपनी प्रसन्नता दूसरों की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही प्रेम है।
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4) अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त कर गुरु को सन्तोष देने वाला कष्टसाध्य कार्य में प्रवत्त होना ही सच्ची गुरु भक्ति है।
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5) अपनी सभी आशाओं को ईश्वर पर केन्द्रित कर दो तो कोई व्यक्ति निराश या निरस्त नहीं कर सकता ।
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6) अपनी आस्था ऊँची और सुदृढ हो तो झूठा विरोध देर तक नहीं टिकता। कुमार्ग पर चलने के कारण जो विरोध तिरस्कार उत्पन्न होता हैं, वही स्थिर रहता हैं। नेकी अपने आप में एक विभूति हैं, जो स्वयं को तारती हैं और दूसरे को भी।
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7) अपनी आत्मा की शान में विश्वास न करने वाला वेदान्त की नजरमें नास्तिक है।
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8) अपनी आत्मा ही सबसे बड़ा मार्गदर्शक है।
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9) अपने मानस पटल पर स्पष्टतः अंकित कर दीजिये-‘‘नकारात्मक विचारों का प्रवेश बन्द’’।
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10) अपनी ओर से कुछ चाहना नहीं, किन्तु दूसरे का जो आदेश हो, उसे प्राण-प्रण से पालन करना। इसी का नाम समपर्ण है।
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11) अपनी गलती मान लेना महान् चरित्र का लक्षण है।
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12) अपनी गलती स्वीकार करने में लज्जा की कोई बात नहीं है।
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13) अपना बन कर जब उजियारे छलते हैं, 
अँधियारों का हाथ थामना अच्छा हैं। 
रोज-रोज गर शबनम धोखा दे तो, 
अंगारों का हाथ थामना अच्छा है।
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14) अपना काम अपने हाथ से करो।
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15) अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है।
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16) अपना दुःख भूलकर दूसरो के आनन्द में जुट जाने के सिवाय और दूसरा रास्ता आनंदित होने का इस दुनिया में नहीं है।
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17) अपना आदर करने वालो के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है।
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18) अपना आन्तरिक स्तर परिष्कृत करना ही सर्वश्रेष्ठ तप-साधना है।
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19) अपना-अपना करो सुधार, तभी मिटेगा भ्रष्टाचार।
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20) अपने हृदय में स्थित अन्तर्यामी से सम्पर्क बन जाने के बाद ही जीव निर्भय बन सकता है।
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21) अपने हृदय से किसी को बुरा न समझे, किसी का बुरा न चाहें और किसी का बुरा न करे। यह नियम ले लें तो आपकी सब बुराई मिट जायेगी और बडा भारी लाभ होगा।
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22) अपने इष्टदेव के ढाँचे में ढलने का प्रयत्न करना ही सच्ची भगवद्भक्ति है।
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23) अपने को ऊँचा बनाने का भाव राक्षसी, आसुरी भाव हैं । दूसरों को ऊँचा बनाने का भाव दैवी भाव है।
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24) अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को बुधवार व शुक्रवार के अतिरिक्त अन्य दिनो में क्षौर कर्म नहीं करना चाहिए।

अहंकारी सदैव उलटा सोचता हैं ...

1) अभिलाषा के बिना पौरुष जाग्रत नही होता और पुरुषार्थ के बिना कोई महत्वपूर्ण सफलता कठिन है।
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2) अविश्वास धीमी आत्म हत्या है।
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3) अविश्वास, अकर्मण्यता, ईर्ष्या, असंतोष, मन की चंचलता तथा ऐसे अनेको मनोजनित रोग केवल भय की ही विभिन्न स्थितियाँ है।
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4) अविवेकशील मनुष्य दुःख को प्राप्त होते है।
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5) अनिश्चितता और विलम्ब असफलता के माता-पिता है।
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6) अहं की भावना रखना एक अक्षम्य अपराध है।
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7) अहंकार को मिटा देने से भगवान मिल जाते है।
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8) अहंकार को गलाने के लिये निष्काम सेवाभाव एकमात्र उपाय है।
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9) अहंकार विहीन प्रतिभा जब अपने चरमोत्कर्ष को छूती हैं तो वहाँ ऋषित्व प्रकट होता है।
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10) अहंकार समस्त महान् गलतियों की तह में होता है।
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11) अहंकार अज्ञानता की पराकाष्ठा है।
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12) अहंकारी सदैव उलटा सोचता हैं तथा अत्यधिक क्रोधी भी बन जाता है।
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13) अहंकारी और अधिकार के मद में चूर व्यक्ति कभी किसी को प्रेरणा नहीं दे पाता है।
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14) अहंता बडप्पन पाने की आकांक्षा को कहते हैं, दूसरों की तुलना में अपने को अधिक महत्व, श्रेय, सम्मान, मिलना चाहिये। यही हैं अहंता की आकांक्षा।
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15) अहम् का त्याग होने पर व्यक्तित्व नहीं रहता।
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16) अहमन्यता एक प्रकार की जोंक हैं, उससे पीछा छुडाने के लिये ऐसे छोटे काम अपने हाथे से करने होते हैं, जिन्हे आमतौर से छोटे लोगों द्वारा किया जाने योग्य समझा जाता है।
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17) अभक्ष्य आहार से जिव्हा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट हो जाती है।
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18) अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की आखिरी सीमा है।
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19) अपराध करने के बाद भय पैदा होता हैं और यही उसका दण्ड है।
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20) अपनी बुराई अपने इसी जीवन में मरने दो।
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21) अपनी मान्यताओं को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर आलोचना नहीं करनी चाहिये।
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22) अपनी विद्वता पर अभिमान करना सबसे बडा अज्ञान है।
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23) अपनी भूख मार कर जो भिखारी को भीख दे वही तो दाता है।
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24) अपनी भूल अपने ही हाथों सुधर जायें, तो यह उससे कहीं अच्छा हैं कि कोई दूसरा उसे सुधारे।

अपनी बुद्धि को कम मत आँकिये ...

अपनी बुद्धि को कम मत आँकिये:- अपनी खुद की बुद्धि को कभी कम मत आँकिये, अपनी सेवाओं को मूल्यवान कार्यो में लगाइये। अपने अच्छे बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित कीजिये। अपने गुणों को खोजिये। 

याद रखें, महत्व इस बात का नहीं हैं कि आप में कितनी बुद्धि हैं। महत्व इस बात का हैं कि आप अपने दिमाग का किस तरह इस्तेमाल करते हैं। इस बात पर सिर मत धुनिए कि आपका आई.क्यू कम हैं बल्कि अपनी मानसिकता को सकारात्मक कीजिये। अपने आप को बार-बार याद दिलाइए- मेरी बुद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं मेरा नजरिया। नौकरी पर और घर पर सकारात्मक नजरिए का अभ्यास करें। काम टालने के तरीके खोजने के बजाय काम करने के तरीके खोजे। अपने आप में मैं जीत रहा हूँ का रवैया विकसित करे। अपनी बुद्धि का रचनात्मक और सकारात्मक उपयोग कीजिये। अपनी बुद्धि का प्रयोग इस तरह कीजिए कि आप जीत सके। अपनी बुद्धि का दुरुपयोग अपनी असफलता के अच्छे बहाने खोजने में मत कीजिए। तथ्यों को रटने से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य हैं सोचने की योग्यता। अपने दिमाग को रचनात्मक बनाइये और नए-नए विचार आने दीजिये। काम करने के नए और बेहतर तरीके खोजते रहिये। खुद से पूछिए, क्या में अपनी मानसिक क्षमता का उपयोग इतिहास रचने में कर रहा हूँ, या इतिहास रटने में ?

तिलक, बिंदिया ...

अधिकांश महिलाओं का मन स्वाधिष्ठान और मणिपुर केन्द्र में रहता है, इन केन्द्रो में भय, भाव और कल्पनाओं की अधिकता रहती है। इन भावनाओं तथा कल्पनाओं में महिलाएँ बह न जाए, उनका शिव नेत्र, विचार शक्ति का केन्द्र विकसित हो इस उद्धेश्य से ऋषियों ने सतत तिलक, बिंदिया की व्यवस्था की है।

सच्ची शिक्षा ...

अक्षर ज्ञान शिक्षा नहीं, शिक्षा से मेरा मतलब हैं बच्चें या मनुष्य की तमाम शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियों का सर्वतोंमुखी विकास। अक्षर ज्ञान शिक्षा का न तो आरम्भ हैं और न लक्ष्य हैं। वह तो उन अनेक उपायों में से एक हैं जिनके द्वारा स्त्री-पुरुषों को शिक्षित किया जा सका हैं। खुद अक्षर प्रचार को शिक्षा कहना गलत हैं। सच्ची शिक्षा तो स्कूल छोडने के बाद शुरु होती हैं। जिसने इसका महत्त्व समझा हैं वह सदा ही विद्यार्थी हैं। - महात्मा गांधी

जीवन विद्या ...

अध्यात्म कही जाने वाली जीवन-विद्या एक एसा तथ्य हैं, जिसके उपर मानव-कल्याण की आधार-शिला रखी हुई है। उसे जिस सीमा तक उपेक्षित एवं तिरस्कृत किया जायेगा, उतना ही दुःख दारिद्रय बढता जाएगा। हमारी सम्पन्नता, समृद्धि, शान्ति, समर्थता एवं प्रगति का एक मात्र अवलम्बन जीवन विद्या ही हैं। यदि हमें सुखी और प्रगतिशील होकर जीना हैं तो स्मरण रखा जाना चाहिये कि दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समुचित समन्वय नितान्त अनिवार्य हैं। इसकी विमुखता सर्वनाश को सीधा निमन्त्रण देने के बराबर हैं।

अब तक का इतिहास बताता ...

1) अध्ययन से थोडा ज्ञान ही होगा लेकिन साधना से समग्र ज्ञान हो जाता है।
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2) अध्यापक हैं युग निर्माता, छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।
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3) अध्यात्म एक क्रमबद्ध विज्ञान हैं, जिसका सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति उसी तरह लाभान्वित हो सकता हैं ,जिस तरह कि बिजली, भाप, आग आदि को शक्तियों का विधिवत प्रयोग करके अभीष्ट प्रयोजन पूरा किया जाता है।
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4) अध्यात्म एक नकद धर्म है, जिसे मात्र आत्मशोधन की तपश्चर्या से ही प्राप्त किया जा सकता है।
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5) अध्यात्म क्षैत्र में वरिष्ठता योग्यता के आधार पर नहीं, आत्मिक सद्गुणों की अग्नि परीक्षा में जाँची जाती है। इस गुण श्रंखला में निरहंकारिता को, विनयशीलता को अति महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
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6) अशिक्षितों की अपेक्षा सुशिक्षित ही मानवता के अधिक दूर हैं और वे ही विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न कर के संसार की सुख-शान्ति के लिए अभिषाप बने हुए है।
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7) अध्यात्म का अर्थ ही आत्मनिर्भरता और आत्मिक पूर्णता है।
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8) अध्यात्म मे बहुत ज्यादा बुद्धि का प्रयोग करना अच्छा नहीं होता है।
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9) अध्यात्म में पवित्रता सर्वोपरि है।
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10) अध्यात्म में सारा चमत्कार श्रद्धा का है।
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11) अध्यात्म व्यक्ति को अकर्मण्य नहीं बनाता, वरन् अधिक महत्वपूर्ण और अधिक भारी कार्य कर सकने की क्षमता प्रदान करता है।
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12) अध्यात्म नकद धर्म हैं। आप सही तरीके से इस्तेमाल तो कीजिये।
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13) अभिमान अविवेकी को होता है, विवेकी को नहीं।
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14) अंतमुर्खी व्यक्ति ही आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझ पाता हैं, और उनका साक्षात्कार कर पाता हैं बहिर्मुखता से केवल पदार्थ और संसार की उपलब्धि होती हैं, जो क्षणभंगुर है।
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15) अठारह पुराणों में व्यास जी की दो ही बातें प्रधान हैं-परोपकार पुण्य हैं और दूसरों को पीडा पहुँचाना पाप है।
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16) अब तक का इतिहास बताता, मानव हैं निज भाग्य विधाता।
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17) अकर्मण्य पिछडते हैं और प्रगति से वंचित रहते है।
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18) अकर्मण्यता दरिद्रता की सहेली हैं। जहाँ अकर्मण्यता रहेगी वहाँ किसी न किसी प्रकार दरिद्रता जरुर पहुँच जायेगी।
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19) अकेले से तप, दो से अध्ययन, तीन से गायन, चार से यात्रा, पाँच से खेती और बहुतो से युद्ध भली-भाँति बनता है।
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20) अमंगल करने वाले जो मूहूर्त अथवा योग दोष हैं, वे सब गायत्री के प्रचण्ड तेज से भस्म हो जाते है।
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21) अधिक से अधिक मौन रहने का अभ्यास करिये।
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22) अभिप्राय में उदारता, कार्य सम्पादन में मानवता, सफलता में संयम इन्ही तीन चिन्हो से मानव महान् बन जाता है।
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23) अधिकार को भूलें, कर्तव्य को याद रखे।
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24) अधिकारों का वह हकदार, जिसको कर्तव्यों से प्यार।

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