बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

परिवार को टूटने न दें

परिवार उस यज्ञ की तरह हैं जिसमें सबको अपनी-अपनी आहुतियाँ देनी होती हैं । व्यक्ति उपभोक्ता की बजाय माली की भूमिका निभाए ताकि परिवार रूपी उपवन को बेहतर ढंग से सिंचित किया जा सके ओर आने वाले कल के लिए उत्तम बीज बोये जा सके । इन्सान अपनी वसीयत में सम्पत्ति के साथ संस्कारों के बीज भी बाँटकर जाए। 

सात वार मिलने पर सप्ताह बनता हैं और जब सारे लोग मिलजुलकर रहते हैं तो परिवार बनता हैं। जिस घर में भाई-भाई एक थाली में भोजन करते हैं, वह दोपहर ‘‘होली का उत्सव’’ बन जाती हैं और जब सभी मुस्कराते हुए घर में प्रवेश करते हैं तो वह हर रात घर में ‘‘दीपावली का आनन्द’’ बिखेर दिया करती हैं। परिवार का आँगन मँहगे फर्नीचर और चमकीले मार्बल से नहीं, प्रेम के पानी से हरा-भरा व खुशनुमा रहता हैं। 

परिवार की खुशहाली का राज

मंदिर, मस्जिद जाना धर्म की दूसरी सीढ़ी हैं, पर घर को स्वर्ग जैसा बनाना धर्म की पहली सिखावन हैं। घर के कलह के वातावरण में भी समभाव रखना धर्म की असली कसौटी है। व्यक्ति विश्व प्रेम से पहले परिवार से प्रेम करना शुरू करें। पहले मकान छोटे होते थे, पर दिल बड़े होते, पर अब उलटा हो गया। पहले साथ रहने की कोशिश की जाती थी, पर अब जैसे-तैसे अलग होने की कोशिश की जा रही हैं अलग रहकर स्वतंत्रता तो मिल जाएगी, पर हमारे सुख और संस्कार छिन जाएँगे। 

व्यक्ति भावना व उपयोगिता के सम्बन्ध तो निभा देता हैं, पर कर्तव्य निभाने मे चूक जाता हैं। बेटा वह नहीं होता जिसे माँ-बाप जन्म देते हैं, अंतिम समय तक माँ-बाप की सेवा संभालने वाला ही सपूत कहलाता हैं गर्भपात के युग में भी माँ ने हमे जनम दिया इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता हैं आपने बचपन में उनके बिस्तर गीले किए और आज उनकी आँखे गीली व दिल दुःखा रहे हैं अगर यह आदत ऐसी ही रही तो आपको भी भविष्य में ऐसे दुर्भाग्य का सामना करना पड़ेगा। 

माँ-बाप व भाईयों के जीते-जी अलग होना जीवन में पाप-उदय का परिणाम हैं क्योंकि इससे घर में हानि होती हैं। और दुनिया में हँसी। यही कारण हैं कि अलग रहने वाली देवरानी काम पड़ने पर पीहर नहीं जा सकती क्योंकि पीछे संभालने वाला और कोई नहीं है। 

रिश्तों में दरार क्यों ?

मन और वाणी की कटुता, धन का स्वार्थ, बड़ा होने का ईगो, छोटी-छोटी बातों को मन में गाँठे बना लेने से रिश्तों में दरारें आने लगती हैं। बेटे-बहुओ को चाहिए कि वे बूढ़े माँ-बाप की कड़वी बातों को अन्यथा न लें व उन्हें हर हालत में निभाने का बड़प्पन दिखाएँ। नौ माह गर्भ में रखने व जीवन भर पालन करने वाले बूढ़े माँ-बाप को इसके लिए धन्यवाद दें व कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें। 

सास-बहू पर तानाकशी न करें, गलती होने पर सुधारने की कोशिश करें। सास-बहू आपस में तालमेल बनाये रखें। 

हम ऐसा वृक्ष लगाएँ जिसकी शीतल छाया में हम खुशियों को महकाएँ और परिवार के लोग उसे सींचने का भरसक प्रयत्न करे। 

क्रोध एक ऐसी आग हैं जो स्वर्ग जैसे घर को नरक बना देती हैं और हमारे सुन्दर केरियर को चैपट कर भविष्य को बर्बाद कर देती हैं। गुस्से में व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता हैं और कड़वाहट भरा मुँह खुल जाता हैं। जिसके चलते वर्षों पुराने मधुर संबंधों पर पानी फिर जाता हैं। गुस्सा इंसान की खुशी को खत्म और हँसी की हत्या कर देता हैं क्रोध को जीभ का सहारा मिलते ही वह ज्वालामुखी की तरह भयंकर हो जाता हैं। जिसकी चिनगारियाँ हमारे सारे मन-तन को तनावग्रस्त कर देती है। 

क्रोध का कारण

क्रोध हमेशा दूसरों की गलतियों पर, अपने से छोटे लोगों पर, अहंकार पर चोट लगने व इच्छाओं के विरूद्ध कार्य होने पर आता हैं, पर व्यक्ति स्वयं ठोकर खाकर गिर जाए, खुद के हाथों से बर्तन टूट जाए जैसी स्वयं की गलतियों पर गुस्सा नहीं करता हैं इसलिए इंसान को चाहिए की वह दूसरों पर तत्काल गुस्सा करने की बजाय धीरज और शान्ति को धारण करे।

क्रोध पर विजय का मंत्र

विपरीत माहौल में तुरंत प्रतिक्रिया करने की बजाय उसे कल पर टालें, मौन रहे, या उस स्थान को छोड़ दें। दूसरे की गलती होने पर माफ करें और स्वयं से गलती हो जाए तो माफी माँग लें। गुस्सा आते ही दो गिलास ठंडा पानी पीकर लेट जाए। दूसरों से गुस्सा हो जाने पर मुस्कराए और सकारात्मक टिप्पणी करके बात को मोड़ दे। जो इंसान स्वयं को पेट्रोल बनाने की बजाय पानी की तरह सदा ठंडा और शान्त रखते हैं, गुस्से की आग उनके समीप आते ही ठंडी हो जाती हैं। 

इंसान तैश, तकरार और प्रतिक्रिया की बजाय जीवन में प्रेम, क्षमा और समता को महत्व दे क्योंकि मन में प्रतिक्रिया का चैनल चलाओगे तो जीवन अशांत हो जाएगा और प्रेम का चेनल चलाओगे तो जिंदगी सुख और सुकून भरी हो जाएगी। 

जो इंसान जवानी में गुस्से को मंद और बुढ़ापे में बंद कर देता हैं, वह सदा खुश रहता हें। जलती डाल पर कोई पक्षी बैठना पसंद नहीं करेगा। 

रिश्तों में कैसे लायें मिठास ?

जिस परिवार में प्रेम, त्याग और मर्यादा की भावना नहीं होती, वहीं राहु, केतु व शनि की महादशाएँ हावी होती हैं। घर में सहयोग व समन्वय से रहना ग्रह-दोषों व वास्तु-दोषों को दूर करने का सरल मंत्र हैं। परिवार जिंदगी का वह आठवाँ वार हैं, जिसके सुधरते ही सातों वार सुख, शांति व समृद्धि से भर जाया करते हैं। सास-बहू में तालमेल का अभाव भी रिश्तों के बिखरने का मूल कारण होता हैं। इसलिए सास-बहू जैसे शब्दों को घर से हटा दें। सास बहू को बेटी और बहू सास को माँ कहकर पुकारे और वैसा ही व्यवहार करें ताकि घर में प्रेम, शांति, सद्भाव के फूल खिलें। सास बहू को इतना सम्मान दें कि वह ससुराल गई बेटी की याद बिसरा दें। सास का टोकना चैराहे की लालबत्ती की तरह हैं जो हमें रोकती तो हैं, पर भावी दुर्घटना से बचाती भी हैं। बेहर होगा हम सास और बहू जैसा शब्द ही हटा दे। सास को माँ कहें और बहू को बेटा। यदि हर घर में सास और बहू नामक ये दो प्राणी अगर प्रेम से जीवन जीना सीख जाएँ तो दुनिया की कोई ताकत नहीं हैं जो किसी भी परिवार को तोड़ सके। 

घर का हर सदस्य हृदयवान बनें। ईंट, चूने, सीमेंट, पत्थर से मकान बनता हैं पर माधुर्य, भाईचारा और आपसी समझ घुलने से परिवार (मकान) स्वर्ग जैसा मंदिर बन जाता है। जब वर्ष बीतने पर पुरान कैलेंडर घर में नहीं रखते तो फिर बैर-विरोध की गाँठों को क्यों याद रखा जाए ? घर के सदस्यों को उतना ही महत्व देना चाहिए जितना हम देवदूतों को देते हैं क्योंकि घर के सदस्य दूवदूतों के ही अलग-अलग रूप होते हैं। अगर हम परिजनों को सुख नहीं पहुँचा सकते तो किसी भी सदस्य को दुःख न पहुँचाए।

सबको खुश रखना और किसी के दिल को ठेस न पहुँचाना जीवन की सबसे बड़ी तपस्या हैं। जब नोट की गड्डी में फटे हुए नोट को हम चला देते हैं, फिर परिवार (घर) में किसी सदस्य से गलती होने पर क्षमा क्यों नहीं कर देते ? बड़े छोटों को प्रेम, उपहार देने में कंजूसी न दिखाएं ताकि छोटों को भी बड़ों की सेवा सम्मान करने की प्रेरणा मिल सकें। जिस घर (परिवार) में भाई-भाई प्रेम और मोहब्बत से रहते हैं, देरानी-जेठानी में संतुलन होता हैं, उस घर में स्वयं लक्ष्मीजी मोतियों की चैक पुराती हैं। हमें अपने परिवार के प्रति वहीं नजरिया रखना चाहिए जो नजरिया हम मंदिर के प्रति रखते हैं आखिर घर भी तो मंदिर ही होता हैं। समझौता गमों से कर लो, जिंदगी में गम भी मिलते हैं, पतझर आते ही रहते हैं, मधुबन फिर भी खिलते हैं। 

‘‘सहज मिल सो दूध सम, मांगा मिले सो पानी, 
कह कबीर वह रक्त सम, जामें खींचा तानी’’

‘‘अतः जीवन से जुड़े रहें, अलग न हों।’’

सम्बोधि टाइम्स से साभार

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