गुरुवार, 18 सितंबर 2008

भामाशाह

मेवाड़ की रक्षा के लिये महाराणा प्रताप अंतिम प्रयत्न करते हुए निराश हो गए। महाराणा प्रताप ने दो-चार हजार सैनिकों को लेकर बड़ी बादशाही सेनाओं का मुंह मोड़ दिया। मुगल सल्तनत के साधन बहुत अधिक थें। अंत में ऐसा समय आया, जब प्रताप को अपने साथियों के लिए सूखी रोटी मिलना भी असंभव हो गया। अत: उन्होंने मेवाड़ छोड़कर सिंध की तरफ जाने का निश्चय किया। प्रताप देश त्याग कर अरावली पर्वत को पार कर जाने लगे, तो किसी ने पीछे से पुकारा- ओ मेवाड़पति ! राजपूती वीरता की शान दिखाने वाले ! हिन्दू धर्म के रक्षक ! ठहर जाओ। आगंतुक राज्य के पुराने मंत्री भामाशाह आँखों में आंसू लिए बोले- स्वामी, आप कहाँ जा रहे हैं ? एक बार आप फिर अपने घोड़े की बाग मेंवाड़ की तरफ मोड़िये और नए सिरे से तैयारी करके मातृभूमि का उद्धार करिए। आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त संपत्ति में आपके चरणों में भेंट करता हूँ. भामाशाह के भंडार में इतना धन था कि पच्चीस हजार की सेना का बारह वर्ष तक खर्चा चल सकता था। भामाशाह ने अपना सुख ठुकरा दिया और सारे देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना सब कुछ दान कर दिया।

कृतघ्नता

एक शिकारी हिरन का पीछा करता हुआ आ रहा था। जान बचाने के लिए हिरन अंगूर की लताओं में छिप गया। शिकारी को गया जानकर उसने अंगूर की सारी बेल चर ली, इस पर शिकारी ने उसे देख लिया और मार दिया। मरते समय हिरन कह रहा था कि जो आश्रय देने वाले के साथ कृतघ्नता करता है, उसकी मेरी जैसी ही दशा होती हैं। 

स्वार्थपरता

एक बालक की मृत्यु हो गई । अभिभावक उसे नदी तट वाले श्मशान में ले पहुंचे । वर्षा हो रही थी। विचार चल रहा था कि इस स्थिति में संस्कार कैसे किया जाए।

उनकी पारस्परिक वार्ता में निकट उपस्थित प्राणियों ने हस्तक्षेप किया और बिना पूछे ही अपनी-अपनी सम्मति भी बता दी।

सियार ने कहा, ‘‘ भूमि में दबा देने का बहुत महात्म्य है। धरती माता की गोद में समर्पित करना श्रेष्ठ हैं। ’’कछुये ने कहा, ‘‘गंगा से बढ़कर और कोई तरण-तारणी नहीं। आप लोग शव को प्रवाहित क्यों नहीं कर देते ?’’ गिद्ध की सम्मति थी, ‘‘सूर्य और पवन के सम्मुख उसे खुला छोड़ देना उत्तम है। पानी और मिट्टी में अपने स्नेही की काया को क्यो सड़ाया-गलाया जाए ?’’

अभिभावको को समझते देर न लगी कि तीनों के कथन परामर्श जैसे दीखते हुए भी कितनी स्वार्थपरता से सने हुए है। उनने तीनों परामर्शदाताओं को धन्यवाद देकर विदा कर दिया। बादल खुलते ही चिता में अग्नि संस्कार किया।

मनोबल

महाभारत युद्ध में प्रधान सेनापति कर्ण था। उसे हराना असम्भव ठहराया गया था। चतुरता से उसके बल का अपहरण किया गया। कर्ण का सारथी शल्य था। श्री कृष्ण के साथ तालमेल बिठाकर उसने एक योजना स्वीकार कर ली। जब कर्ण जीतने को होता तब शल्य चुपके से दो बाते कह देता, यह कि-तुम सूत पुत्र हो। द्रोणाचार्य ने विजयदायिनी विद्या राजकुमारो को सिखाई है। तुम राजकुमार कहाँ हो जो विजय प्राप्त कर सको। जीत के समय भी शल्य हार की आशंका बताता । इस प्रकार उसका मनोबल तोडता रहता। मनोबल टूटने पर वह जीती बाजी हार जाता। अन्तत: विजय के सारे सुयोग उस के हाथ से निकलते गये और पराजय का मुहँ देखने का परिणाम भी सामने आ खडा हुआ।

परिवारिक सहयोग-सहकार

ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग उनमें रहती थी। साथी-सहयोगियो से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे। ऋषि ने सोचा, यह वृति इसे ले डूबेगी, समय रहते समझाना होगा।

सरदी का दिन था। बीच में रखी अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले, कैसी सुन्दर अंगीठी दहक रही हैं। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न ? सभी ने स्वीकार किया।

ऋषि पुन: बोले, देखो अमुक कोयला सबसे बड़ा, सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा।

चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया, पर यह क्या , अंगार मुरझा-सा गया। उस पर राख की परतें आ गई और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया।

ऋषि बोले, बच्चो, देखो तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में सबके साथ रहता तो अन्त तक तेजस्वी रहता और सबके बाद तक गरमी देता, पर अब न इसका श्रेय रहा और न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।

शिष्यों को समझाया गया, परिवार वह अंगीठी है , जिसमें प्रतिभाएँ संयुक्त रुप से तपती है। व्यक्तगित प्रतिभा का अहंकार न टिकता है, न फलित होता है। परिवार के सहकार-सहयोग में वास्तविक बल है।

बचत

मधुमक्खी और तितली एक ही पेड़ पर रहती थीं। अक्सर वाटिका में फूलों के पास भी मिल जातीं। एक-दूसरे की कुशल पूछतीं और अपने काम पर लग जाती।

बरसात आ गई। लगातार झड़ी लगी थी। तितली उदास बैठी थी। मधुमक्खी ने पूछा, बहन क्या बात है ? ऐसे सुन्दर मौसम में उदासी कैसी ?

तितली बोली, मौसम की सुन्दरता से पेट की भूख अधिक प्रभावित कर रही है। कहीं भोजन लेने जा नहीं सकती, इसीलिए परेशान हूँ ।

मधुमक्खी बोली, बहन, ऐसे समय के लिए कुछ बचत क्यों नहीं की ? कल की बात न सोचने वाले यों ही परेशान होते है। ऐसा समझाकर मधुमक्खी ने अपने संचित कोष में से तितली की भी भूख शांत की।

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