शनिवार, 30 मई 2009

दुःख

1) सुख चाहने वाले को वर्तमान में पाप करना पडेगा और भविष्य में भयंकर दु:ख भोगना पडेगा।
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2) सुखदायी परिस्थिति में पुण्य कटते हैं और दु:खदायी परिस्थिति में पाप कटते है।
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3) सुखदायी परिस्थिति सेवा करने के लिये हैं और दु:खदायी परिस्थिति सुख की इच्छा का त्याग करने के लिये है।
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4) सन्त-महात्मा, बडे-बुढे और दीन-दु:खी-ये भगवान् के रहने के स्थान हैं, इनकी सेवा करो।
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5) दरिद्रता, रोग, दु:ख, बन्धन और विपित्तयॉं ये सब मनुष्यों के अपने ही दुष्कर्मरुपी वृक्ष के फल है।
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6) दु:ख में विवेक जागता हैं, सुख में ज्ञान सोता है।।
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7) दु:ख उतना ही अधिक या न्यून रहता है। जितना मनुष्य का मन कोमल तथा सुकुमार होता है।
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8) दु:ख जरुरी हैं, अपने मूल स्वरुप को प्रकट करने के लिये।
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9) दु:ख आया मत रोय रे, मिटसी दो दिन मांय। सुख आया मत फूल रे, औ थिर रैसी नाय।।
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10) दु:ख, घृणा, हादसा कुछ समय के लिये होते हैं पर अच्छाई, प्यार और यादे हमेशा बनी रहती है।
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11) दुखों से भरी इस दुनिया में सच्चे प्रेम की एक बूंद मरुस्थल में सागर की तरह है।
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12) दूसरे के दु:ख से दु:खी होना सबसे ऊंची सेवा हैं और गोपनीय सेवा है, सेवा का मूल है।
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13) जो बाहरी वस्तुओं के अधीन हैं, वह सब दु:ख हैं और जो अधिकार में हैं, वह सुख है।
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14) जो किसी को दु:ख नहीं देता, उसको देखने से पुण्य होता है।
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15) जो भोगी होता हैं, उसी की दृष्टि में परिस्थिति सुखदायी और दु:खदायी-दो तरह की होती है। योगी की दृष्टि में परिस्थिति दो तरह की होती ही नही।
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16) जो दूसरों के दु:ख से दु:खी होता हैं, उसको अपने दु:ख से दु:खी नहीं होना पडता।
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17) जो व्यक्ति समाज में आत्म प्रदर्शन के लिये जितना उत्सुक हैं, वह उतना ही दु:खी है।
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18) अविवेकशील मनुष्य दु:ख को प्राप्त होते है।
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19) अपना दु:ख भूलकर दूसरो के आनन्द में जुट जाने के सिवाय और दूसरा रास्ता आनंदित होने का इस दुनिया में नहीं है।
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20) अपने निकट सम्बन्धी का दोष सहसा नहीं कहना चाहिये, कहने से उसको दु:ख हो सकता हैं, जिससे उसका सुधार सम्भव नही।
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21) अपने सुख-दु:ख का कारण दूसरों को न मानना चाहिये।
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22) अज्ञानी रहने से जन्म न लेना अच्छा हैं, क्योंकि अज्ञान सब दु:खों की जड है।
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23) अज्ञानी दु:ख को झेलता हैं और ज्ञानी दु:ख को सहन करता हैं।
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24) गहरे दु:ख से वाणी मूक हो जाती है।

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