गुरुवार, 11 जून 2009

शहीद खुदीराम

खुदीराम को फाँसी हो गई । थोड़ी आयु में, जो थोड़ा-सा समय था, वह भी संघर्ष गुजरा कि देश, धर्म और समाज का पुनरुद्धार हो तो वे अंतिम समय में अपने अभीष्ट से कैसे हट जाते। फांसी के समय वे वेसी ही सजावट के साथ गए, जैसा बरात में सजा होता है। दिन भर उनकी कोठरी राष्ट्रीय गीतों से गूजँती रही, पर वे सदैव गहरी नींद में सोए । जेल अवधि में इनका वजन भी आश्चर्यजनक रुप से बढ गया । नित्य वे दंड-बैठक भी लगाते। जिस दिन उन्हें फाँसी होनी थी, प्रात: काल जल्दी उठे । उपासना की, व्यायाम किया । शरीर सँवारा, जैसे वरयात्रा में जाना हो। हँसते हुए गए। वंदे मातरम् का जयघोष करते हुए , फाँसी के तख्ते पर झूल गए। 
धन्य है यह भूमि , जिसने ऐसे शहीदों को जन्म दिया ।

महान योगी चांगदेव

ऐसा कहा जाता है कि चांगदेव 1400 वर्षों से योग-साधना कर रहे थे । उन्हे भारत का महान योगी माना जाता था। ज्ञानेश्वर सहित तीनों अन्य भाई-बहनो की प्रशंसा सुन उनके मन में आया कि इनसे सत्यासत्य की जानकारी लूँ । प्रश्न रुप में एक सादा कागज भेज दिया । मुक्ताबाई के हाथ में पत्र आया तो वे हँस पड़ी । बोलीं-हमारे योगीराज वर्षों की तप-साधना के बावजूद कोरे ही रह गए। निवृतिनाथ ने इस व्यंग्य पर मुक्ताबाई को लताड़ा एवं पत्रवाहक से कहा- ``योगीराज को हमारी कुटिया पर आने का आमंत्रण दें। ´´योग का प्रभाव देखने के लिए, हाथ मे सर्प का चाबुक लिए, सिंह पर सवार, सभी शिष्यों के साथ, वे मिलने गए। आलिंदी में विराजमान ज्ञानेश्वर, जिस दिवार पर भाई-बहन सहित बैठे थे, उसी को सक्रिय कर स्वागत हेतु चल पड़े। चांगदेव ने यह चमत्कार देखा और श्रद्धावनत् हो, ज्ञानदेव से दीक्षित हुए । यह दीवार आज भी आलिंदी (महाराष्ट्र) में देखी जा सकती है।

लौहपुरुष सरदार पटेल

आज देश के सामने कोई समस्या आती है तो बरबस मुँह से निकल पड़ता है-`काश ! आज सरदार पटेल जीवित होते ।´ जर्मनी के एकीकरण में जो भूमिका विस्मार्क ने और जापान के एकीकरण में जो कार्य मिकाडो ने किया , उनसे बढकर सरदार पटेल का कार्य कहा जायेगा, जिनने भारत जैसे उपमहाद्वीप को, विभाजन की आँधी में टुकड़े-टुकड़े होने से रोका । किस प्रकार देशी राज्यों का एकीकरण संभव हो सका । इस पर विचार करते है तो आश्चर्य होता है । एक-दो नहीं, सैकड़ो राजा भारतवर्ष में विद्यमान थे। उनका एकीकरण सरदार पटेल जैसा कुशल नीतिज्ञ ही कर सकता था। इसी कारण उन्हें लौहपुरुष कहा जाता है। आज राष्ट्र वैसी ही परिस्थिति से गुजर रहा है। हमें फिर वैसी ही , उसी स्तर की जिजीविशा वाली शक्तियो की जरुरत है।

गुरु-शिष्य

चैत्र शुक्ल नवमी, रविवार, संवत् 1530 को जन्मे नारायण बालक को भगवान श्री राम का दास होने के कारण रामदास नाम मिला । बाद मे उनके शिष्यों ने उनकी शक्ति को देख, उन्हें समर्थ की उपाधि दी । देश की दशा को ठीक करना, लोकमत को जगाना और परमात्मा के प्रति विश्वास पैदा करना ही, उनका लक्ष्य होता था। शिवाजी को उनने अपने कार्य का निमित्त बनाया । वैशाख शुक्ल नवमी, संवत् 1571 को उनने अपने प्रिय शिष्य शिवा को शिष्य बनाया- गुरुमंत्र दिया और प्रसाद रुप में एक नारियल, मुट्ठी भर मिट्टी दो मुट्टी लीद और चार मुट्टी पत्थर दिये, जो क्रमश: दृढ़ता, पार्थिवता, ऐश्वर्य एवं दुर्ग विजय के प्रतीक थे । महाराज शिवाजी राव ने गुरु का यह प्रसाद ग्रहण किया और साधु जीवन बिताने की अनुमति माँगी । 

समर्थ ने उन्हे समझाया- ``पीड़ितो की रक्षा तथा धर्म का उद्धार तुम्हारा कर्तव्य है। साधु वही है, जो कि अपनी वासना-तृष्णा, संकीर्ण स्वार्थपरता को त्यागकर ,निस्वार्थ भाव से देश-घर्म की रक्षा करे।´´ शिवाजी ने अपनी सैन्यशक्ति से हिंदू पद पादशाही के प्रवर्तक बनने, छत्रपति कहलाने का श्रेय प्राप्त किया । हजारो महावीर मठ ,जो समर्थ द्वारा स्थापित किए गए, वे प्रेरणा एवं जनसहयोग के स्त्रोत बने । परिणामस्वरुप मुगल साम्रज्य की जड़े खोखली हो गई, वह गिरकर ढेर हो गया । सारा श्रेय गुरु-शिष्य की इस जोड़ी को जाता है

रफी अहमद किदवई साहब

रफी अहमद किदवई साहब के एक मित्र की पुत्री का विवाह था। उनसे किदवई साहब का राजनीतिक विरोध था। बोल-चाल तक नही थी । यहाँ तक कि उनने किदवई साहब को विवाह में आमंत्रित तक न किया, किन्तु वे स्वयं वहाँ पहुँचे ओर कन्या को आशीर्वाद दिया ।

उन सज्जन ने जब अपने प्रतिद्वंदी रफी साहब को वहाँ देखा तो पश्चाताप, आत्मग्लानि और स्नेह का प्रवाह उमड़ा कि वे रफी साहब के गले लिपठ गए और क्षमा-याचना करने लगे। रफी साहब विनम्र स्वर में , इतना ही बोले-``आपका -हमारा राजनीतिक मतभेद हो सकता सदा के लिए, किंतु यह तो घर का मामला है । आपकी बेटी, मेरी बेटी है।´´ इस घटना से आपसी मनमुटाव समाप्त हो गया ।

ब्रह्म दर्शन

ब्रह्म दर्शन से मनुष्य चुप हो जाता है। जब तक दर्शन न हों तभी तक विचार होता है । घी जब तक पक न जाए, तभी तक आवाज करता है । पके घी से शब्द नहीं निकलता, पर पके घी में कच्ची पूरी छोड़ते ही फिर वैसा ही शब्द निकलता है । जब कच्ची पूरी को पका डाला, तब चुप हो जाती है। वैसे ही समाधिस्थपुरुश लोक-शिक्षण हेतु नीचे उतरता है, फिर बोलता है ।

-श्री रामकृष्ण परमहंस

संत रैदास

रैदास की एक बार इच्छा हुई कि वे चितौड़ की रानी झाली के यहाँ जाएँ , जिसने काशीवास में आमंत्रण दिया था। संत के आने पर एक भंडारा हुआ। सभी विद्वज्जनो को आमंत्रण गया। एक अछूत चमड़ा गाँठने वाले का इतना सम्मान देख ब्राह्मणो ने यह निर्णय लिया कि आवश्वक खाद्य सामग्री लेकर वे स्वयं भोजन बनाएँगे। जब वे अलग से भोजन करने बैठे तो देखा कि हर ब्राह्मण पंड़ित की बगल में एक रैदास बैठे हैं। सभी रैदास के चरणो में गिर पड़े और क्षमा माँगी ।

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