शनिवार, 1 जनवरी 2011

अतिवाद छोड़ें

भोगवादी, त्यागवादी दो सिरे हैं।
और जीने के लिए दोनों खुले हैं।

भोग ही जिस जिंदगी का लक्ष्य होता।
इंद्रियों का सुख, उन्हें प्रत्यक्ष होता।
देह-सुख को मान सब कुछ वे चले हैं।।

त्यागवादी दृष्टि, सब कुछ त्यागना हैं।
छोड़ कर संसार, उससे भागना हैं।
त्याग के अतिवाद में ही वे ढले हैं।।

अतः ये दोनों सिरे, अतिवाद ही हैं।
नहीं व्यवहारिक, निरे अपवाद ही हैं।
नहीं स्रष्टा के सपन, इनमें ढले हैं।।

समन्वय ‘अध्यात्मवादी’ बनाता हैं।
‘तेनत्यक्तेन भुंजीथा’’ वह सिखाता हैं।
कबीर, नानक, रेदास यू ही ढले हैं।।

‘आध्यात्मिकता’ श्रेष्ठता करना वरण हैं।
और कर्तव्य पालना, धर्माचरण हैं।
आध्यात्मिक ‘लोक सेवा-पथ’ चले हैं।।

सभी आध्यात्मिक बनें तो लोकहित हो।
धर्म का ले नाम, क्यों जन-मन घृणित हो।
सभी उच्चादर्श इसमें आ मिले हैं।।

मंगलविजय विजयवर्गीय

प्रगति के पथ पर अग्रगामी

कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने का तरीका यह हैं कि सद्विचारों के संपर्क में निरंतर रहा जाए उनका स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन-मनन किया जाए। साथ ही अपने संपर्क-क्षेत्र में सुधार कार्य जारी रखा जाए। सतप्रवृत्ति संवर्द्धन का सेवा कार्य किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करते रहा जाए। इतना करने पर ही मन को स्वच्छ, निर्मल व स्वयं को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाए रखा जा सकता हैं। 

अनवरत काम करने वाले पुरस्कार पाते हैं।

मधुमक्खी उडती-उड़ती एक फूल पर जा बैठी और पराग चूसने लगी। इसी तरह वह इधर-उधर जाकर पराग एकत्र कर रही थी। एक तितली फुदक रही थी। कभी इधर बैठती, कभी उधर। बड़ी चंचल होकर मंडरा रही थी। उसने पूछा-‘‘बहन यह क्या कर रही हो ? हमें भी तो बताओ।’’ मधुमक्खी ने जवाब दिया-‘‘मधु इकट्ठा कर रही हू। पहले पराग फूल से लूंगी, फिर उसे बनाऊगी।’’ तितली बोली-‘‘तुम भी कितनी नादान हो। एक छोटे से फूल से कितना मधु एकत्र कर पाओगी। बेकार समय और शक्ति खरच कर रही हो। आओ कहीं चलें और मधु के तालाब को खोजें।’’ मधुमक्खी कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपने काम में लगी रही। तितली सारा वन छानती रही, थक गई और लौटते समय उसने देखा मधुमक्खी का मधुसंचय जो पेड़ पर एक झुंड के रूप में कई ऐसी ही मधुमक्खियों द्वारा संचित था।

तितली खाली हाथ लौटती हुई कुछ सीख लेकर जा रही थी-
‘‘बैठने वाले ऐसे ही मुह की खाते हैं। 
अनवरत काम करने वाले पुरस्कार पाते हैं।’’

सुकरात

सुकरात के विरोधियों ने उन पर नास्तिकता फैलाने का आरोप लगाया। उन्होनें कहा कि यह युवाओं में देवताओं के प्रति श्रद्धाभाव मिटाने का प्रयास कर रहा हैं। वह किसी भी देवता में विश्वास नहीं करता। सुकरात ने अदालत में कहा-‘‘मैं दिव्य शक्तियों में विश्वास रखता हू तो देवताओं के अस्तित्व को कैसे नकार सकता हूं। विद्वेषवश ही मेरे खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। मेरे जैसे अनगिनत इन्हीं कारणों से पहले भी मारे जाते रहे हैं, पर सत्य सत्य ही रहेगा। बाह्य कर्मकांड की मैं उपेक्षा नहीं करता, पर उनकी आध्यात्मिकता को समझे बिना उन्हें करना मूर्खता मानता हू। यदि मेरे ऐसे उपदेश किसी को बुरे लगते हों तो मुझे मृत्युदंड मिलना चाहिए, पर मनुष्य सदा से अमर रहा हैं, अमर रहेगा। उसकी आत्मा को कोई नहीं मार सकता।’’ भारतीय दर्शन से पूरी तरह प्रभावित गीता के मर्म को भरी सभा में सुनाने वाले सुकरात को जहर का प्याला दे दिया गया, पर उससे हुआ क्या-सुकरात हमेशा के लिए अमर बन गए। 
ऐसे त्याग-बलिदान वालों ने ही तो संस्कृति को जिंदा रखा हैं।

चिम्मन लाल गोस्वामी

कल्याण के यशस्वी संपादक हनुमान प्रसाद पोद्धार बीकानेर में सत्संग गोष्ठियों में गए। जहा भी वे जाते उनकी निगाह श्रेष्ठ व्यक्तियों को परखती रहती थीं। बीकानेर राज्य के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति चिम्मन लाल गोस्वामी उनकी गोष्ठियों में आते। उनकी जिज्ञासाए बड़ी सटीक होती थीं। पोद्धार जी का कुछ दिनों का सान्निध्य उनके जीवन को बदल गया। बाद में वे पूरी तरह से गीताप्रेस के साथ कार्य करने की दृष्टि से जीवनदान कर बीकानेर राज्य की नौकरी छोड़कर 1933 में आ गए। 1971 के बाद उनके संपादन में कल्याण के कई खोजपूर्ण विशेषांक निकले। उन्होंने ज्ञान के सागर के पास रहकर जो साधना की, उसे जीवन भर वे समाज को बांटते रहे। यद्यपि 1974 में वे परलोक गमन कर गए, पर उन्होने हनुमान प्रसाद जी के पूरक के रूप में जो योगदान सांस्कृतिक-आध्यात्मिक वांग्मय को दिया, वह भुलाया नहीं जा सकता। 

चरैवेति, चरैवेति

घोर अंधेरे में जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, झरना अपने अविरल प्रवाह के साथ कल-कल निनाद करता बढ़ता चला जा रहा था। एकांत निर्जन स्थान पर ऊचाई से आकर गिरने वाले उस झरने को तनिक भी विश्राम नहीं। एक पहाड़ की उपत्यिका ने कहा-‘‘निर्झर ! तुम्हें थकावट नहीं लगती। थोड़ा रूको, कुछ विश्राम भी तो कर लिया करो। ऐसा भी क्या परिश्रम !’’ झरने ने उपत्यिका पर स्नेहपूर्ण दृष्टि डाली और जवाब दिया-‘‘बहन ! मुझे जिस महासागर से मिलना हैं, उसकी दूरी अनंत हैं। न जाने कितने दिन उस जलराशि को वहां तक पहुंचने में लग जाएं। रूकूंगा तो भटक जाउंगा। चलते रहने से वह दूरी कुछ कम तो होगी।’’ यह कहकर झरना आगे बढ़ चला। 

चरैवेति, चरैवेति यही एक मात्र सूत्र हैं।
जीवन में ऐसे ही लोग सफल होते हैं, 
जो निरंतर लक्ष्य की ओर चलते रहते हैं।

कर्तव्य पालन

पूर्व दिशा में उषा की लालिमा दिखाई दे रही थी। अंधकार जा रहा था, प्रातःकाल की बेला आ रहीं थी। भगवान भास्कर अपने रथ पर सवार होकर आगे बढ़ने लगे। दीपक की लौं ने अपना मस्तक उठाया, सूर्यदेव को प्रणाम किया और बुझने की तैयारी करने लगा। सूर्यदेव को प्रसन्नता हुई कि मेरी अनुपस्थिति में दीपक ने अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ निभाया। वे वरदान देने को उद्यत हुए। दीपक सहज भाव से बोल उठा-‘‘सूर्यदेव ! संसार में अपना कर्तव्य पालन करने से बड़ा कोई धर्म नहीं। इसके लिए पुरस्कार की क्या अपेक्षा मैंने तो आपके द्वारा दी गई जिम्मेदारियां ही निभाई हैं। इसमें मेरी प्रशंसा किसलिए ! आपका तो आशीर्वाद ही बहुत हैं। रात्रि को फिर प्रकाश फैलाने की तैयारी करूंगा।’’ सूर्य भगवान दीपक से पूर्णतः संतुष्ट हो अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गए और दीपक की लौं एक संतोष एवं कर्तव्य पालन के भाव के साथ बुझ गई।

संगीतशास्त्र

गांधर्ववेद (संगीतशास्त्र) में सात स्वरों के शरीर व मन पर प्रभाव के विषय में विस्तृत प्रकाश डाला गया हैं। सा, रे, ग, म, प, ध, नि प्रत्येक स्वर के विशिष्ट प्रभाव हैं। ‘सा’ षडज स्वर हैं। इसका देवता अग्नि हैं। यह पित्तज रोगों का शमन करता हैं। ‘रे’ ऋषभ स्वर हैं। यह शीतल प्रकृति का हैं। इसका देवता ब्रह्मा हैं एवं यह कफ एवं पित्त प्रधान दोनों ही प्रकार के रोगों का नाशक हैं। ‘ग’ गांधार स्वर हैं। इसकी देवी सरस्वती है। यह पित्तज रोगों का शमन करता हैं। ‘म’ मध्यम स्वर हैं। यह शुष्क स्वरूप का हैं तथा इसका देवता महादेव हैं। वात-कफ रोगों का यह शमन करता हैं। ‘प’ पंचम उत्साहपूर्ण प्रकृति का हैं। लक्ष्मी इसकी देवी हैं। यह मूलतः कफ प्रधान रोगों का शमन करता हैं। ‘ध’ धैवत स्वर हैं। इस स्वर की प्रकृति चित्त को प्रसन्न और उदासीन दोनों ही बनाती हैं। इसके देवता गणेश हैं। यह पित्तज रोगों का शमन करता हैं। ‘नि’ निषाद स्वर हैं। इसका स्वभाव ठंडा-शुष्क हैं तथा प्रकृति आह्लादकारी हैं। इसके देवता सूर्य हैं। यह वातज रोगों का शमन करता हैं। 
देखा जा सकता हैं कि हमारे ऋषियों द्वारा अनुसंधान किए गए सभी स्वर न केवल चिकित्सा करते हैं, वरन वे वातावरण को भी आंदोलित कर देते हैं। 

चिंतन की दरिद्रता

सुदामा व कृष्ण सांदीपनि आश्रम में साथ-साथ पढ़ते थे। एक बार गुरूमाता ने लकड़ी काटकर लाने को कहा। दोनो गए। श्रीकृष्ण पेड़ पर चढ़ गए। ऊपर से लकड़ी काट-काटकर नीचे डालते जाते व सुदामा एकत्र कर लेते। माता ने साथ में पाथेय के रूप में चूड़ा भी दिया था, ताकि भूख लगने पर खा ले। दोनो के लिए था। श्रीकृष्ण चढ़े हुए थे। चूड़ा नीचे रखा था। सुदामा को भूख लग रही थी। पहले अपना हिस्सा खाने को आगे बढ़े। जब वह खा लिया तो श्रीकृष्ण का हिस्सा भी खा गए। बात आई-गई हो गयी। लीला पुरूषोत्तम से कुछ छिपा हैं क्या ! सब जानते हैं कि सुदामा गुरूकुल से तो गए, पर दरिद्रता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। श्रीकृष्ण ऐश्वर्य के धनी द्वारकाधीश थे। एक ऋषि घर आए तो सुदामा ने अपनी दरिद्रता के निवारण का उपाय पूछा। ऋषि द्रष्टा स्तर के थे। बोले-‘‘तुमने अपने चिंतन की दरिद्रता तब दिखाई, जब श्रीकृष्ण सखारूप में तुम्हारे साथ थे। यज्ञपुरूष का हिस्सा ही तुमने रख लिया। स्वयं श्रीकृष्ण ही तुम्हारा त्राण कर सकते हैं।’’ आगे की कथा सबको मालूम हैं कि जब वे दाने कृष्णार्पित हुए तो श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्याज सहित वैभव दिया। 

परमात्मा देने में कृपणता नहीं बरतता, हम बरतते हैं। हम दे तो हमें भी मिलेगा। समयदान, अंशदान उसी निमित्त तो हैं।

जीव गोस्वामी एवं रूप गोस्वामी

जीव गोस्वामी एवं रूप गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के संपर्क में आए। सब कुछ बदल गया। चिंतन में भगवत्ता का समावेश हो गया। वे गौड़ देश के नवाब के यहां काम करते थे। बड़े काम के आदमी थे। सल्तनत वास्तव में वे ही चलाते थे। नवाब से उन्होंने छुट्टी मांगी। उसने नहीं दी। उसने कहा कि पूरा राज्य कार्य ठप्प हो जाएगा। नहीं माने तो दोनों को जेल में डाल दिया गया। वहीं उनका कार्यालय स्थानांतरित कर उनसे काम करने को कहा गया। वहां भी वे काम करते, पर भगवन्नाम स्मरण नहीं भूलते। यह कहा जाए कि सोते ही नहीं थे, मात्र संकीर्तन करते थे। उन्हें सहज ही आभास हुआ कि महाप्रभु स्वयं जेल में आए और उनसे बोले-‘‘हठ ना करो, जो कर रहे हो, करते रहो। कर्म छूटेगा, स्वाभाविक रूप से कर्म करते-करते पकेगा, झड़ेगा।’’ ऊपर से तो वे कर्म करते, पर उनकी समाधि सहज ही लग जाती। काम पूरा निपटाते थे। मन में संसार था ही नहीं। नवाब को दया आ गई। सन्यास के लिए उसने आज्ञा दे दी एवं मुक्त कर दिया। ऐसे व्यक्ति योगी होते हैं, जो इंद्रियों से तो आचरण करते हैं पर भाव से निष्काम योगी का जीवन जीते हैं।

मैं सत्य हूं

एक दिन राजा भोज गहरी निद्रा में सोए थे। उन्हें स्वप्न में एक दिव्य पुरूष के दर्शन हुए। भोज ने उनसे उनका परिचय पूछा-‘‘भगवन् ! आप कौन हैं ? वे बोले-‘‘ मैं सत्य हूं। तुम्हें तुम्हारी तथाकथित उपलब्धियों का वास्तविक स्वरूप दिखाने आया हू। आओ, मेरे साथ आओ।’’ राजा खुशी-खुशी चल दिए। वे अपने आप को बड़ा धर्मात्मा समझते थे। उन्होंने मंदिर, बाग-बगीचे, कुऐ-बावड़ी आदि अनेक बनवाए थें। मन ही मन उनको बड़ा अभिमान भी था। दिव्य पुरूष उन्हें बड़े शानदार उनके ही प्रिय एक बगीचे में ले गऐ और बोले-तुम्हें इनका बड़ा अभिमान हैं न !’’ उन्होंने एक पेड़ छुआ और वह ठूंठ हो गया। एक-एक करके सभी वृक्ष जो फूलों से लदे थे, ठूंठ होते चले गऐ। भोज स्तब्ध देख रहे थे। फिर दिव्य पुरूष आगे बढ़े। भोज द्वारा निर्मित एक स्वर्णजड़ित मंदिर के पास ले गए, जो भोज को अति प्रिय था एवं जिस पर उन्हे गर्व भी था। दिव्य पुरूष के स्पर्श से सोना लोहे की तरह काला हो गया एवं खंडहर की तरह भरभराकर गिर गया। राजा के तो होश उड़ गए। क्रमशः वे सभी स्थानों पर गए, जो राजा भोज ने बड़े मन से बनवाए थे। दिव्य पुरूष बोले-‘‘ राजन् ! वास्तविकता समझो। भ्रम में मत पड़ो । भौतिक वस्तुओं के आधार पर महानता नहीं आंकी जाती। एक गरीब आदमी द्वारा पिलाए गए एक लोटे जल की कीमत-उसका पुण्य किसी यशलोलुप धनी की करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से कहीं अधिक हैं।’’ इतना कहकर वे अंतर्धान हो गए। भोज की नींद पसीने से लथपथ स्थिति में खुली। राजा भोज ने स्वप्न पर गंभीरता पूर्वक विचार किया एव क्रमशः ऐसे पुण्य कार्यों में जुट गए, जो वास्तविक थे, यश प्राप्ति की कामना से नहीं किए गये थे।

आंतरिक श्रद्धा

विपत्ति और अतृप्ति से भरा नीरस जीवन यह बताता हैं कि अंतःकरण की गरिमा सूखने और झुलसने लगी हैं। जड़ें मजबूत और गहरी हो तो जमीन  पेड़ के लिए पर्याप्त जीवन-रस प्राप्त कर लेती हैं और वह हरा-भरा बना रहता हैं। आंतरिक श्रद्धा यदि मर न गई हो तो अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी सरसता और प्रफुल्लता खोजी जा सकती हैं। उल्लास सुख-साधनो पर नहीं उत्कृष्ट दृष्टिकोण पर निर्भर हैं।

दादू के शिष्य रज्जब

दादू के शिष्य थे रज्जब। पहले जन्म की बात हैं, जिसमें दोनो गुरू-शिष्य के रूप में साथ थें। भिक्षा लेने गऐ। कहते जा रहे थे-‘‘दे माई सूत-ले भाई पूत।’’ उन दिनों घर-घर में सूत कातने की परंपरा थी। सूत के बदले सब कुछ ले लिया जाता था। वे वायदा कर रहे थे पूत (पुत्र) देने का। एक धनवान घर की महिला अंदर गई। उसने सूत का अंबार लगा दिया। फिर बोली-‘‘वचन मत भूलना। बेटा मिलेगा न !’’ रज्जब बोले-‘‘गुरू का आशीष होगा तो जरूर मिलेगां’’ दादू ने उनके आश्रम पहुचते ही कहा-‘‘ तू कौन होता हैं पूत देने वाला। अब कहा हैं तो शरीर छोड़ो और उसके यहां जन्म लो।’’ योगबल से रज्जब ने शरीर छोड़ा और उसी धनी महिला के यहा जन्मे। बड़े हुए मन में गुरू के संस्कार तो थे, पर घर की आसक्ति, ठाठ-बाट, ऐश्वर्य में सब भूले हुए थे। उनकी शादी का समय आ गया। सेहरा बांधे चले जा रहे थे। दादू उधर से आ निकले। दिव्यवाणी निकली-

फूलो फूलो फिरत हैं आज हमारो ब्याऊ।
छादू गाए बजाय के दियो काठ में पांव।।

बस रज्जब हो होश आ गया। सेहरा बांधे-बांधे ही वे वहां से भागे और दादू के चरणों में जा गिरे। पूर्वजन्म के गुरू का स्मरण हो आया। ऐसा कहा जाता हैं कि फिर पूरे जीवन वे सेहरा पहने ही दादू के उपदेश सुनते रहे।

जो तुम दोगे वही तुम्हें मिलेगा

तुम जो दूसरे से चाहते हो, वहीं दूसरे को पहले दो, तब तुम्हें अनंत गुणा होकर वही मिलेगा। सेवा चाहते हो तो सेवा करो, मान चाहते हो तो मान दो। यश चाहते हो तो यश दो। ठीक से समझ लो, दुःख देते हो तो बदले में तुम्हें दुःख ही मिलेगा, अपमान करते हो तो बदले में तुम्हें अपमान ही मिलेगा। अर्थात जो तुम दोगे वही तुम्हें मिलेगा।

गणेशशंकर विद्यार्थी

गणेशशंकर विद्यार्थी ने जब ‘प्रताप’ का प्रकाशन आरंभ किया, तब वे 22-23 वर्ष के युवक ही थे। वे न केवल तिलक, गांधी, एनी बेसेंट के अनुयायी थे, वरन सभी क्रांतिकारी नवयुवकों से भी परिचित थे। उन दिनो कानपुर क्रांतिकारी आंदोलन का मुख्य केंद्र था। बटुकेश्वरदत्ता, विजयकुमार, रामदुलारे जैंसे कितने ही क्रांतिकारी विद्यार्थी जी के अनन्य मित्रों में से थे। आजाद एवं भगत सिंह ने भी उनके यहा कई बार आश्रय लिया। भगतसिंह ने तो 1924 में महीनों तक ‘बलवंतसिंह’ नाम रखकर ‘प्रताप’ के संपादकीय विभाग में काम किया। काकोरी के शहीदों के लिए विद्यार्थी जी ने जो कुछ भी अपनी बेबाक लेखनी से लिखा, वह अधिकारियों ने पढ़ा और विद्यार्थी जी एवं उनका ‘प्रताप’ उनकी हिट लिस्ट में आ गया। उन्हीं दिनो कानपुर में भयंकर दंगा फैला। इसके पीछे सरकार का हाथ था, यह सुनिश्चित दिखाई दे रहा था। उसने इतना बड़ा रूप धारण कर लिया कि चार दिन में ही 500 से अधिक व्यक्ति मारे गए। विद्यार्थी जी ने स्थान-स्थान पर जाकर दंगों को शान्त करने की कोशिश की। कई हिंदू मुहल्लों में घिरे मुसलमान भाइयों को उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया, पर धर्मान्ध उन्मत्त लोगों ने उनको घेर लिया और इन्हें मार डाला। 1890 में जन्में विद्यार्थी का 1939 में इस तहर चले जाना बड़ा दुखद था, पर वे शहीद हो गए राष्ट्रीय एकता के लिए।

कुशलता

कुशलता पूर्वक कार्य करने का नाम ही योग हैं, कुशल व्यक्ति संसार में सच्ची प्रगति कर सकता हैं। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य यही हैं कि मनुष्य प्रत्येक कार्य को विवेकपूर्वक करे। इससे मन निर्मल रहता हैं, आत्मा सजग हो जाता हैं और मस्तिष्क परिष्कृत रहता हैं। ऐसे विचारशील व्यक्ति को संशय और मोहग्रस्त होकर भटकना नहीं पड़ता।

राजा जनक

राजा जनक विदेह कहलाते हैं देह से परे जीने वाले विदेह। अनेक ऋषि-मुनियों ने उन्हें बड़ा सम्मान दिया हैं एवं उनका उल्लेख करते हुए निष्काम कर्म, निर्लिप्त जीवन जीने वाला बताया हैं। अगणित लोगों को उन्होने ज्ञान का शिक्षण दिया। एक गुरू ने अपने शिष्य को व्यावहारिक ज्ञान की दीक्षा हेतु राजा जनक के पास भेजा। शिष्य उलझन में था कि मैंने इतने सिद्ध गुरूओं के पास शिक्षण लिया। भोग-विलासों में रह रहा राजा मुझे क्या उपदेश देगा ! जनक ने शिष्य के रहने की बड़ी सुंदर व्यवस्था की। सुंदर सुकोमल बिस्तर, किंतु शयनकक्ष में पलंग के ठीक ऊपर एक नंगी तलवार पतले धागे से लटकती देखी, तो वह रात भर सो न सका। सोचता रहा कि गुरूदेव ने कहां फंसा दिया, जनक से शिकायत की ! कि नींद क्या आती-आपके सेवकों ने तलवार लगी छोड़ दी थी। इससे अच्छी नींद तो हमें हमारी कुटी में आती थी। जनक ने कहा-‘‘चलो आओ। रात की बात छोड़ो, भोजन कर लेते हैं। ‘‘सुस्वादु भोजनों का थाल सामने रखा गया। राजा बोले-‘‘आराम से भोजन करें, पर आप अपने गुरू का संदेश सुन लें। उन्होंने कहा हैं कि शिष्य को सत्संग में ज्ञान प्राप्त होना जरूरी हैं। यदि न हो तो उसे आप सूली पर चढ़ा दें। आपको बताना था, सो बता दिया। अब आप भोजन करें। ‘‘भोजन तो क्या करता, उसे सूली ही दिखाई दे रही थी। बेमन से थोड़ा खाकर उठ गया। बोला-‘‘महाराज ! अब आप किसी तरह प्राण बचा दें।‘‘ जनक बोले-‘‘आप सत्संग की चिंता न करें, वह तो हो चुका। रात आप सो न सके, किंतु मुझे तो नंगी तलवार की तरह हर पल मृत्यु का ही ध्यान बना रहता हैं। अतः मैं रास-रंग में डूबता नहीं। सूली की बात सुनकर तुम्हें स्वाद नहीं आया। इसी प्रकार मुझे भी इस शाश्वत संदेश का सदा स्मरण रहता है। मैं माया के आकर्षणों में कभी लिप्त नहीं होता। संसार में रहो अवश्य, पर संसार तुममे न रहे। यही सबसे बड़ा शिक्षण लेकर जाओ।’’ अब शिष्य को ज्ञान हुआ कि जनक विदेह क्यों कहलाते हैं। 

अभिमानी स्वभाव

पानी से भरा कलश सजा हुआ था उस पर चित्रकारी भी की गई थी। कलश पर एक कटोरी रखी थी, जिससे उसे ढक कर रख गया था। कटोरी ने कलश से कहा-‘‘भाई कलश ! तुम बड़े उदार हो। तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बरतन आए, तुम उसमें अपना जल उंड़ेंल देते हो। किसी को खाली नहीं जाने देते। ‘‘ कलश ने कहा-‘‘हां, यह तो मेरा कर्तव्य हैं। मैं अपने पास आने वाले हर पात्र को भर देता हूं। मेरे अंतस् का सब कुछ दूसरों के लिए हैं।’’ कटोरी बोली-‘‘लेकिन आप कभी मुझे नहीं भरते। मैं तो हमेशा आपके सिर पर मौजूद रहती हूं।’’ घट बोला-‘‘इसमें मेरा क्या दोष ! दोष तुम्हारे अभिमानी स्वभाव का हैं। तुम मान-अभिमान की चाह के साथ सदा मेरे सिर पर चढ़ी रहती हों, जबकि अन्य पात्र मेरे समक्ष आकर झुक जाते हैं अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं। तुम भी अभिमान छोड़ो, विनम्र बनो, मैं तुम्हें भी भर दूंगा।’’

वस्तुतः पूर्णत्व नम्रता एंव पात्रता के विकास से ही प्राप्त होता हैं। कोई भी अनुदान बिना सौजन्य के नहीं मिलता। अभिमान ही सबसे बड़ी बाधा हैं।

रूपांतरण

प्रभु का स्मरण सतत हो, उनमें समर्पण निरंतर हो तो जीवन में अनोखा रूपांतरण घटित होता हैं, कुछ ऐसा, जैसे कि मिट्टी फूल बन जाती हैं और गंदगी खाद बनकर सुगंध में बदल जाती हैं। मनुष्य के विकार भी शक्तिया हैं, जो प्रभु के स्मरण और प्रभु में समर्पण से रूपांतरित हो जाती हैं। आज जो मनुष्य में पशु जैसा दीखता हैं, वहीं दिशा परिवर्तित होने से दिव्यता को उपलब्ध हो जाता हैं। 

जीवन का आध्यात्मिक सच यही हैं कि इसमें जो अदिव्य दीखता हैं, वह भी बीजरूप में दिव्य हैं। अपने दृष्टिकोण में यदि आध्यात्मिकता आ सके तो पता चलता हैं कि वस्तुतः अदिव्य एवं अपवित्र कुछ भी नहीं हैं। सभी कुछ यहां दिव्य हैं, भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति के हैं।

भगवान का स्मरण और भगवान में समर्पण होने से कुछ भी घृणा, द्वेष एवं बैर योग्य नहीं रह जाता । सच तो यह हैं कि जो एक छोर पर पशु हैं, वही दूसरे छोर पर प्रभु हैं। पशु और प्रभु में विरोध नहीं, विकास हैं। यह सत्य आत्मसात् हो सके तो फिर आत्मदमन, उत्पीड़न और संघर्ष व्यर्थ हो जाते हैं भला कहीं कोई अपने को टुकड़ों में तोड़कर सुखी होता हैं। यह तरीका आत्मशांति का नहीं, बल्कि आत्म-संताप का हैं। इससे ज्ञान नहीं, अज्ञान गहरा होता हैं।

स्वयं की चेतना के किसी अंश को नष्ट नहीं किया जा सकता। इसका दमन भी अधिक समय के लिए संभव नहीं हैं, क्योंकि जिसका दमन किया गया हैं, जिसे हराया गया हैं, उसका निरंतर दमन करना पड़ता, उसे निरंतर पराजित करना होता। यह पूर्ण विजय का मार्ग नहीं हैं। पूर्ण विजय का मार्ग तो रूपांतरण हैं। इसमें दमन नहीं, बोध हैं। इसमें गंदगी को हटाना नहीं, उसे खाद बनाना होता हैं। परमात्मा का निरंतर स्मरण और उनमें सतत समर्पण ही वह रसायनशास्त्र हैं, जिससे यह संभव हैं। 

सारा खेल भावनाओं का है।

दो मित्र थे। एक तो दिन भर परिश्रम कर पेट भरता था, दूसरा मात्र चार घंटे जमकर मेहनत करता, शेष समय औरो की सेवा मे व साधना, स्वाध्याय मे लगाता। पहला व्यक्ति तो क्षीणकाय होता चला गया। दूसरा पूरे नगर मे प्रसिद्व, स्वस्थ व समद्ध भी होता चला गया। एक दिन दोनो की भेंट हुई । दूसरे ने पूछा - ‘‘तू तो दिनभर मेहनत करता है, फिर भी शरीर दुबला पतला ही है और मै मात्र चार घंटे जमकर मेहनत करता हूं। व्यायाम भी करता हूं तो तुझ से ज्यादा शक्तिशाली हूं। क्या बात है ? फिस उसने पूछा अच्छा एक बात बताओ, तुम मेहनत करते हो तो तुम्हारे मन मे क्या होता है।’’ उसने कहा-‘‘ मेरा ध्यान तो पैसा कमाने मे ही लगा रहता है।’’ दूसरा मित्र बोला-‘‘यही कारण है कि जब तक तुम उधर से मन हटाकर निश्चिंत भाव से परिश्रम नही करोगे, और की सेवा नहीं करोगे तो ऐसे ही बने रहोगे। हमेशा यह सोचो कि मेरी ताकत बढ़ रही है।’’ ऐसा ही हुआ और वह मित्र भी उसके समान होता चला गया। सारा खेल भावनाओं का है।

गहन समर्पण

मध्यकाल की बात है। समाज मे भाति - भाति की कुरीतिया पनप रही थीं और मानवता का पतन चरम सीमा पर था। राजतंत्र भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली बन गया था। अपने चरित्र के आधार पर विश्व बदलने वाले व्यक्तियों का अभाव साफ नजर आता था। ऐसे में एक संत ने समाज - सुधार का कार्य आरम्भ किया। कुछ लोग साथ चले, तो कुछ विरोधी भी हो गये। उनके आचरण के संदर्भ मे अनर्गल बातों का प्रचार करने लगे।

संत के शिष्य को यह अच्छा नही लगा। वह उनसे बोला- ‘‘गुरूदेव ! आप भगवान के समीप है, उनसे कहकर दुष्प्रचार बन्द क्यो नही करवा देते।’’ संत मुस्कराये और शिष्य के हाथों मे एक हीरा देकर बोले ‘‘जा बेटा ! सब्जी मंडी मे और जोहरी से इसका दाम पूछकर आ ’’ शिष्य को अजीब लगा, पर गुरू का आदेश कैसे ठुकरा सकता था ? कुछ समय बाद शिष्य लौटा और बोला-‘‘ सब्जी मंडी मे तो इसका ज्यादा से ज्यादा पचास रू. दाम लगा है पर जोहरी इसकी कीमत हजारो मे आंक रहा था।

संत बोले -‘‘बेटा! अच्छे कर्म भी इस हीरे की तरह ही है, जिसकी कीमत केवल परमात्मा रूपी पारखी ही भाप सकता है। कुछ नासमझो के विरोध से यदि हम उद्धेश्य विमुख हो गये तो हममें और उनमे क्या अंतर रह जायेगा।’’ यह बात शिष्य की समझ मे आ गई ओर वह गहन समर्पण से समाज-सुधार के कार्य में जुट गया।

यह कार्य बुद्विमतापूर्ण नही है

जब सूर्यास्त होता है, तब धरती पर एक प्रकार की शान्ति उतरती है और यह शान्ति नींद के लिये हितकर है। जब सूर्य उदय होता है, तो धरती पर एक ओजस्वी शक्ति उतरती है। और यह शक्ति काम मे सहायक होती है। जब तुम देर से सोते हो और देर से उठते हो तो, तुम प्रकृति की शक्तियों के उल्टे चलते हो और यह कार्य बुद्विमतापूर्ण नही है।

श्री मा, आरोविले पांडीचेरी

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