‘‘मैं जगत में हूं और जगत में नहीं भी हूं’’ -ऐसा जब कोई अनुभव कर पाता हैं, तभी जीवन का रहस्य उसे ज्ञात होता हैं। एक सन्यासी ने सुना कि देश का सम्राट परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। उस सन्यासी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या यह संभव हैं कि जिसने कुछ भी नहीं त्यागा हैं, वह परमात्मा को पा सके ? वह सन्यासी राजधानी पहुंचा और राजा का अतिथि बना। उसने राजा को बहुमूल्य वस्त्र पहने देखा, स्वर्ण पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते देखा-रात्रि में संगीत और नृत्य का आनन्द लेते हुए भी। उसका संदेह अनंत होता जा रहा था। वह तो सर्वथा स्तब्ध ही हो गया था। सन्यासी संदेह और चिंता से सो भी नहीं सका। सुबह ही राजा ने नदी पर स्नान करने के लिए उसे आमंत्रित किया। राजा और सन्यासी नदी में उतरे। वे स्नान कर ही रहे थे कि अचानक उस शांत, निस्तब्ध वातावरण को एक तीव्र कोलाहल ने भर दिया। आग, आग, आग। नदी तट पर खड़ा राजमहल धू-धूकर जल रहा था और उसकी लपटें तेजी से घाट की ओर बढ़ रही थी। सन्यासी ने स्वयं को अपना कोपीन बचाने के लिए सीढि़यों की ओर भागते हुए पाया। लेकिन लौटकर देखा, तो पाया कि राजा जल में ही खड़े है और कह रहे हैं- ‘‘हे मुनि, यदि समस्त राज्य भी जल जाएं, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलता हैं।’
सम्राट थे जनक और मुनि थे शुकदेव।
लोग मुझसे पूछते हैं-योग क्या हैं ? मैं उनसे कहता हूं-अस्पर्श भाव। ऐसे जीओ कि जैसे तुम जहां हो, वहां नहीं हो। चेतना बाह्य से अस्पर्शित हो, तो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
-ओशो