बुधवार, 17 जून 2009

परिवार सहकार-सहयोग

ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग उनमें रहती थी। साथी-सहयोगियो से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे। ऋषि ने सोचा, यह वृति इसे ले डूबेगी, समय रहते समझाना होगा।

सरदी का दिन था। बीच में रखी अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले, कैसी सुन्दर अंगीठी दहक रही हैं। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न ? सभी ने स्वीकार किया।

ऋषि पुन: बोले, देखो अमुक कोयला सबसे बड़ा, सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा।

चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया, पर यह क्या , अंगार मुरझा-सा गया। उस पर राख की परतें आ गई और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया।

ऋषि बोले, बच्चो, देखो तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में सबके साथ रहता तो अन्त तक तेजस्वी रहता और सबके बाद तक गरमी देता, पर अब न इसका श्रेय रहा और न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।

शिष्यों को समझाया गया, परिवार वह अंगीठी है , जिसमें प्रतिभाएँ संयुक्त रुप से तपती है। व्यक्तगित प्रतिभा का अहंकार न टिकता है, न फलित होता है। परिवार के सहकार-सहयोग में वास्तविक बल है।

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बचत

मधुमक्खी और तितली एक ही पेड़ पर रहती थीं। अक्सर वाटिका में फूलों के पास भी मिल जातीं। एक-दूसरे की कुशल पूछतीं और अपने काम पर लग जाती।

बरसात आ गई ।लगातार झड़ी लगी थी। तितली उदास बैठी थी। मधुमक्खी ने पूछा, बहन क्या बात है ? ऐसे सुन्दर मौसम में उदासी कैसी ?

तितली बोली, मौसम की सुन्दरता से पेट की भूख अधिक प्रभावित कर रही है। कहीं भोजन लेने जा नहीं सकती, इसीलिए परेशान हूँ ।

मधुमक्खी बोली, बहन, ऐसे समय के लिए कुछ बचत क्यों नहीं की ? कल की बात न सोचने वाले यों ही परेशान होते है। ऐसा समझाकर मधुमक्खी ने अपने संचित कोष में से तितली की भी भूख शांत की।

धन लक्ष्मी और सोभाग्य लक्ष्मी

धन लक्ष्मी वहीं विराजती हैं, जहाँ दुरुपयोग न होता हो, जहाँ सदैव पुरुषार्थ में निरत रहने वाले व्यक्ति बसते हो।

बलि अपने समय के धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में सतयुग विराजता था।

सौभाग्य लक्ष्मी बहुत समय तो उस क्षेत्र में रहीं, पर पीछे अनमनी होकर किसी अन्य लोक को चली गई ।

इन्द्र को असमंजस हुआ और इस स्थान-परिवर्तन का कारण पूछ ही बैठे। 

सौभाग्य लक्ष्मी ने कहा, मैं उद्योगलक्ष्मी से भिन्न हूँ। मात्र पराक्रमियों के यहाँ ही उसकी तरह नहीं रहती। मेरे निवास में चार आधार अपेक्षति होते है।- १- परिश्रम में रस, २- दूरदर्शी निर्धारण ,३- धैर्य और साहस तथा ४- उदार सहकार।

बलि के राज्य में जब तक ये चारों आधार बने रहे, तब तक वहां रहने में मुझे प्रसन्नता थी। पर अब, जब सुसंपन्नों द्वारा उन गुणों की उपेक्षा होने लगी तो मेरे लिए अन्यत्र चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था।

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महात्मा बनने के गुण

गाँधीजी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रुप से करने पड़ते थे। एक समाज को समर्पित श्रद्धावान बालक उनके आश्रम में आकर रहा। स्वच्छता- व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए। उन्हें वह निष्ठापूर्वक करता भी रहा। जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग बना लिया।

जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई तो गाँधी जी से भेंट की और कहा, ‘‘ बापू, मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ तो सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले। महात्मा बनने के सूत्र न तो बतलाए गए, न उनका अभ्यास कराया गया।’’


बापू ने सिर पर हाथ फेरा, समझाया, कहा, ‘‘ बेटे, तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले हैं, वे सब महात्मा बनने के सोपान है। जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी-छोटी बातों में व्यवस्था-बुद्धि का विकास कराया गया, वही बुद्धि मनुष्य को महामानव बनाती है।’’


गाँधी जी ने इसी प्रकार छोटे-छोटे सदगुणों के महात्म्य समझाते हुई अनेक लोकसेवियों के जीवनक्रम को ढाला, उन्हें सच्चे निरहंकारी स्वयंसेवक के रूप में विकसित किया।

सहयोग

एक गाँव में आग लग गई।सभी आदमी तो सुरक्षित भाग निकले,पर दो वृद्ध ऐसे थे जो भाग नहीं सकते थे,एक अंधा और एक पंगा। दोनो ने एकता स्थापित की, अंधे ने पंगे को कंधे पर बैठा लिया, पंगा रास्ता बताने लगा और अन्धा तेज दौड़ने लगा, दोनो सकुशल बाहर आ गये।सहयोग का अर्थ ही हैं-अनेक तरह की समर्थता से एक परिपूर्ण शक्ति का उदभव।

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हिम्मता मर्दे मददे खुदा

एक टिटहरी अपनी चोंच में मिट्टी भरती और समुद्र में डाल आती। उसका यह अनवरत श्रम देखकर महर्षि अगस्त्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोली-महाराज ! समुद्र मेरे अण्डों को बहा ले गया है। उसको सुखाने के लिए समुद्र में रेत डाल रही हूं। महर्षि अगस्त्य उस छोटे से पक्षी के प्रयत्न और साहस पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता के लिए तत्पर हो गए । उन्होंने सारे समुद्र को अंजलि में भरकर पी लिया और टिटहरी को अपने अण्डे वापस मिल गए। ठीक ही कहा गया है कि साहसी की सहायता दूसरे लोग भी करते हैं।

ऐसे थे वे लोग

एक बार गाँधी जी स्कूल देर से पहुंचे । बादल छाए रहने और वर्षा होने के कारण उन्हें समय का ठीक पता न चला। स्कूल में अध्यापक ने उनसे देर से आने का कारण पूछा, तो उन्होंने सच बात बता दी। इससे अध्यापक को संतोष न हुआ। उन्होंने इसे बहाना समझकर एक आना जुर्माना कर दिया।

गाँधी जी रोने लगे। साथियों ने कहा- एक आना के लिए क्यों रोते हो, आपके पिता तो अमीर हैं। एक आना कौन-सी बड़ी बात है। गाँधी जी ने कहा- मैं एक आना के लिए नहीं रोता, वरन् इसलिए रोता हूँ कि मुझे झूठा समझा गया।

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