जो कल्पनाएँ आपके मस्तिष्क में उठें, उनके संबंध में प्रथम विचार कीजिए कि उनसे हमारा कोई लाभ है या नहीं । यदि निरर्थक हानिकर कल्पनाएँ उठती हैं, तो उन्हें अपने मानसलोक से निकाल बाहर कीजिए । प्रथम अपना उद्देश्य और कार्यक्रम निर्धारित कीजिए । फिर मन को आज्ञा दीजिए कि उन्हीं की सीमा के अंदर कल्पनाओं की लहरें उत्पन्न करें । निर्धारित क्षेत्र में उपजी हुई कल्पनाएँ यदि दिलचस्प हों, तो भावना के स्वरूप में प्रकट होती हैं ।
भावनाओं का तर्कों द्वारा संशोधन करना चाहिए । जिस प्रकार एक चतुर न्यायाधीश दोनों पक्ष की दलीलें सुनने के बाद उसमें झूठ, सच का पृथक्करण करता है, उसी प्रकार विचारणीय विषय के औचित्य-अनौचित्य का विशुद्ध ज्ञान और अनुभव के आधार पर निर्णय करना चाहिए । जिन जटिल विषयों के संबंध में अपना ज्ञान अपर्याप्त मालूम हो, उनके संबंधों में अन्य महापुरूषों की सम्मति लेनी चाहिए । इस प्रकार जो निर्णय कर लिया जाय, विवेक बुद्धि जिसे करने की आज्ञा दे और हृदय के अंदर से जिसके करने में उत्साह उठ रहा हो, उसे ठीक निर्णय मान लेना चाहिए । ऐसे सुस्थिर विचारों को कार्यरूप में लाने में अपयश और असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ता और उनका कर्ता बुद्धिमान् समझा जाता है।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
बुद्धि बढ़ाने की वैज्ञानिक विधि - पृ. ९