इंग्लेंड की कॉमन सभा में वाद-विवाद चल रहा था। एक सदस्य ने अपने विरोधी से कहा, ``महाशय ! उन दिनों को भूल गये, जब आप जूतों पर पॉलिश किया करते थे।´´ उस सदस्य ने गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया,-``महोदय ! मेरा काम छोटा रहा हैं, हृदय नहीं। मेरी पॉलिश भी ईमानदारी के साथ ही की जाती थी, किसी को असंतुष्ट नहीं किया।´´ विरोधी सदस्य इस नम्रतापूर्वक उत्तर से बड़े लज्जित हुए और अनुभव किया कि श्रेष्टता का आधार उच्चाधिकार नहीं वरन् सदाचार हैं।
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
नारियों का साहस
बात स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों की हैं, क्रांग्रेस ने देशवासियों से गांधी दिवस मनाने और तिलक स्वराज फण्ड के लिए चंदा जमा करने की अपील की। लाहौर में पुलिस का कड़ा प्रबंध था, अत: कोई व्यक्ति जब हिम्मत न कर सका, तब वहाँ महिलाओं ने सभा की, भाषण दिए, खद्धर बेचा और चंदा इकट्ठा किया, यह देखकर सारा लाहौर गांधी दिवस मनाने उमड़ पड़ा।
उम्र बढ़ी तो काम बढ़ा
प्रेसीडेंट लिंकन के एक मित्र ने कहा-``आप काफी वृद्ध हो गए हैं, अब काम के घंटे कुछ कम कर देना चाहिए।´´
लिंकन हँसे और बोले-``श्रीमान् जी ! इस परिपक्व अवस्था से बढ़िया काम करने का और कौन-सा समय होगा।´´ यह कहकर उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहकर काम के घंटों में 1 घण्टे की और वृद्धि कर दी।
ईश्वर नही तो उसकी स्रष्टि को पूजो
एक बार साधु ने आकर गांधीजी से पूछा-``हम ईश्वर को पहचानते नहीं, फिर उसकी सेवा किस प्रकार कर सकते हैं ?´´ गांधीजी ने उत्तर दिया-``ईश्वर को नहीं पहचानते तो क्या हुआ,, इसकी स्रष्टि को तो जानते हैं। ईश्वर की स्रष्टि की सेवा ही ईश्वर की सेवा हैं।´´
साधु की शंका का समाधान न हुआ, वह बोला-``ईश्वर की तो बहुत बड़ी स्रष्टि हैं, इस सबकी सेवा हम एक साथ कैसे कर सकते हैं ?´´ ईश्वर की स्रष्टि के जिस भाग से हम भली-भाँति परिचित हैं और हमारे अधिक निकट हैं, उसकी सेवा तो कर सकते हैं। हम सेवा कार्य अपने पड़ौसी से प्रारंभ करे। अपने आँगन को साफ करते समय यह भी ध्यान रखें कि पड़ौसी का भी आँगन साफ रहे। यदि इतना कर लें तो वही बहुत हैं।´´ गांधी जी ने गंभीरतापूर्वक समझाया। साधु उससे बहुत प्रभावित हुए।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)