शनिवार, 13 सितंबर 2008

अनजान

आशीर्वाद

प्रज्ञावतार की पुण्यवेला

अन्धकार जब गहराता चला जाए, तो इसकी सघनतम स्थिति के अतिसमीप ही प्रभातकाल की ब्रह्मवेला भी जुड़ी रहती हैं। गर्मी की अतिशय तपन बढ़ चलने पर वर्षा की सम्भावना का अनुमान लगाया जा सकता हैं और सार्थक भी होता हैं। चारों ओर झुलस गयी धरती हरियाली के कवच से भर जाती हैं, मानो एक अप्रत्याशित चमत्कार-सा हुआ हो। दीपक जब बुझने को होता हैं, तो उसकी लौ जोर-जोर से चमकती हैं, लपलपाने लगती हैं। मरण की वेला अतिनिकट होने पर भी रोगी में हलकी-सी चेतना अवश्य लौट आती हैं और वह असामान्य रुप से लम्बी-लम्बी सॉंसे लेने लगता हैं। सभी जानते हैं कि मृत्यु की वेला समीप आ गयी। मरण के पूर्व कुछ ही पहले चींटी के पर निकलने लगते हैं।

उपर्युक्त उदाहरण आज की युगसंधि की वेला एवं प्रज्ञावतार के आगमन के पुण्य-प्रयोजन की व्याख्या हेतु दिए गए हैं। इन दिनो असुरता जीवन-मरण का संघर्ष कर रही हैं। उसे समाप्त होना ही हैं, मात्र उसका अंतिम चरण '' हताशा की स्थिति में एक उग्र रुप और '' - इस परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। अनीति की थोड़ी मात्रा नीतिवानो के सामने चुनौति बनकर पहुंचती और उन्हे अनौचित्य से लड़ पड़ने की उत्तेजना एवं पौरुष प्रदान करती है। जन-जन को दुष्टता का पराभव देखने का अवसर मिलता है। जागरुकता, आदर्शवादिता और साहसिकता का उभार होता ही तब हैं जब अनय के असुर की दुरभिसंधिया देवत्व में आक्रोश का आवेश भरती हैं। इस दृष्टि से अनय का अस्तित्व दुखदायी होते हुए भी अन्तत: उत्कृष्टता के प्रखर बने रहने की सम्भावनाएं प्रशस्त बनाए रखता है।

किन्तु यदा-कदा परिस्थितियॉं ऐसी भी आती हैं, जब संत, सुधारक और शहीद अपने प्रराक्रम प्रभाव का परिमाण भारी देखते हैं एवं विपन्नता से लड़ते-लड़ते भी सत्परिणाम की संभावना को धुमिल देखते हैं। ऐसे अवसरों पर अवतार का पराक्रम उभरता हैं और ऐसी परिस्थितियॉं विनिर्मित करता हैं, जिससे पासा पलटने, परिस्थिति उलटने का असंभाव्य भी संभव हो सके। विपित्त की विषम वेला में सदा यही होता रहा हैं। भविष्य में भी यही क्रम चलेगा। वर्तमान में इसके महातथ्य का प्रत्यक्ष स्पष्टीकरण सामने हैं। युगपरिवर्तन की इस पुण्यवेला में प्रज्ञावतार की प्रखर भूमिका संपादित होते हुए ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है।

अखण्ड ज्योति अगस्त-1969

उपदेश की योग्यता

एक बालक मिठाई बहुत खाता था, उसकी यह आदत उसके स्वास्थ्य को बिगाड़ रही थी। बालक मानता नहीं था। निदान के लिए उसकी माता उसे रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का अधिक प्रभाव पड़ने की आशा से उनके पास ले गई और प्रार्थना की कि आप इसे उपदेश देकर मिठाई खाना छुड़ा दें। परमहंस ने उसे एक सप्ताह बाद आने को कहा। महिला चली गई। एक सप्ताह बाद आई, तब उन्होंने बालक को उपदेश दिया और उसने मिठाई छोड़ भी दी।

महिला ने एक सप्ताह विलंब लगाने का कारण पूछा, तो परमहंस ने कहा, तब तो मैं मिठाई स्वयं खाता था। जब बालक को उपदेश देना आवश्यक प्रतीत हुआ, तो पहले मैंने स्वयं मिठाई छोड़ी , तब बालक को कहा। जो करता है, उसी की शिक्षा का प्रभाव भी पड़ता है।

यह प्राथमिक आवश्यकता है कि व्यक्ति पहले अपने चिन्तन को देखे। लोकसेवी व सत्साहस हेतु संघर्ष करने के लिए आगे आने वाले के लिए तो यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है।

गुरु की खोज

तुम्हारे सूत्र जीवन मे नही हमने उतारे,
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

कभी जब तेज धारो मे बहावों मे घिरे हम,
हुऐ अक्षम पकड़ने मे सभी सक्षम सिरे हम,
तुम्ही ने स्नेह-संरक्षण हमे उस क्षण दिया,
स्वयम् दायित्व शिष्यों का सदा तुमने लिया है,

कृपा से पा गए है हम सबल अविचल किनारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

तनिक सोचे की हमने किस तरह जीवन जिया है,
किसी के अश्रु पोंछे क्या किसी का दुःख पिया है ?
कभी देवत्व का आलोक हममे दीख पाया है ?
हमारे आचरण ने क्या किसी का मन लुभाया है ?

हमारे प्यार ने कितने यहाँ जीवन सुधारे,
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

स्वयम् अपनी समीक्षा का रखा क्या ध्यान हमने ?
स्वयम परिवार का कितना किया निर्माण हमने ?
किया क्या अन्य का आदर, सहज सत्कार हमने ?
किया कितने सुझावों को यहाँ स्वीकार हमने ?

कभी यह प्रश्न जीवन मे नही हमने विचारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

हमे है लोकसेवी बन सभी के मध्य जाना,
न छिप सकता कभी गुण-दोष का अपना खजाना,
तभी तो स्वच्छ रखना है हमे प्रत्येक कोना ,
कथन से पूर्व है हमको स्वयम् उत्कृष्ट होना,

जरुरी है की हर परिजन स्वयम् का मन बुहारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

--शचीन्द्र भटनागर


परावाणी के निर्देश

तूफानी मोसम मे जो तूफानी चाल दिखायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

धीरे चलने वाला तेज हवाओ मे घिर जाता है,
अलग-थलग जो रहता है वह पथ मे ही गिर जाता है |
एक तरफ़ गहरी खाई है, उससे कदम बचाने है,
और दूसरी और फिसलने है, भरपूर ढलाने है,

सबके साथ संघटित होकर जो भी कदम बढ़ाएगा,
युग उसके गुण जायेगा |

इस पीढी को गीत सुनाओ मत केवल मादकता के,
बहकाओ मत उसे दिखाकर सपने तुम भावुकता के,
ऐसे गीत रचो जो जाग्रत कर दे दसो दिशाओ को,
झकझोरे युवको के पूरे चिंतन और क्रियाओ को,

जो प्रमाद को हटा, मनुज मे नूतन प्राण जगायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

कला न वह सच्ची होती जो दुर्भावना जगाती है,
जो हिंसा-अत्याचारों के लिए हमे उकसाती है,
कला तुम्हारी ऐसी हो जिससे पावनता झरती हो,
ह्रदयों मे जो सत्कर्मो के लिए प्रेरणा भरती हो,

जो सदभावों की सुपावनी धार बहायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

सावधान हो जाओ, मेरी कोटि-कोटि संतानों तुम,
महाकाल का चक्र चल रहा है, उसको पहचानो तुम,
उसकी प्रखर द्रष्टि से कोई व्यक्ति नही छिप सकता है,
कोई साथ चले न चले, पर कार्य न उसका रुकता है,

जो उसका सहयोगी होगा , श्रेय वही तो पायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

ओ मेरे आत्मीय परिजनों ! जिन्हें मनुजता प्यारी है,
बलिदानों के लिये उन्ही की यह दुनिया आभारी है,
तुमने त्याग-तितिक्षा-तप का जो आदर्श दिखाया है,
नई भोर का उसने ही नूतन इतिहास बनाया है,

हर सहयोग तुम्हारा युग का शिलालेख बन जायगा,
युग उसके गुण जायेगा |

- शचीन्द्र भटनागर अखंड ज्योति मई २००२

सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो |

सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो, एक बड़े पते की बात |
नए सृजन का समय आ गया, उठो बढाओ हाथ ||
यों तो करने वाले करते भारी पूजा-पाठ
लेकिन प्रभु का काम न करते , करते कोरी बात ||
बात ही बात, न देते साथ ||

भ्रम के भटकावे छोडो, कुछ काम प्रभु का कर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

सुनो सुनो युग दूत बुलाता, मत उसको झुठलाओ |
भीतर से सद्भाव जगाता, उस पर ध्यान लगाओ ||
अलग-अलग मत भटको भाई, मिलकर कदम बढाओ |
युग विचार, युग ऋषि से मिलकर, जन-जन तक पहुँचाओ ||
अवसर अनमोल पकड़ लो रे, अपना प्रयास तो कर लो रे |
थोडी हिम्मत तो कर लो रे | 

जप-तप का बस करो ना, सुनते हो कुछ काम करो ना |
मन की मनमानी छोडो, प्रज्ञा की राह पकड़ लो रे ||

लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे |
मत डरना यदि असुर शक्तियाँ, दिखें भयानक भारी ||
युग के एक थपेडे से, ढह जाते अत्याचारी |
समय-समय पर युग दूतों ने, बिगड़ी बात सँभारी ||
प्रज्ञा पुत्रों ! आगे आओ, आज तुम्हारी बारी |
मन को छोटा मत होने दो, साहस मत ओछा होने दो ||
प्रभु कि मर्जी भी होने दो |

प्रभु की लीला याद करो रे, गिद्ध-ग्वाल सा शौर्य भरो रे |
कल की कायरता छोडो, बासंती चोल रंग लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
पढ़ते हैं इतिहास तो कहते काश ! कि हम भी होते |
हम भी कुछ करके दिखलाते, कभी न अवसर खोते ||
हम ना अवसर खोते भैया, सबसे आगे होते |
उनने केवल गीत न गाये - मेरा रंग दे बसंती चोला ||
उनने केवल गीत न गाये - जौहर दिखा शहीद कहाये |
वे गोली पर भी डटे रहे - तुम गाली से डर रहे अरे ||
कैसी गलती कर रहे अरे ||

अपनी गरिमा याद करो ना- काम करो बकवास करो ना |
ढुलमुल ढकोसले छोडो- वीरों की राह पकड़ लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

भले काम के लिए कहो तो - हमको समय कहाँ है ?
सच पूछो तो वक्त काटते फिरते जहाँ - तहाँ हैं ||
हम समय अकारण खोते- है समय नहीं यों रोते हैं |
हर जीवन कि यही व्यथायें- अजब समय की अजब कथाएं ||
यह अपनी अजब कमाई है, गत अपनी स्वयं बनायी है |
अब तो भूल सुधार करो रे - ख़ुद अपना उद्धार करो रे ||
यह रुढिवादिता- रास्ता विवेक का गह लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

प्रज्ञा युग आने वाला है - युग ने ली अंगड़ाई |
युग निर्माण योजना लेकर - नया संदेशा लाई ||
हर मन में देवत्व जगाना, भू पर स्वर्ग बनाना है |
अपना कर सुधार इस जग को - फिर से श्रेष्ठ बनाना है |
युग ऋषि का संदेश ह्रदय में- सबके हमें बिठाना है |
अंशदान कर समयदान कर- घर-घर अलख जगाना है ||
युग वेला है - चूक न जाना- शंका में मत समय गँवाना |
शंका डायन को छोडो- उल्लास ह्रदय में भर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

प्रज्ञा पुत्र कहाने वालों- जीवन धन्य बना लो |
जाग्रत आत्मा बनकर भाई- सोये भाग्य जगा लो ||
साझेदारी प्रभु से कर लो- जो चाहो सो पा लो |
ऐसा समय ना फिर-फिर आता-आओ लाभ उठा लो ||
समझदार कहलाने वालों- ना समझी से हाथ हटा लो |
अपना ओछापन छोडो- प्रभु की विशालता वर लो रे ||
नाव बाँधकर इस बेडे से, ख़ुद भवसागर तर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

बहुत बढ़ गए पाप धरा पर- उनको मार भगायें |
देव संस्कृति को हम फिर से- घर-घर में पहुंचायें ||
घोड़ा अश्वमेध का छूटा- विजयी उसे बनायें |
महाकाल की सुनें गर्जना- जागें और जगायें ||
कुछ बीज पुण्य के बोओ रे- यह स्वर्ण घड़ी मत खोओ रे |
जागो अब तो मत सोओ रे ||

अपना तेजस् भूल न जाना, इस जग में ओजस् फैलाना |
ओछापन मन का छोडो- छाती चौड़ी कर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

आश्वासन ( गुरुदेव )


तुम न घबराओ न आंसू ही बहाओ, 
अबऔर कोई हो न हो, पर मैं तुम्हारा हूँ |
मैं खुशी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा,
तुम न घबराओ..............................||

मानता हूँ ठोकरें तुमने सदा खाईं,
जिंदगी के दांव में, हारें सदा पाईं |
बिजलियाँ दुःख की, निराशा की सदा टूटीँ,
मन गगन पर वेदना की बदलियाँ छाईं |
पोंछ दूँगा मैं तुम्हारे अश्रु गीतों से,
तुम सरीखे बे-सहारों का सहारा हूँ |
मैं तुम्हारे घाव धो मरहम लगाऊँगा,
मैं विजय के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम न घबराओ..............................||

खा गई इंसानियत को भूख यह भूखी,
स्नेह ममता को गई पी प्यास यह सूखी |
जानवर भी पेट का साधन जुटाते हैं,
जिंदगी का हक़ नही है रोटियां रूखी |
और कुछ माँगो हँसी माँगो खुशी माँगो,
खो गए हो, दे रहा तुमको इशारा हूँ |
आज जीने की कला तुमको सिखाऊंगा,
जिन्दगी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम न घबराओ..............................||

कड़ी

कड़ी जो जोड़ती है-
कर्तव्य को अधिकार से,
वाणी को व्यवहार से,
सादगी को श्रृंगार से,
नफ़रत को प्यार से ।

कड़ी जो जोड़ती है -
अमीर को फ़कीर से,
आत्मा को शरीर से,
प्रसन्नता को पीर से,
जोशीलेपन को धीर से |

कड़ी जो जोड़ती है-
संस्कृति को सभ्यता से,
बड़प्पन को महानता से,
भौतिकता को नैतिकता से,
आदर्शवाद को व्यावहारिकता से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
फ़ैशन को शालीनता से,
पुरातन को नवीनता से,
अहंकार को हीनता से,
सरलता को गंभीरता से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
दिल को दिमाग से,
पानी को आग से,
मनोरंजन को वैराग से |

कड़ी जो जोड़ती है-
अध्यात्म को विज्ञान से,
श्वाँस को प्राण से,
अस्थिरता को विराम से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
जवानी को बुढ़ापे से,
आँगन को अहाते से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
पूरब को पश्चिम से,
आदि को अंतिम से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
तुच्छ को महान से,
इंसान को भगवान से,
इंसान को इंसान से ।

वो कड़ी कहीं खो गयी है शायद ।
क्या हममें है वो लचक,
कि हम बन सकें वो कड़ी ?

अवसर न खोने की वेला

युगद्रष्टा ने हैं चिन्तन के मेघ बहुत बरसाए,
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

लगता है, ज्यों कई जनम के भाग्य हमारे जागे,
आतुर है आकाश बरसने को आँखों के आगे,
करना है पुरुषार्थ, बादलो का जल हमें संजोना,
अनुपम अवसर मिला हमें जो, उसे न हमको खोना है,

भाग्यवान है हम कि भूमि पर इस वेला मे आए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

ऋषि के शब्द-शब्द है ऐसे धधक रहे अंगारे,
दुश्चिन्तन-दुर्भाव दोष मिट जाते सभी हमारे,
आत्महीनता से जिनके मन है निस्तेज प्रकम्पित,
पाकर उनकी तपन, वही होंगे सक्रिय, उत्साहित,

हो प्रयास, जिससे वह ऊष्मा जन-जन को मिल पाए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

दिन क्या, पल-पल का भी होता मूल्य बहुत खेती मे,
मेहनत से तैयार भूमि होती है धीमे-धीमे,
मोसम है उपयुक्त, व्यर्थ हम समय न बिल्कुल खोये,
गुरु के क्रांति-बीज मानव की मनोभूमि मे बोए,

सदाचार की जनहितकारी फसल यहाँ लहराए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

गुरुवर की प्रेरणा भरी हैं सरल सहज वाणी मे,
भर सकती है प्रखर चेतना वह प्राणी-प्राणी मे,
परिवर्तन के सूत्र स्वयं समझे, सबको समझाए,
नई सुबह के लिए सभी मे दृढ विश्वाश जगाये,

शिथिल नही हो पांव, न कोई आँख कहीं अलसाये |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

_शचीन्द्र भटनागर
अखंड ज्योति जुलाई २००८

श्रीकृष्ण - अवतरण

कौरवी-षडयंत्र अब भी चल रहा,
पाण्डवी ऊर्जा कहाँ सोई हुई।
कौरवो की क्रूरता सक्रिय अभी,
पार्थ की पुरुषार्थ-गति निष्क्रिय हुई ॥

आज निर्वासित हुवा सद्भाव है,
स्नेह, श्रम, सहकर वृति अभाव है।
सदाशयता के लिया है स्थान कब,
धनान्धो-धृतराष्ट्र मति खोई हुई॥

द्रोपदी, अब भी सुरक्षित है कहाँ,
नारियो पर क्रूर द्रष्टि जहाँ-तहाँ।
दुःशासन-बाहुबली बदनियत है,
दर्प सत्ता-दुर्योधन का कम नही॥

आज भी लुटती स्वदेशी सम्पदा,
आ रही जनतंत्र-बृज पर आपदा॥
क्रूरता गोमांस के निर्यात की,
क्यों तुम्हे गोपाल ! खलती ही नही॥

विदेशी आयात कालियादेह है,
विषैला जनतंत्र-जमना गेह है।
नाथने वैश्वीकरण के नाग को,
कृष्ण ! क्या आई नही अब भी घड़ी॥

पार्थ के पुरुषार्थ को झकझोरने,
कौरवी दुष्चक्र को अब तोड़ने।
महाभारत हो गया अनिवार्य है,
फ़िर जरुरत ज्ञान-गीता की हुई।

होइए जनचेतना मे अवतरित,
प्रेरणा जनक्रांति की करने त्वरित।
भार पापो का बढ़ा है धारा पर,
अवतरण की आपके वेला हुई॥

- मंगलविजय ' विजयवर्गीय अखंड ज्योति अगस्त २००६

विभूति दीप यज्ञ

आओ ! दीप जलाओ।
नवयुग का दिनमान उग रहा हैं, अब आरती सजाओ।

दाल न गल पायेगी तम की।
चाल न चल पायेगी भ्रम की।
ज्ञान-प्रकाश उतरता भू पर, जन-जन तक पहुँचाओ।

अब अज्ञान सिमट जाएगा।
अब भटकाव न भटकायेगा।
प्रज्ञा का विस्तार हो रहा, प्रतिभाओ ! जग जाओ।

दीप जलाओ प्रतिभाओं के।
पुष्प चढाओ क्षमताओ के।
स्वर्ग धरा पर उतर रहा हैं, अगवानी को जाओ।

नवल सृजन की यह वेला।
प्रतिभा के दीपो का मेला।
तमसोऽमा ज्योतिर्गमय हित, ' ज्योति पुंज ' बन जाओ।

गाँव-गाँव में, नगर-नगर में।
दीप प्रज्वलित हों घर-घर में।
प्रतिभाओ के राष्ट्र ! जागकर ' जगत गुरु ' कहलाओ।

-- मंगलविजय ' विजयवर्गीय ' अखंड ज्योति-दिसम्बर २००४

दीपक और अँधेरा


दंभ में तम ने कहा
दीप को ललकार कर।
क्यों जला ही-जा रहा
वक्त-तू-बेकार कर।।
आकृति तेरी लघु है,
मैं असीमित-तम घनेरा।
व्योम से धरती के मध्य,
देख-ले। अस्तित्व मेरा।।
साथ मेरे है-हवा-
झंझावातों सी रात भी।
सह सकेगा तू भला-
झौंकों का आघात भी।।
गहन हो गहराता - मैं,
छा रहूँ बन के अंधेरा।
दीप तू तिल रोशनी का,
है नगण्य महत्त्व तेरा।।
दीप बोला तम तुझे,
इतना! अहंकार है।
आलोक तू नहीं जानता,
इससे तू अंधकार है।।
आलोक थोडा ही भला,
विश्वास की आवाज है।
पा-संभलता आदमी,
दीप! वो आगाज है।।
दीप मैं विश्वास का,
आलोक हूँ, मैं प्राण का।
तू अँधेरा-मैं-उजाला,
श्रद्धा-हृदय में-ज्ञान का।।
प्रेरणा-उत्कर्ष की मैं,
क्षमता बल संघर्ष का।
जितना जलाओ मैं जलूँ,
हूँ उजाला-हर्ष का ।।
रोकता पथ-तू-अँधेरे,
आपदा बन-तू अडे।
व्यक्ति-चाहे उजाला,
काम करले-वो-बडे।।
अपनत्व तुझ से तम बता,
है कहाँ-संसार में।
कौन चाहे अपना तुमको,
डूबे! अंधकार में।।
दीप की बातें - सुनी,
काँपा अँधेरा ढह गया।
दीपक जला - दीपक तले,
सिमटा अँधेरा खो गया।।

---रामगोपाल राही

शान्ति का धाम

चलो रे मन, शांतिकुंज सुखधाम।
जहाँ गूंजती हैं गुरुवर की वाणी आठों याम॥

ज्योति अखंड जहाँ जलती हैं, नित नूतन आशा जगती हैं।
सफल मनोरथ करती जिसकी माटी ललित ललाम॥

जन सेवा का सार जहाँ हैं, देवोपम संसार जहाँ हैं।
प्रतिभाएँ रहती हैं तजकर, धन-साधन-पद-नाम॥

जहाँ सहज मन से मन मिलता, अनदेखा अपनापन मिलता।
सुधा बरसती हैं, कण-कण से जहाँ सुबह और शाम॥

जहाँ न अपना-बेगाना, सीखा सुख देकर सुख पाना।
पीर बँटा लेते सब देकर अपना सुख-आराम॥

जहाँ कामनाएँ मिट जाती, करुणा की धारा लहराती।
स्वार्थ-भाव खोकर मानव का मन होता निष्काम॥

नवयुग का युगतीर्थ यहीं हैं, शान्ति न इतनी और कहीं हैं।
तम डूबे जग ने देखी हैं, भोर यहीं अभिराम॥

जो जीवन इससे जुड़ जाते, अनगिन पुण्य उन्हें मिल जाते।
वे इसके पावन परिसर मे पातें चारों धाम॥

जन जन बहुत विकल जब देखे, शापित नयन सजल जब देखे।
सिद्ध रसायन देने आए उन्हें यहीं श्री राम॥

सतयुग में विश्वाश जहाँ हैं, बढ़ने का उल्लास जहाँ हैं।
उस पावन धरती को कर ले श्रद्धा सहित प्रणाम॥

--शचिन्द्र भटनागर * अखंड ज्योति नवम्बर १९९९

उम्मीदों के दीप जला


दूर अँधेरा-मन का कर दे,
आशाओं के-दीप-जला।
उल्लासों से जीवन भर दे,
जिज्ञासा के-दीप-जला।।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के-दीप-जला।।
अंधयारे की घडी न स्थिर,
पल पल जाने वाली है।
कहाँ अँधेरा अमां रात का,
चहुँ देख उजियाली है।।
छोड हताशा और निराशा,
विश्वासों के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
मन के जीते-जीत उसी का,
नाम भला है खुशहाली।
समृद्धि की शाम उसी का,
नाम भला है दीवाली।।
समृद्धि -पैगाम-समझ के-
आभासों के दीप जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
विश्वासों की ऊर्जा मन में,
हृदय दीप प्रज्वलित कर।
मुस्कानों को मीत बना ले,
हुलसित हृदय प्रफुल्लित कर।।
उजालों के धनी-प्रणेता,
आभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
घर-आँगन मुंडेर द्वार पे,
हो आलोक-उजालों का।
मन के सूने गलियारों में,
भर दे रंग-उजालों का।।
आत्मा ज्ञान-प्रज्ञा के मन में
प्रभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी
उम्मीदों के दीप-जला।।
खुद दीपक बन-जला नहीं-
उसको जीवन मिला नहीं।
बिना जले जो करे उजाला,
ऐसा दीपक-जला नहीं।।
हृदयाकाश-आलोकित हो,
ताराओं से दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

--रामगोपाल राही

वंदन करते हैं हॄदय से

वंदन करते हैं हॄदय से,
याचक हैं हम ज्ञानोदय के,
वीणापाणी शारदा मां !
कब बरसाओगी विद्या मां?
कर दो बस कल्याण हे मां।
हे करुणामयी पद्मासनी
हे कल्याणी धवलवस्त्रणी!
हर लो अंधकार हे मां,
कब बरसाओगी विद्या मां ?
कर दो बस कल्याण हे मां।
जीवन सबका करो प्रकाशित,
वाणी भी हो जाए सुभाषित,
बहे प्रेम करुणा हॄदय में,
ना रहे कोई अज्ञान किसी में,
ऎसा दे दो वरदान हे मां,
कर दो बस कल्याण हे मां।

ज्ञानदीप से दीप जले,
विद्या धन का रुप रहे,
सौंदर्य ज्ञान का बढ़ जाए,
बुद्धी ना कुत्सित हो पाए,
ऎसा देदो वरदान हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां॥

--प्रेमलता

तिरंगा

ये तिरंगा ये तिरंगा ये हमारी शान है
विश्व भर में भारती की ये अमिट पहचान है।
ये तिरंगा हाथ में ले पग निरंतर ही बढ़े
ये तिरंगा हाथ में ले दुश्मनों से हम लड़े
ये तिरंगा दिल की धड़कन ये हमारी जान है

ये तिरंगा विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है
ये तिरंगा वीरता का गूँजता इक मंत्र है
ये तिरंगा वंदना है भारती का मान है

ये तिरंगा विश्व जन को सत्य का संदेश है
ये तिरंगा कह रहा है अमर भारत देश है
ये तिरंगा इस धरा पर शांति का संधान है

इसके रेषों में बुना बलिदानियों का नाम है
ये बनारस की सुबह है, ये अवध की शाम है
ये तिरंगा ही हमारे भाग्य का भगवान है

ये कभी मंदिर कभी ये गुरुओं का द्वारा लगे
चर्च का गुंबद कभी मस्जिद का मिनारा लगे
ये तिरंगा धर्म की हर राह का सम्मान है

ये तिरंगा बाईबल है भागवत का श्लोक है
ये तिरंगा आयत-ए-कुरआन का आलोक है
ये तिरंगा वेद की पावन ऋचा का ज्ञान है

ये तिरंगा स्वर्ग से सुंदर धरा कश्मीर है
ये तिरंगा झूमता कन्याकुमारी नीर है
ये तिरंगा माँ के होठों की मधुर मुस्कान है

ये तिरंगा देव नदियों का त्रिवेणी रूप है
ये तिरंगा सूर्य की पहली किरण की धूप है
ये तिरंगा भव्य हिमगिरि का अमर वरदान है

शीत की ठंडी हवा, ये ग्रीष्म का अंगार है
सावनी मौसम में मेघों का छलकता प्यार है
झंझावातों में लहरता ये गुणों की खान है

ये तिरंगा लता की इक कुहुकती आवाज़ है
ये रवि शंकर के हाथों में थिरकता साज़ है
टैगोर के जनगीत जन गण मन का ये गुणगान है

ये तिंरगा गांधी जी की शांति वाली खोज है
ये तिरंगा नेता जी के दिल से निकला ओज है
ये विवेकानंद जी का जगजयी अभियान है

रंग होली के हैं इसमें ईद जैसा प्यार है
चमक क्रिसमस की लिए यह दीप-सा त्यौहार है
ये तिरंगा कह रहा- ये संस्कृति महान है

ये तिरंगा अंदमानी काला पानी जेल है
ये तिरंगा शांति औ' क्रांति का अनुपम मेल है
वीर सावरकर का ये इक साधना संगान है

ये तिरंगा शहीदों का जलियाँवाला बाग़ है
ये तिरंगा क्रांति वाली पुण्य पावन आग है
क्रांतिकारी चंद्रशेखर का ये स्वाभिमान है

कृष्ण की ये नीति जैसा राम का वनवास है
आद्य शंकर के जतन-सा बुद्ध का सन्यास है
महावीर स्वरूप ध्वज ये अहिंसा का गान है

रंग केसरिया बताता वीरता ही कर्म है
श्वेत रंग यह कह रहा है, शांति ही धर्म है
हरे रंग के स्नेह से ये मिट्टी ही धनवान है

ऋषि दयानंद के ये सत्य का प्रकाश है
महाकवि तुलसी के पूज्य राम का विश्वास है
ये तिरंगा वीर अर्जुन और ये हनुमान है

- राजेश चेतन

वनवासी राम

मात-पिता की आज्ञा का तो केवल एक बहाना था।
मातृभूमि की रक्षा करने प्रभु को वन में जाना था॥

पिता आपके राजा दशरथ मॉं कौशल्या रानी थी
कैकई और मंथरा की भी अपनी अलग कहानी थी
भरत शत्रुध्न रहे बिलखते लखन ने दी कुरबानी थी
नई कथा लिखने की प्रभु ने अपने मन में ठानी थी
सिंहासन है गौण प्रभु ने हमको पाठ पढाना था

अवधपुरी थी सुनी सुनी टूटी जन जन की आशा
वन में हम भी साथ चलेगें ये थी सब की अभिलाषा
अवधपुरी के सब लोगो ने प्रभु से नाता जोड लिया
चुपके से प्रभु वन को निकले मोह प्रजा का छोड दिया
अपने अवतारी जीवन का उनको धर्म निभाना था

सिंहासन पर चरण पादुका नव इतिहास रचाया था
सन्यासी का वेश भरत ने महलों बीच बनाया था
अग्रज और अनुज का रिश्ता कितना पावन होता है
राम प्रेम में भरत देखिये रात रात भर रोता है
भाई भाई सम्बन्धों का हमको मर्म बताना था

किसने गंगा तट पर जाकर केवट का सम्मान किया
औ” निषाद को किसने अपनी मैत्री का वरदान दिया
गिद्धराज को प्रेम प्यार से किसने गले लगया था
भिलनी के बेरों को किसने भक्तिभाव से खाया था
वनवासी और दलित जनों पर अपना प्यार लुटाना था

नारी मर्यादा क्या होती प्रभु ने हमें बताया था
गौतम पत्नी को समाज में सम्मानित करवाया था
सुर्पंखा ने स्त्री जाती को अपमानित करवाया जब
नाक कान लक्ष्मण ने काटे उसको सबक सिखाया तब
नारी महिमा को भारत में प्रभु ने पुनः बढ़ाना था

अगर प्यार करना है तुमको राम सिया सा प्यार करो
वनवासी हो गई पिया संग सीता सा व्यवहार करो
जंगल जंगल राम पूछते सीता को किसने देखा
अश्रुधार नयनों से झरती विधि का ये कैसा लेखा
राम सिया का जीवन समझो प्यार भरा नजराना था

स्वर्णिम मृग ने पंचवटी में सीता जी को ललचाया
भ्रमित हुई सीता की बुद्धि लक्ष्मण को भी धमकाया
मर्यादा की रेखा का जब सीता ने अपमान किया
हरण किया रावण ने सिय का लंका को प्रस्थान किया
माया के भ्रम कभी ना पडना हमको ध्यान कराना था

बलशाली वानर जाति तो पर्वत पर ही रह जाती
बाली के अत्याचारों को शायद चुप ही सह जाती
प्रभु ने मित्र बनाये वानर जंगल पर्वत जोड दिये
जाति और भाषा के बन्धन पल भर में ही तोड दिये
जन-जन भारत का जुड जाये प्रभु ने मन मे ठाना था

मैत्री की महिमा का प्रभु ने हमको पाठ पढाया था
सुग्रीव-राम की मैत्री ने बाली को सबक सिखाया था
शरणागत विभीषण को भी प्रभु ने मित्र बनाया था
लंका का सिंहासन देकर मैत्री धर्म निभाया था
मित्र धर्म की पावनता का हमको ज्ञान कराना था

भक्त बिना भगवान की महिमा रहती सदा अधूरी है
हनुमान बिना ये कथा राम की हो सकती क्या पूरी है
सिया खोज कर लंक जलाई जिसने सागर पार किया
राम भक्ति में जिसने अपना सारा जीवन वार दिया
भक्ति मे शक्ति है कितनी दुनिया को दिखलाना था

अलग-अलग था उत्तर-दक्षिण बीच खडी थी दीवारें
जाति वर्ग के नाम पे हरदम चलती रहती तलवारें
अवधपुरी से जाकर प्रभु ने दक्षिण सेतुबन्ध किया
उत्तर-दक्षिण से जुड जाये प्रभु ने ये प्रबन्ध किया
सारा भारत एक रहेगा जग को ये बतलाना था

राक्षस राज हुआ धरती पर ऋषि-मुनि सब घबराते थे
दानव उनके शीश काटकर मन ही मन हर्षाते थे
हवन यज्ञ ना पूर्ण होते गुरूकुल बन्द हुये सारे
धनुष उठाकर श्री राम ने चुन चुन कर राक्षस मारे
देव शक्तियों को भारत में फिर सम्मान दिलाना था

गिलहरी, वानर, भालू और गीध भील को अपनाया
शक्ति बडी है संगठना में मंत्र सभी को समझाया
अगर सभी हम एक रहे तो देश बने गौरवशाली
दानव भय से थर्रायेगें रोज रहेगी दीवाली
संघ शक्ति के दिव्य मंत्र को जन-जन तक पहुंचाना था

मर्यादा पुरुषोतम प्रभु ने सागर को समझाया था
धर्म काज है सेतुबन्ध ये उसको ये बतलाया था
अहंकार में ऐंठा सागर सम्मुख भी ना आया था
क्रोध से प्रभु ने धनुष उठाया सागर फिर घबराया था
भय बिन होये प्रीत ना जगत में ये संदेश गुंजाना था

रावण के अत्याचारों से सारा जगत थर्राता था
ऋषि मुनियों का रक्त बहाकर पापी खुशी मनाता था
शिव शंकर के वरदानों का रावण ने उपहास किया
शीश काटकर प्रभु ने अरि का सबको नव विश्वास दिया
रावण के अत्याचारों से जग को मुक्त कराना था

लंका का सुख वैभव जिनको तनिक नही मन से भाया
अपनी प्यारी अवधपुरी का प्यार जिन्हें खींचे लाया
मातृभूमि और प्रजा जनों की जो आवाज समझते थे
प्रजा हेतु निज पत्नी के भी नही त्याग से डरते थे
मातृभूमि को स्वर्ग धाम से जिसने बढकर माना था

बाल्मिकी रत्नाकर होते रामायण ना कह पाते
तुलसी पत्नी भक्ति में ही जीवन यापन कर जाते
रामानन्द ना सागर होते राम कथा ना दिखलाते
कलियुग में त्रेता झांकी के दर्शन कभी ना हो पाते
कवियों की वाणी को प्रभु ने धरती पर गुंजाना था

जन-जन मन में ”चेतन” है जो राम कथा है कल्याणी
साधु सन्त सदियों से गाते राम कथा पावन वाणी
पुरखों ने उस राम राज्य का हमको पाठ पढाया था
राम राज्य के आदर्शों को हम सबने अपनाया था
भरत भूमि के राजाओं को उनका धर्म बताना था

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