मंगलवार, 16 सितंबर 2008

धन लक्ष्मी और सौभाग्य लक्ष्मी

धन लक्ष्मी वहीं विराजती हैं, जहाँ दुरुपयोग न होता हो, जहाँ सदैव पुरुषार्थ में निरत रहने वाले व्यक्ति बसते हो।

बलि अपने समय के धर्मात्मा राजा थे। उनके राज्य में सतयुग विराजता था। सौभाग्य लक्ष्मी बहुत समय तो उस क्षेत्र में रहीं, पर पीछे अनमनी होकर किसी अन्य लोक को चली गई । इन्द्र को असमंजस हुआ और इस स्थान-परिवर्तन का कारण पूछ ही बैठे। 

सौभाग्य लक्ष्मी ने कहा, मैं उद्योगलक्ष्मी से भिन्न हूँ। मात्र पराक्रमियों के यहाँ ही उसकी तरह नहीं रहती। मेरे निवास में चार आधार अपेक्षित होते है।- 
१- परिश्रम में रस, 
२- दूरदर्शी निर्धारण,
३- धैर्य और साहस तथा 
४- उदार सहकार।

बलि के राज्य में जब तक ये चारों आधार बने रहे, तब तक वहां रहने में मुझे प्रसन्नता थी। पर अब, जब सुसंपन्नों द्वारा उन गुणों की उपेक्षा होने लगी तो मेरे लिए अन्यत्र चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था।

महात्मा बनने के गुण

गाँधीजी के आश्रम में सफाई और व्यवस्था के कार्य हर व्यक्ति को अनिवार्य रुप से करने पड़ते थे। एक समाज को समर्पित श्रद्धावान बालक उनके आश्रम में आकर रहा। स्वच्छता- व्यवस्था के काम उसे भी दिए गए। उन्हें वह निष्ठापूर्वक करता भी रहा। जो बतलाया गया, उसे जीवन का अंग बना लिया।

जब आश्रम निवास की अवधि पूरी हुई तो गाँधी जी से भेंट की और कहा, ‘‘ बापू, मैं महात्मा बनने के गुण सीखने आया था, पर यहाँ तो सफाई व्यवस्था के सामान्य कार्य ही करने को मिले। महात्मा बनने के सूत्र न तो बतलाए गए, न उनका अभ्यास कराया गया।’’

बापू ने सिर पर हाथ फेरा, समझाया, कहा, ‘‘बेटे, तुम्हें यहाँ जो संस्कार मिले हैं, वे सब महात्मा बनने के सोपान है। जिस तन्मयता से सफाई तथा छोटी-छोटी बातों में व्यवस्था-बुद्धि का विकास कराया गया, वही बुद्धि मनुष्य को महामानव बनाती है।’’

गाँधी जी ने इसी प्रकार छोटे-छोटे सदगुणों के महात्म्य समझाते हुऐ अनेक लोकसेवियों के जीवनक्रम को ढाला, उन्हें सच्चे निरहंकारी स्वयंसेवक के रूप में विकसित किया।

हिम्मता मर्दे मददे खुदा

एक टिटहरी अपनी चोंच में मिट्टी भरती और समुद्र में डाल आती। उसका यह अनवरत श्रम देखकर महर्षि अगस्त्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोली-महाराज ! समुद्र मेरे अण्डों को बहा ले गया है। उसको सुखाने के लिए समुद्र में रेत डाल रही हूं। महर्षि अगस्त्य उस छोटे से पक्षी के प्रयत्न और साहस पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता के लिए तत्पर हो गए । उन्होंने सारे समुद्र को अंजलि में भरकर पी लिया और टिटहरी को अपने अण्डे वापस मिल गए। 
ठीक ही कहा गया है कि साहसी की सहायता दूसरे लोग भी करते हैं।
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