विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
रविवार, 6 फ़रवरी 2011
किंग जोसेफ द्वितीय
एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला पुरूष सामान्य वेशभूषा में जा रहा था। सड़क के किनारे खड़े बालक ने झिझक के साथ कुछ राशि की गुहार की । उस गणमान्य नागरिक ने कहा-‘‘बेटे ! यह तो तुम्हारे पढ़ने-लिखने की उम्र हैं, भीख क्यों माँगते हो ?’’ लड़के ने करूण स्वर में कहा-‘‘मेरी माता बीमार पड़ी हैं। छोटा भाई भूखा है। कल से हम सबके मुँह में अन्न का एक दाना भी नहीं गया। पिता एक वर्ष पूर्व गुजर गए। मैं विवश होकर आपसे कह रहा हूँ।’’ उन सज्जन ने कुछ सिक्के, जिनसे सात दिन की दवा व खाने की व्यवस्था हो जाए, देकर घर का पता पूछा और कहा-‘‘मैं कोई व्यवस्था करता हूँ।’’ वे स्वयं उसके घर पहुँच गएं सब देखा सब सही था। बच्चे की कापी से एक पन्ना फाड़कर कुछ लिखा और कहा-‘‘यह जो डाक्टर आएँ, उन्हें दिखा देना।’’ और चले गए। बच्चा डाक्टर को लकर आया। डाक्टर ने आकर देखा, पढ़ा तो खुशी के मारे आँखों में अश्रु आ गए। बोला-‘‘बहन ! तुम्हारे पास तो इस देश के राजा स्वयं किंग जोसेफ द्वितीय आए थे। उन्होंने लिखा हैं कि तुम्हारे इलाज हेतु श्रेष्ठतम व्यवस्था की जाए और बड़ी धनराशि की व्यवस्था भी की जाए।’’ माँ के मुँह से निकला-‘‘जिस देश का राजा इतना दयालु हैं, वहाँ की जनता को क्या कष्ट हो सकता हैं !’’ किंग जोसेफ द्वितीय सादा वेश में निरन्तर भ्रमण करते थे। कहा जाता हैं, उनके राज्य में कोई दुखी नहीं था।
माँ
सहनशीलता में धरती हैं, मन विस्तृत आकाश हैं,
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।
माँ से अधिक न प्रेरक होते नए-नए प्रतिमान भी,
मूल्यहीन हैं उसके सम्मुख बड़े-बड़े अनुदान भी,
माँ के निकट पहुँचकर देखो, जब भी मन असहाय हो,
उस आँचल में थम जाएँगे भीषणतम तूफान भी,
इसके आशीषों में होता ईश्वर का आभास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।
स्नेह उसी ने भरा दीप में, फिर जलने की सीख दी,
हर विपरीत हवा में निर्भय हो चलने की सीख दी,
वाणी से ही नहीं, आचरण से, अविरल अभ्यास से,
हमें फसल पाने को बीजों-सा गलने की सीख दी,
अपना सब-कुछ उसे त्यागने, देने में उल्लास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।
ऐसा हैं माहौल कि घर भी लगता अब बाजार हैं,
कीमत से आँका जाता अब हर नाता, हर प्यार हैं,
मन मरूथल हो गए, सूखता हैं नयनों का नीर भी,
कहीं न मिलती दूर-दूर तक कोई सजल बयार हैं,
इस मौसम में केवल माँ ही सहज-विमल वातास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।
ऐसी माँ का मन न दुखाना जाने या अनजान में,
उसे न हीन समझना धन-पद-शिक्षा के अभिमान में,
माँ के मन का एक शब्द भी सरल-सहज आशीष का,
स्वयं परावर्तित हो जाता हैं दैवी वरदान में,
प्राण प्रवाहित करता सबमें माता का हर श्वास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।
-शचीन्द्र भटनागर
अखण्ड ज्योति सितम्बर 2010
भय की भ्रान्ति
न जाने क्यों, हर कोई भयभीत हैं, डरा हुआ हैं। ज्ञात में, अज्ञात में भय में जी रहा हैं। उठते, बैठते, सोते, जागते भय बना हुआ है। हर कर्म में, भाव में, विचार-व्यवहार में भय हैं। प्रेम में, घृणा में, पुण्य में, पाप में, सब में एक अनजाने भय ने अपनी पैठ बना ली हैं-कुछ इस तरह, जैसे कि हमारी पूरी चेतना भय से बनी व गढ़ी हैं। हम सबके विश्वास, धारणाएँ, यहाँ तक कि धर्म और ईश्वर को हमने भय की भ्रान्ति से ढक रखा हैं।
इस भय का मूल क्या हैं ? इस एक प्रश्न के उत्तर यों तो अनेक मिल जाएँगे, लेकिन इसका मौलिक और एकमात्र सटीक उत्तर हैं-भय का मूलकारण हैं मृत्यु। हमारे मिट जाने की, न होने की सम्भावना ही सारे भय की जड़ हैं। भय का मतलब ही हैं-अपने न होने की, समाप्त हो जाने की आशंका। इस आशंका से बचने की कोशिश सारे जीवन चलती हैं, पर पूरे जीवन दौड़-भाग की भी स्थिति यथावत् बनी रहती हैं। ठीक समय पर मृत्यु का पल आ ही जाता हैं।
दरअसल मृत्यु का भय भी जीवन को खोने का भय हैं। जो ज्ञात हैं, उसके खो जाने का भय हैं। मेरा शरीर, मेरी सम्पत्ति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे सम्बन्ध, मेरे संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार, यही मेरे ‘‘मैं’’ के प्राण बन गऐ हैं। यही ‘‘मैं’’ हो गया हैं। मृत्यु इस ‘‘मैं’ को छीन लेगी, यह भय हैं, परन्तु यथार्थ में यह भय एक भ्रान्ति के सिवाय और कुछ भी नहीं, क्योंकि जिसे हम ‘‘मैं’’ कहते, सुनते और समझते हैं, वही झूठ हैं।
इस झूठ को हटाकर सत्य को अनुभव करना हो तो सभी झूठे तादात्म्यों को तोड़ना होगा। यदि हम उन सभी तथ्यों के प्रति जागरूक हो गए, जिन्हें अब तक ‘‘मैं’’ के रूप में समझते रहे हैं तो तादात्म्य की भ्रान्ति टूटने लगेगी और अनुभव होगा सच्चे ‘‘मैं’’ का, जिसे कभी कोई मिटा नहीं सकता। इस सच्चे ‘‘मैं’’ की अनुभूति में ही भय से सम्पूर्ण मुक्ति हैं।
अखण्ड ज्योति सितम्बर 2010
सदस्यता लें
संदेश (Atom)