रविवार, 16 अक्टूबर 2011

मुनि एवं ऋषि

सर्वविदित हैं कि ऋषि एवं मुनि ये दो श्रेणिया अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रहीं हैं। ऋषि वह जो तपचर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसन्धान कर उन निष्कर्षो से जन समुदाय को लाभ पहुँचाये तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिन्तन-मनन, स्वाध्याय द्वारा जनमानस के परिष्कार की अहम् भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक हैं तो दूसरा प्रखरता का।

 -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सच और झूठ छिपाये नहीं छिपता है...

1) स्वेच्छा से सि़द्धान्तो के प्रति समर्पित हो जाने को आत्मबल कहते है।
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2) स्वर्ग कोई स्थान या लोग विशेष हैं यह हमने कभी नहीं माना। स्वर्ग उत्कृष्ट दृष्टिकोण को कहते हैं जो भी कृत्य अपने से बनता हैं उसमें उत्कृष्टता और आदर्शवादिता घोल लेते है। - परमपूज्यगुरुदेव।
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3) सुख को भोगना दुःख को निमन्त्रण देना है।
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4) सर्वप्रथम माता-पिता के आचरण से ही बच्चे शिक्षा ग्रहण करते है।
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5) सर्वप्रथम स्वयं पर विश्वास रखों फिर ईश्वर में।
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6) सर्वदा क्रोध से अपनी तपस्या की रक्षा करो।
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7) सच और झूठ छिपाये नहीं छिपता है।
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8) सच्ची प्रगति विचारों के अनन्त सिलसिले के सहारे ज्यादा स्वतंत्रता की ओर ले जाती है।
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9) सच्चा भक्त वह हैं जिसमें तडपन हो, करुणा हो और सक्रियता हो।
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10) सच्चा प्रेम संयोग में भी वियोग की मधुर वेदना का अनुभव करता है।
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11) सच्चा प्रेम सेवा, करुणा एवं श्रद्धा के रुप में ही प्रकट होता है।
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12) सच्चा सुख स्वार्थ नाश में हैं और उसे स्वयं के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं दिला सकता।
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13) सच्चा दोस्त वह है जो अपने दोस्त की उन्नति में खुश हो।
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14) सच्चा त्याग वही हैं जो त्याग की स्मृति का भी त्याग करा दे।
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15) सच्चाई और इमानदारी से प्रेरित संघर्ष ही स्थायी प्रगति का आधार है। अकेला संघर्ष ही काफी नहीं, उसमें सत्य का समन्वय होगा, तो ही भीतरी शक्ति का आशीर्वाद मिलेगा।
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16) सच्चाई और सफाई वाले ही प्रभु प्रिय और लोकप्रिय होते है।
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17) सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।
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18) सच्चे मन से भगवान के लिये किया गया पुरुषार्थ कभी भी निष्फल नहीं होता।
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19) सच्चे मित्र की आत्मीयता की पहचान कठिनाइयों में होती हैं।
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20) सच्चे मित्र के सामने दुःख आधा और खुशी दोगुनी हो जाती है।
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21) सच्चे शिक्षक का आरम्भ साक्षरता से होता हैं और समापन सुसंस्कारिता के उच्चस्तर पर पहुँचने तक अनवरत चलता रहता है।
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22) सच्चे भक्तो की पहचान मात्र इसी एक कसौटी पर होती हैं कि वे भगवान के कितने काम आये।
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23) सुख ऊपर पत्थर पडो, जो राम हृदय से जाय। बलिहारी वा दुःख की जो हर पल राम रटाय। कबीरदासजी।
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24) सुख बाँटने की वस्तु है और दुःख बॅटा लेने की । इसी आधार पर आन्तरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता हैं। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है।
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सर्वोत्तम मानवीय मूल्य....

1) सद्ग्रन्थ ऐसे शिक्षक हैं , जो बिना बेंत मारे और कटु शब्द कहे हमें ऊँची शिक्षा प्रदान करते है।
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2) सदा सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये। इससे धीरता, वीरता, गभ्भीरता, निर्भयता और आत्मबल की वृद्धि होती है।
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3) सदाचार से आत्मचेतना की अभिवृद्धि होती है।
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4) स्व का पर के लिये समग्र समर्पण ही असली समर्पण है।
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5) स्व-मूल्यांकन की एक ही कसौटी सद्गुणों का विकास।
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6) स्वयं को जाने।
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7) स्वयं को जानना जगत की सबसे बडी विलक्षणता है।
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8) स्वयं के सत्वगुणों की अतिन्यूनता के कारण हमें दूसरों के गुण भी नहीं दिखाई देते है।
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9) स्वयं के दुगुर्णो का चिन्तन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही सच्ची प्रार्थना है।
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10) स्वयं प्रसन्न रहना, दूसरों को प्रसन्न करना और तालमेल बिठाकर रहना, यही हैं ब्रह्म और यही हैं उसकी उपासना।
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11) स्वीकार की हुयी गलती एक विजय है।
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12) स्वाध्याय युक्त साधना से ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
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13) स्वाध्याय करते रहने से उपासना में चमक आती हैं। संयम का पालन करने से उपासना प्रभावपूर्ण बनती हैं। सेवा के संग जुडी उपासना ईश्वर की निकटता का अनुभव कराती है।
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14) स्वाध्याय को जीवन में निश्चित स्थान दो।
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15) स्वार्थी, दानव जुल्म ढहाते, परमार्थी ही देव कहाते।
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16) स्वार्थ का थोडा-सा त्याग अन्दर गहरे सन्तोष का अनुभव बनता है।
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17) स्वार्थ नहीं परमार्थ महान्, वंश नहीं गुण कर्म प्रधान।
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18) स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है।
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19) स्वार्थ, लापरवाही और अहंकार की मात्रा का बढ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
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20) स्वावलम्बन और सहयोगात्मक उ़द्योग दोनो नागरिक जीवन की कुन्जी है।
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21) स्वावलम्बन-आत्मनिर्भरता, सफलता का अन्तिम साधन है।
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22) स्वावलम्बन, नियमितता और अनुशासन मनुष्य के व्यक्तित्व को सॅवारते तथा भविष्य को उज्ज्वल बनाते है।
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23) सर्वोत्तम कार्य वह हैं जिसमें सबका भला होवे।
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24) सर्वोत्तम मानवीय मूल्य - अभय, तप, सत्य, अहिंसा, सरलता, त्याग, शान्ति, दया, क्षमा, धैर्य एवं तेज है।
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स्वयं में देखे.......

स्वयं में देखे:-
मैं कितना सहनशील, विचारशील, दीनबन्धु, राग-द्वेष शून्य, साहसी एवं ओजस्वी हूँ। जिस शुभ काम को करने में इतर जनक काँपते हैं उसी कार्य को मैं किस साहस और बुद्धिमता के साथ पूरा करता हूँ। त्याग का भाव कैसा हैं ? देश सेवा में कितनी रुचि हैं ? आत्मसंयम कितना हैं ? बाह्य विषय-त्याग कैसा हैं ? आत्माभिमुखता कैसी हैं ? इन्ही गुणों का निरीक्षण स्वयं में करना चाहिए। यही गुण मनुष्य जीवन को सफल करने वाले हैं। इन्ही के सहारे मनुष्य नर से नारायण हो सकता है।

Bharosa ....

Stop Smoking....

Ek Roti....

सद्गुणो का संग्रह सच्ची कमाई है।

1) साधना की सीढि़याँ हैं-उपासना, आत्मशोधन, परमार्थ।
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2) साधना का अर्थ है-अपने को अनगढ से सुगढ बनाना।
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3) साधना हमारे अन्तरंग जीवन को पवित्र बनाने की कला है।
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4) साधना हमें सकारात्मक व रचनात्मक बनाती है।
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5) साहसिकता वही सराहनीय हैं, जो आदर्शो के साथ जुडे।
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6) सारे पुण्यो और सद्गुणो की जड सत्य है।
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7) सादा जीवन-उच्च विचार आत्मवादी की प्रथम साधना है।
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8) सादगी और सज्जनता महानता के महत्वपूर्ण अंग हैं।
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9) सावधान रहना, मन पर नियन्त्रण, कार्यकुशलता, उपेक्षा का अभाव, धैर्य, स्मरण रखना और सोच समझ कर कार्य आरम्भ करना यही उन्नति के मूल कारण है।
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10) सोच को बदलो, सितारे बदल जायेंगे। नजर को बदलो, नजारे बदल जायेंगे। कश्तियाँ बदलने की जरुरत नहीं, दिशा को बदलो, किनारे बदल जायेंगे।
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11) सोते रहना ही कलियुग हैं, उँघते रहना ही द्वापर हैं, उठ बैठना त्रेता हैं और कार्य में लग जाना सतयुग है। इसलिये काम करो, काम करो।
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12) सोने से पहले और जागने के बाद शान्त रहना चाहिये।
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13) सोने वाले का भाग्य सो जाता हैं, उठने वाले का भाग्य उठ जाता हैं तथा चलने वाले का भाग्य चमक जाता है।
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14) सद्ज्ञान की उपासना का नाम ही गायत्री साधना है।
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15) सद्विचार सत्य को लक्ष्य करके छोड़ा हुआ तीर है।
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16) सद्चिन्तन से ही सद्चरित्रता हस्तगत हो सकती है।
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17) सद्चिन्तन और सद्कर्म द्वारा उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते है।
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18) सद्भावना रखने वाला व्यक्ति सबसे भाग्यवान है।
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19) सद्भावनाओ व सत्प्रवर्त्तियो से जिनका जीवन ओतप्रोत हैं, वह ईश्वर के उतना ही निकट है।
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20) सद्ज्ञान और सत्कर्म यह दो ईश्वर प्रदत्त पंख हैं जिनके सहारे स्वर्ग तक उड सकते है।
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21) सद्गुरु सत्पात्रों को स्वयं ही ढूँढ निकालते है।
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22) सद्गुण साधक को साधने के पथ पर लगाता है।
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23) सद्गुणी का सुखी होना निश्चित है।
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24) सद्गुणो का संग्रह सच्ची कमाई है।

कल्पनाएँ अवश्य आकार पाती है

सार्थक जीवन के लिए कल्पनाओं का उपयोग क्या हो ? नलिनी दा के इस सवाल के उत्तर में महर्षि ने कहा था, ‘‘हर व्यक्ति को कुछ बाते ध्यान रखनी चाहिए। सबसे पहली बात-अपनी कल्पनाओं के स्तर को नीचे मत गिरने दो। विषय-विलास, रास-रंग की कल्पनाओं को प्रश्रय मत दो, क्योंकि इनसे मानसिक ऊर्जा का क्षय होता है। जीवनीशक्ति बरबाद होती हैं। दूसरी बात-इस सत्य पर आस्था रखो कि कल्पनाएँ साकार हो सकती है बस, इसके लिए योजनाबद्ध रुप से काम करने की जरुरत है। बिना थके-बिना रुके जो सपने देखता है, कल्पनाएँ करता हैं, इन्हें पूरा करने के लिए अपना सब कुछ निछावर करने का साहस करता हैं, उसके सपने अवश्य पूरे होते हैं। उसकी कल्पनाएँ अवश्य आकार पाती है।"

समय से सब कुछ खरीदा जा सकता है।

1) सबसे अच्छी दुनिया वह होती हैं जिसमें ईश्वर तो होता हैं लेकिन कोई धर्म नही।
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2) सब्र सबसे बडी प्रार्थना है।
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3) समय के एक-एक क्षण का उपयोग करें बेकार न बैठे।
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4) समय सम्पदा को प्रमाद के श्मशान में जलाने वालो को आत्म-प्रताडना की आग में जलना पडता है।
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5) समय से सब कुछ खरीदा जा सकता है।
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6) समय जैसी मूल्यवान संपदा का भंडार भरा होते हुए भी जो नियोजन कर धन, ज्ञान, प्रतिभा तथा लोकहित को नहीं पा सकते, उनसे अधिक अज्ञानी किसे कहा जाये।
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7) समय और श्रम जीवन देवता की सौपी अमूल्य अमानते है।
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8) समय, सत्य के अतिरिक्त हर वस्तु को कुतर खाता है।
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9) सम्मान की पूँजी देने पर मिलती हैं, बाँटने पर बढ़ती और बटोरने पर समाप्त हो जाती है।
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10) समर्पण जितना समग्र होगा, गुरु की चेतना, सिद्धियाँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य को हम उतना ही व्यापक रुप में धारण कर सकेंगे। जीवन उतना तेजी से परिवर्तन होने लगेगा। सभी रहस्य, सभी तरह के सृजन-कौशल अपने आप ही जाग्रत होते चले जायेंगे।
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11) समस्याएँ चाहे जैसी हो, घबराइये नहीं, इन्हें परीक्षा समझ कर पास कीजिए।
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12) सीखी गयी बात की विस्मृति हो सकती हैं, परन्तु स्वीकार की गयी बात की विस्मृति नहीं हो सकती है।
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13) सभी भाई-बहिन भगवान् को हृदय से प्रणाम करे। प्रणाम करने वाले का पुर्नजन्म नहीं होता है।
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14) सभी प्रकार के अंत अपने साथ नई शुरुआत का संदेश लेकर आते है।
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15) सपने आपके जीवनदाता द्वारा आपके लिए निर्धारित किए गए लक्ष्य है।
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16) साधक का काम हैं-अपने मत का अनुसरण करना तथा दूसरे के मत का आदर करना।
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17) साधक का पहला लक्षण हैं धैर्य। धैर्य की परीक्षा ही भक्ति की परीक्षा है।
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18) साधक को इस बात की चिन्ता करनी चाहिए कि नैतिकता सुरक्षित रहे।
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19) साधक, योगी, मनस्वी, तपस्वी आदि में दरद को झेलने की अपार क्षमता होती है।
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20) साधु का क्षण और अन्नक्षेत्र का कण अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
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21) साधु, विधवा और वृद्ध के लिये भगवद्भजन के सिवाय क्या काम बाकी रहा ? ये भजन न करे तो भगवान् नाराज होते है।
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22) साधन एक पराक्रम हैं-संघर्ष हैं, जो अपनी ही दुष्प्रवर्त्तियों से करना होता है।
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23) साधन करने से दोष दृष्टि कम हो जाती हैं। जो साधन नहीं करता केवल शास्त्र पढता हैं, बातें सीखता हैं, उसको दूसरों में दोष दीखने लगता है।
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24) साधन हमारे बहिरंग जीवन को सम्पन्न बनातें हैं, साधना हमारे अन्तरंग जीवन को पवित्र बनाती है।

साधक !

साधक ! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता हैं ? भगवान के दर्शन से क्या भक्ति भावना में कम रस हैं ? लक्ष्य प्राप्ति से क्या यात्रा मंजिल कम आनन्ददायक हैं ? फल से क्या कर्म का माधुर्य फीका हैं ? मिलन से क्या विरह कम गुदगुदा हैं ? तू इस तथ्य को समझ। भगवान तो भक्ति से ओत-प्रोत ही है। उसे मिलने में देरी ही क्या हैं ? जीव को साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया हैं और झाँक-झाँक कर देखता रहता हैं कि मेरा भक्त भक्ति के आनन्द में सरोबार हो रहा हैं या नहीं ? जब वह उस रस में निमग्न हो जाता है, तो भगवान भी आकर उसके साथ रास-नृत्य करने लगता हैं। सिद्धि वह हैं जब भक्त कहता हैं, मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिये। मुझे मिलन की नहीं विरह की अभिलाशा हैं । मुझे सफलता में नहीं, कर्म में आनन्द हैं। मुझे वस्तु नहीं भाव चाहिये।

सीखने की इच्छा

सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजुद हैं पर आज सीखना कौन चाहता है ? सभी तो अपनी उथली जानकारी के अहंकार के मद में ऐठे-ऐंठे फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाये तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा-सही अर्थो मे विद्या स्वयं ही हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने लगेगी।

 -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्मरण रखने योग्य

स्मरण रखने योग्य यह हैं कि पदार्थ परक वैभव मात्र निर्वाह, विलास या प्रदर्शन के काम आता हैं। उसके सहारे महानता नहीं सधती। यदि साधनो के सहारे बडे काम हो सके होते तो अब तक महामानवो को मिल सकने वाली गरिमा भी श्रीमन्तों ने खरीद ली होती, किन्तु वैसा कभी हुआ नहीं है। धन कुबेरों की, चतुर बुद्धिमानो की, शस्त्र सज्जित योद्धाओं की अपने-अपने क्षेत्र में उपयोगिता हैं, पर जहा तक युग परिवर्तन जैसे महान् प्रयोजनो का सम्बन्ध हैं वहा मात्र संकल्प के धनी, लिप्साओं को कुचलने वाले कालजयी ही उस भार को वहन करने में समर्थ होते हैं जिसे युग देवता किन्ही जाँचे परखे लोगों को ही प्रदान करते रहे हैं।

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