एक सड़क पर बहुत बड़ा भारी पत्थर पड़ा हुआ था। उससे किसी का स्कूटर टकराता तो किसी की गाड़ी। लोग वापस संभलते, पत्थर को व पत्थर रखने वाले को दस-बीस गालियाँ निकालते और आगे बढ़ जाते। सुबह से लेकर साँझ तक कोई बीस-पच्चीस लोग टकरा गए होंगे, पर सभी की वही आदत-गालियाँ निकालना और चले जाना। शाम को साईकिल पर एक फूलों वाला गुजरा। वह भी टकराया और उसके सारे फूल बिखर गए। फूल इकट्ठा करके वह रवाना होने ही वाला था कि उसके मन में विचार आया, कोई और इससे टकराएगा तो नुकसान हो जाएगा इसलिए यहाँ से इसे हटा देना चाहिए। उसने आधे-एक घंटे की मशक्कत करके पत्थर हटा दिया। जैसे ही पत्थर हटा कि उसके नीचे एक लिफाफा व पर्ची निकली। वह बड़ा खुश हुआ क्योंकि पर्ची पर लिखा था- "दूसरों के प्रति हितकारी सोच रखने वाले को हजार रूपये का ईनाम।"
विचार शक्ति इस विश्व कि सबसे बड़ी शक्ति है | उसी ने मनुष्य के द्वारा इस उबड़-खाबड़ दुनिया को चित्रशाला जैसी सुसज्जित और प्रयोगशाला जैसी सुनियोजित बनाया है | उत्थान-पतन की अधिष्ठात्री भी तो वही है | वस्तुस्तिथि को समझते हुऐ इन दिनों करने योग्य एक ही काम है " जन मानस का परिष्कार " | -युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शनिवार, 15 जनवरी 2011
शील, सत्य और धर्म की शक्ति
जब रामसेतु बनने की खबर लंका पहुँची तो लंकावासियों ने विद्राह कर दिया। सेनापति ने रावण से कहा- इस युद्ध में जनता आपका साथ नहीं देगी। जिस राम के नाम के पत्थर तैर रहे हैं उस राम में कितनी ताकत होगीं, यह सोचकर जनता भयभीत हैं। जनता का विश्वास जीतने के लिए आपको भी अपने नाम का पत्थर तिराना होगा। यह सुन रावण अन्दर से हिल गया। उसने कुछ क्षण सोचा और पत्थर तिराने की घोषणा कर डाली। सब लंकावासी समुद्र तट पर पहुँच गए। रावण ने बड़ा भारी पत्थर उठाकर रावण लिखा और समुद में फेंक दिया और यह देखकर सबको आश्चर्य हुआ कि पत्थर डूबने की बजाय तिर गया। सभी रावण की जयजयकार करने लगे। रात को मंदोदरी ने पूछा- राम में तो शील, सत्य और धर्म की शक्ति है।, पर आपने ऐसा कमाल कैसे कर दिया ? रावण ने कहा- प्रियतमे, तुमसे क्या छिपाना। मैने पत्थर से कहा था- ‘‘हे पत्थर ! तुझे राम की सौगंध अगर डूब गए तो।
सुकरात
सुकरात शिष्यों को पढ़ा रहे थे। पत्नी ने आवाज दी- भोजन तैयार हैं, खा लो। सुकरात तो पढ़ाने में मग्न थे। फिर जोर से आवाज आई- खाना खालो। सुकरात ने कहा- आ रहा हूँ। थोड़ी देर बाद भी सुकरात नही पहुँचे तो पत्नी क्रोधित हो गई। इस बार उसने गुस्से में लाल होकर कहा- जल्दी आ जाओ और खाना खा लो। शिष्य समझ गए, उन्होंने कहा- गुरूदेव चले जाइए, पर सुकरात तो पढ़ाने में मस्त थे। पत्नी का पारा चढ़ गया, उसने उठाया पानी का मटका और सुकरात के माथे पर उँडेल दिया। सभी शिष्य भौचक्के रह गए। मुस्कुराते हुए सुकरात ने कहा- देखो, मेरी पत्नी कितनी अच्छी हैं, यह पहले तो गरजती हैं फिर बरसती भी हैं।
समर्थ गुरू
समर्थ गुरू रामदास व छत्रपति शिवाजी कहीं जा रहे थे। बीच में नदी आई । समर्थ गुरू ने शिवा से कह- नदी गहरी हैं, पहले मैं जाता हूँ, कोई खतरा नहीं होगा तो तुम्हें आवाज दे दूंगा। शिवाजी ने कहा- नहीं, पहले मैं जाउंगा। दोनों के बीच तें तनातनी हो गई। आखिर पहले शिवाजी चले गए। सकुशल पहुँचने के बाद उन्होंने गुरूजी को कहा- आप भी आ जाइए। गुरूजी ने पहुँचते ही कहा- शिवा, आज तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं दूसरा शिवा कहाँ से लाता। शिवाजी ने कहा- मैं डूब जाता तो समर्थ गुरू रामदास में इतनी ताकत हैं कि वह सौ-सौ दूसरे शिवा पैदा कर देता, पर आपको कुछ हो जाता तो इस शिवा में इतनी ताकत नहीं हैं कि वह एक भी समर्थ गुरू रामदास को पैदा कर पाता।
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