शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

अध्यात्म का प्रवेश द्वार-प्रेम का प्रतिदान


स्नेह-प्रेम में अद्भुत शक्ति है । जब यह विशिष्टता मानवी अन्तःकरण में प्रस्फुटित होती है, तो न सिर्फ व्यक्ति को असाधारण बनाती है, वरन् उस समाज और राष्ट्र को भी अद्वितीय बना देती है, जिसमें इसकी सरिता प्रवाहमान है । 

इन दिनों सर्वत्र अराजकता और अशान्ति का बोलबाला है । घृणा और विद्वेष का वातावरण इस कदर बढ़ा है, जैसा पूर्व में शायद ही कभी रहा हो । लोग प्रत्यक्ष में स्नेह का दिखावा तो करते हैं, पर परोक्ष में न जाने कितनी बार एक-दूसरे की हत्या कर चुके होते हैं, बुरा-भला कहकर निन्दा करते हैं । यह प्रेम का दर्शन मात्र है । इससे न तो अपना भला होने वाला है, न दूसरे का । प्रेम का वह उद्दाम उत्सव अब कहाँ रहा, जिसके कारण धरती को कभी 'स्वर्गादपि गरीयसी' की संज्ञा दी गई थी । उसका प्रवाह वर्तमान में सूखकर संकीर्ण बन गया है । आज हम अनुराग तो करते हैं, पर वह घर-परिवार तक सीमाबद्ध होकर रह गया है, अपने और अपनों तक सीमित हो गया है । यही विकृत प्रेम इन दिनों बढ़ते अपराध के रूप में सामने आ रहा है । हम अपनों से प्यार प्रदर्शित करने के लिए दूसरों की सहानुभूति का अपहरण कर रहे हैं । अपने और अपनों के लाभ के लिये परायों को कष्ट दे रहे हैं । प्रेम इतना संकुचित नहीं हो सकता, न पहले कभी था, न भविष्य में होने वाला है । जब यह बौना बनने का प्रयास करता है, तो इन्हीं दिनों जैसे विकराल दृश्य उपस्थित करता है । 

टॉल्सटॉय की एक कथा है-'प्रेम का प्रतिदान' । इसमें वे लिखते हैं कि एक बार एक व्यक्ति यात्रा के लिए निकला । काफी सफर करने के बाद एक दिन वह चला जा रहा था, तो सामने जंगल पड़ गया । रास्ता उस जंगल से होकर निकलता था । अतः विवश होकर उसे उसमें प्रवेश करना पड़ा । वन अत्यंत सघन था । कुछ दूर चलने के उपरान्त वह मार्ग भूल गया और जंगल में इधर-उधर भटकने लगा । एक रोज उसकी खाद्य सामग्री भी समाप्त हो गई । अब वह भूखा-प्यासा फिरने लगा, किन्तु ऐसा कब तक सम्भव था! एक रात वह बेहोश हो गया । होश आया तो स्वयं को एक कुटिया में पाया । एक सज्जन पुरुष उसकी परिचर्या कर रहा था । पूछा-''तुम कौन हो?'' उसने कहा-''प्रेम ।'' पथिक कुछ क्षण मौन रहा, तत्पश्चात बोला-''तो फिर प्रेम का प्रतिदान मुझे समझो ।'' निश्चय ही तुमने प्रेम के वशीभूत होकर मेरी रक्षा कर मुझको नया जीवन दिया है, अस्तु इससे उऋण हुए बिना अब न रह सकूँगा । यह मेरी आत्मा और आदत में नहीं कि किसी का कर्ज लिए मर जाऊँ । अतएव कौतुक जैसी पुरानी यात्रा का अब यहीं समापन होता है और ऋणोद्धार के लिए आज से नयी यात्रा की शुरूआत होती है । उस दिन से राहगीर ऐसे रहने लगा, जैसे सेवक और सेवित के दो भिन्न शरीरों में एक ही चेतना प्रवाहित होती हो । 

जब तक स्नेह उक्त स्तर का न होगा, वह समाज को आगे नहीं बढ़ा सकेगा । प्रेम कुछ माँगता नहीं, न ही उसमें कोई शर्त होती है । वह सदा निःस्वार्थ होता है । अनुरागी में प्यार की शक्ति होनी चाहिए और प्रतिदान की सामर्थ्य भी । आज इन दोनों का अभाव है । हमारे पास न तो वह विशाल हृदय है, न सभी को आत्मसात करने वाला पवित्र अन्तःकरण । हम प्यार पाने की इच्छा तो रखते हैं, पर उसे चुकाने की, लुटाने की हिम्मत नहीं संजो पाते, यही आज की सबसे बड़ी कमी है । 

संसार में दिन ही दिन होता अथवा रात ही रात होती, तो उन्हें आज जैसा सम्मान और महत्व नहीं मिल पाता । वह नीरस और ऊबाऊ भी होते, किन्तु दोनों पक्षों के समन्वय से एक सरसता पैदा होती है, जो पशु-पक्षी को समान रूप से लुभाती है । जीवन में यदि काम ही काम होता, तो वह कितना एकरस व थकाऊ होता! इसकी कल्पना की जा सकती है, पर आराम के उपलब्ध होने पर व्यक्ति पुनः नये उत्साह और उल्लास के साथ काम में जुट पड़ता है और देखते-देखते उसे समाप्त कर डालता है । यह दो पक्षों के मिलन का चमत्कार है । जीवन में प्यार की परिणति भी ऐसी ही हो सकती है । 

हम वात्सल्य की आकांक्षा भी रखें और उसे बाँटने का साहस भी; सुख इसी में है । पाने का आनन्द लुटाने में ही होता है । कृपणों के बारे में तो नहीं कहा जा सकता, पर जो सचमुच उदारचेता हैं, वे जितना कमाते हैं उसी अनुपात में बाँटते भी हैं । गुरु-शिष्य परम्परा इसी सिद्धान्त पर आधारित है । किसानों की भी ऐसी ही रीति-नीति होती है । पाने के लिए लुटाना आवश्यक होता है । 

सन् १८९७ में लाहौर में 'वेदान्त' पर व्याख्यान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि हम सामाजिक विकास के लिए भले ही हजारों समितियाँ गढ़ लें, लाखों सम्मेलन कर लें, पर उसकी वास्तविक उन्नति तभी हो सकेगी, जब समाज के लोगों के प्रति हम सहानुभूति रख सकें, प्रेम प्रदर्शित कर सकें । जब तक हमारे भीतर बुद्ध का हृदय और कृष्ण की वाणी विकसित और व्यवहृत होते नहीं दिखाई पड़ेंगे, तब तक प्रगति की आशा, दुराशा मात्र होगी । 

यह सत्य है कि हम असल की नकल करना बहुत जल्दी सीख जाते हैं, किन्तु इस उपक्रम में अभी भी काफी कच्चे हैं । हमारा अनुकरण बाह्य स्तर तक ही सीमित है । जिस दिन हम अन्दर के भाव को अपनाना और पनपाना सीख जायेंगे, उसी क्षण हम, हमारा समाज व राष्ट्र उन्नत बन जायेगा । अभेदानन्द एक स्थान पर लिखते हैं कि यूरोप में सभा-सम्मेलन जितनी संख्या में प्रतिदिन होते हैं, उतने शायद विश्व के किसी हिस्से में नहीं । इसका अनुकरण कर सहज ही ऐसे सम्मेलन आयोजित किये जा सकते हैं, पर उनकी राजनीतिक गोष्ठियों में जो सौहार्द्र दिखाई पड़ता है, उसका परिचय दे पाना हमारे लिए अभी कठिन है । हमें अब इसी कठिनाई को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए । 

भारतीय संस्कृति में 'आत्म-विस्तार' की प्रक्रिया इसी हेतु सुझायी गई है । हम इस साधना को जीवन में यदि उतार सकें, तो कोई कारण नहीं कि वह मनोभूमि विकसित न हो सके, जिसमें प्यार पाने और लुटाने की दोहरी भूमिका सम्पन्न होती हो । अध्यात्म का प्रवेश द्वार यही है । इस सद्गुण को विकसित किया ही जाना चाहिए ।


विचार-परिवर्तन

आज मनुष्य एक ऐसा जानवर हो गया है, जिसको समझदारी सिखाई जानी चाहिए । उसके लिए दूसरी चीजें, जिनको हम शारीरिक आवश्यकताएँ कहते हैं और जिनको हम आर्थिक आवश्यकताएँ कहते हैं, अगर पहाड़ के बराबर भी जुटा करके रख दी जाएँ, तो आदमी का रत्ती भर भी भला नहीं हो सकता । हम देखते हैं कि गरीब आदमी दुखी हैं । अमीर आदमी उससे भी ज्यादा हजार गुनी परेशानी में, उलझनों में, क्लेशों में पड़े हुए हैं, क्योंकि उनके पास विचार करने की कोई शैली नहीं है । अगर उनके पास कोई विचार रहा होता तो इतना अपार धन उनके पास पड़ा हुआ है, जिसके द्वारा समाज में न जाने क्या व्यवस्था उत्पन्न हो गई होती । न जाने समाज का कैसा कायाकल्प हुआ होता । लेकिन नहीं, वही धन बेटे में, पोते में, जमीन और जेवर-सब में ऐसे ही तबाह होता चला जाता है । 

पैसा है तो इसका क्या करें? समाज के सामने ढेर लगी समस्याओं का हल किस तरीके से करें, कुछ समझ में नहीं आता । ऐसी बेअक्ली की अवस्था को दूर करने के लिए यह आवश्यकता अनुभव की गई कि लोगों को समझदारी सिखाई जाए । समझदारी केवल ज्योमेट्री, इतिहास, भूगोल को नहीं कहते । समझदारी उसे कहते हैं, जिसके द्वारा सही चिंतन करने के बाद में आदमी व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं, समाज की समस्याओं और अपने युग की समस्याओं का समाधान कर सके । ऐसी जानकारियों का नाम ज्ञान है । आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की समझी गई है कि हजार वर्ष की गुलामी के बाद आदमी के विचार करने का ढंग भ्रष्ट हो गया है, उसका कण-कण दूषित और विकृत हो गया है । इसको उखाड़ करके फेंक दिया जाए और सोचने के नए तरीके लोगों के दिमागों में स्थापित किए जाएँ । यह शिक्षण करना मानव जाति की, समाज की सबसे बड़ी सेवा है । 

पिछले हजारों वर्ष ऐसे भयंकर समय में गये हैं, जिसमें सामंतवाद से लेकर के पंडावाद तक छाया रहा । राजसत्ता जिन लोगों के हाथ में रही, उनको हम सामंत कहते हैं, उनको हम राजा कहते हैं और उनको हम डाकू कहते हैं । उन लोगों ने सिर्फ अपने महल, अपनी अय्याशी और विलासिता के लिए समाज का शोषण किया और बराबर ये कोशिश की कि कहीं ऐसा न हो जाए कि विचारशीलता फैल जाए और लोगों में अनीति के विरुद्ध बगावत का भाव पैदा हो जाए, न्याय की भावना पैदा हो जाए । फिर हमारा क्यों करेंगे ये लोग समर्थन? यही कोशिश पंडावाद ने भी की कि लोग समझदार न होने पाएँ । समझदार हो जाएँगे तो हमारे शिकार हमारे हाथ से निकल जायेंगे ।

सामाजिक कुरीतियों को देखिये न; कोई तुक है इसमें? कोई बात है? कोई चीज है इसमें? हमारी कुलदेवी पर हमारे बच्चे का मुंडन होगा । कुलदेवी कहाँ रहती है तुम्हारी? २००० मील दूर रहती है । वहाँ क्या करोगे? बच्चे का मुंडन कराने ले जाएँगे । फिर क्या हो जाएगा? देवी को बालों का चढ़ावा देंगे । क्या करेगी देवी? बालों को खाएगी । रोटी नहीं खाती? नहीं, बाल खाती है । बाल नहीं खिलाये तो? ये देवी बीमार कर देगी और बच्चे को मार डालेगी । देवी है कि चुड़ैल है । इस तरह की चुड़ैलों को देवियाँ बना दिया गया, कुलदेवी बना दिया गया । पागल आदमी कलकत्ता से रवाना होता है और कुलदेवी उसकी जैसलमेर में रहती है । दो हजार रुपया फूँककर के आ जाता है और बच्चे का मुंडन करा के आता है और समझता है कि मैंने देवी के ऊपर अहसान कर दिया या देवी ने उसके ऊपर अहसान कर दिया । हमारी सामाजिक कुरीतियाँ कैसी बेहूदा हैं! ये कुरीतियाँ हमारा सारा का सारा पैसा खा जाती हैं, अक्ल खा जाती हैं । जाने क्या से क्या खा जाती हैं? 

जन्म पत्रियों की बात को ले लीजिए न । जन्मपत्री का जंजाल ऐसा खड़ा हो गया है कि लाखों आदमी उसी से उल्लू बने फिरते हैं । मंगल आ गया, राहू आ गया, चन्द्रमा आ गया, शुक्र आ गया । चन्द्रमा इन्हीं के ऊपर आ गया है और यहीं राजा साहब बैठे हुए हैं । चन्द्रमा भी इन्हीं के पीछे-पीछे फिरेगा । चन्द्रमा के पास काम ही नहीं है । इन्हीं को मारेंगे, इन्हीं की पूजा करेंगे, इन्हीं पर लक्ष्मी बरसाएँगें, इन्हीं को हानि पहुँचाएँगे । बस यही रह गये हैं नवाब के तरीके से । चन्द्रमा इन्हीं के पीछे पड़ेगा । बेवकूफ कहीं के । इस तरीके से बे अक्ली और बेवकूफी का कोई अन्त है क्या? 

आदमी के जी में न जाने कैसे यह विश्वास जम गया है कि हम अगर बेईमान होकर के जिएँगे तो और मालदार हो जाएँगे । कामचोरी करेंगे तो हमारी तरक्की हो जाएगी । ये करेंगे, तो हमारा ये हो जाएगा । भ्रष्ट आदमी का मन ऐसा घटिया हो गया है कि मेरे मन में ऐसा आता है कि सारी की सारी विचार करने की शैली को मैं बदल दूँ । एक और भी जमाना ऐसा आया था कि जिस जमाने में हर आदमी के विचार करने का ढंग बहुत ही घटिया और बहुत ही नीच हो गया था । फिर क्या हुआ? भगवान ने अवतार लिया था और वह परशुराम जी का अवतार था । 

परशुराम जी के अवतार ने हाथ में एक कुल्हाड़ा लिया और उस कुल्हाड़े से आदमियों के सिर काट डाले । सिर काट डालने का क्या मतलब है? परशुराम भगवान का अवतार इसी उद्देश्य के लिए हुआ था कि दुर्गुणों को, लोगों की अक्ल और समझ को हम बदल दें, तो आदमी की निन्यानवें फीसदी समस्या अपने आप हल हो जाएगी । 

मनुष्य की जितनी भी समस्याएँ हैं, सब उसकी बेअक्ली की पैदा की हुई समस्याएँ हैं । संतान नहीं होती है, तो बहुत ही अच्छी बात है । इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? संतान नहीं है, तो आप अकेले हैं । मियाँ-बीबी दो आदमी रहिए और अपना बचा हुआ पैसा समाज के लिए लगाइए । खुशहाली से रहिए, सैर कीजिए । बच्चे के पालन करने की जिम्मेदारी नहीं है, रोने-चिल्लाने की जिम्मेदारी नहीं है । दवा-दारू की जिम्मेदारी नहीं है । बताइए, इसमें क्या बात है? नहीं साहब! हमारे बच्चा नहीं होता, हम तो दुखी हैं । हमारी मनोकामना पूर्ण हो जाए तो अच्छा है । हमारे बच्चा हो जाए, तो अच्छा है । बेवकूफ कहीं का! बेअक्ली और बेवकूफी हमारे रोम-रोम में इस बुरी तरीके से छा गई है कि मनुष्यों को मैं क्या कहूँ? मैं उसको जानवर ही कह सकता हूँ । 

साथियो! अपनी युग निर्माण योजना के युग परिवर्तन के कार्यक्रम में पहला स्थान विचार परिवर्तन को दिया गया है । हमने ये कोशिश की है कि इस तरह के विचारों की एक धारा और उसकी पद्धति और संहिता का निर्माण किया जाए, जो मनुष्यों के गलत सोचने के स्थान पर सही सोचने का मार्गदर्शन कर सके । मैंने ढेरों पुस्तकें पढ़ी है, लेकिन ऐसा साहित्य कहीं नहीं है, जो आदमी को और उलझन में डालने के बजाय उसको सही सोचने का तरीका सिखाए । सही सोचने का तरीका सिखाने के लिए युगनिर्माण योजना ने ऐसा साहित्य, ऐसी विज्ञप्तियाँ, ऐसे ट्रैक्ट कम-से-कम मूल्य पर छापे हैं, जिसको पढ़ने के बाद आदमी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा मिले । आदमी को यह प्रकाश मिले कि हमारे सोचने का सही तरीका क्या है, व्यक्ति की उलझनों का वास्तविक कारण क्या है, उनका समाधान किस तरीके से किया जा सकता है? अगर गलत सोचने की बात को आदमी जान ले और सही सोचना शुरू कर दे, तो मजा आ जाए ।

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