मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

क्रान्तिधर्मी साहित्य

प.पू. गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा समय-समय पर अनेक गोष्ठियों में परिजनों को कहे हुए प्रेरक वाक्यों का संकलन एवं क्रान्तिधर्मी साहित्य की महत्ता

1. बेटे ! क्रान्तिधर्मी साहित्य मेरे अब तक के सभी साहित्य का मक्खन है । मेरे अब तक का साहित्य पढ़ पाओ या न पढ़ पाओ, इसे जरूर पढ़ना । इन्हें समझे बिना मिशन को न तो तुम समझ सकते हो, न ही किसी को समझा सकते हो ।…..
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2. बेटे ! ये इस युग की युगगीता है । एक बार पढ़ने से न समझ आये तो सौ बार पढ़ना । जैसे अर्जुन का मोह गीता से भंग हुआ था, वैसे ही तुम्हारा मोह इस युगगीता से भंग होगा ।.....
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3. हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं । हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है । दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं । आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए । हमको आगे बढ़ने दीजिए, सम्पर्क बनाने दीजिए ।…..
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4. मेरे जीवन भर का साहित्य शरीर के वजन से ज्यादा भारी है । यदि इसे तराजू के एक पलड़े पर रखें और क्रांतिधर्मी साहित्य को (युग साहित्य को) एक पलड़े पर, तो इनका वजन ज्यादा होगा ।.....
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5. आवश्यकता और समय के अनुरूप गायत्री महाविज्ञान मैंने लिखा था । अब इसे अल्मारी में बन्द करके रख दो । अब केवल इन्हीं (क्रांतिधर्मी साहित्य को-युग साहित्य को) किताबों को पढ़ना । समय आने पर उसे भी पढ़ना । महाकाल ने स्वयं मेरी उँगलियाँ पकड़कर ये साहित्य लिखवाया है ।…..
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6. ये उत्तराधिकारियों के लिए वसीयत है । जीवन को-चिन्तन को बदलने के सूत्र हैं इसमें । गुरु पूर्णिमा से अब तक पीड़ा लिखी है, पढ़ो । …..
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7. हमारे विचार, क्रांति के बीज हैं, जो जरा भी दुनिया में फैल गए, तो अगले दिनों धमाका करेंगे । तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे ।…..
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8. 1988-90 तक लिखी पुस्तकें जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा है । 1940 से अब तक के साहित्य का सार है ।….
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9. जैसे श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को सभी तीर्थों की यात्रा कराई, वैसे ही आप भी हमें (विचार रूप में – क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में) संसार भर के तीर्थ प्रत्येक गाँव, प्रत्येक घर में ले चलें ।….
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10. बेटे, गायत्री महाविज्ञान एक तरफ रख दो, प्रज्ञापुराण एक तरफ रख दो । केवल इन किताबों को पढ़ना-पढ़ाना व गीता की तरह नित्य पाठ करना ।…..
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11. ये गायत्री महाविज्ञान के बेटे-बेटियाँ हैं, ये (इशारा कर के ) प्रज्ञापुराण के बेटे-बेटियाँ हैं । बेटे, (पुरानों से) तुम सभी इस साहित्य को बार-बार पढ़ना । सौ बार पढ़ना और सौ लोगों को पढ़वाना । दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान इस साहित्य में है ।…..
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12. ये हमारे विचार क्रांति के बीज हैं । इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है । कोई कापीराइट नहीं है ।…..
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13. अब तक लिखे सभी साहित्य को तराजू के एक पलड़े पर रखें और इन पुस्तकों को दूसरी पर, तो इनका वजन ज्यादा भारी पड़ेगा ।
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14. शांतिकुंज अब क्रांतिकुंज हो गया है । यहाँ सब कुछ उल्टा-पुल्टा है । सातों ऋषियों का अन्नकूट है ।
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15. बेटे, ये 20 किताबें सौ बार पढ़ना और कम से कम 100 लोगों को पढ़ाना और वो भी सौ लोगों को पढ़ाएँ । हम लिखें तो असर न हो, ऐसा न होगा ।…..
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16. आज तक हमने सूप पिलाया, अब क्रांतिधर्मी के रूप में भोजन करो ।…..
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17. प्रत्येक कार्यकर्त्ता को नियमित रूप से इसे पढ़ना और जीवन में उतारना युग-निर्माण के लिए जरूरी है । तभी अगले चरण में वे प्रवेश कर सकेंगे । …..
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18. वसंत पंचमी 1990 को वं. माताजी से - मेरा ज्ञान शरीर ही जिन्दा रहेगा । ज्ञान शरीर का प्रकाश जन-जन के बीच में पहुँचना ही चाहिए और आप सबसे कहियेगा – सब बच्चों से कहियेगा कि मेरे ज्ञान शरीर को- मेरे क्रान्तिधर्मी साहित्य के रूप में जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास करें ।…..

क्या आप युवा हैं ?

हमारे संगठन बन्धनात्मक झंझटों से मुक्त होगें

हर संगठन अपने आप में स्वतंत्र है । उनके ऊपर क्षेत्रीय, प्रान्तीय संगठन न बनेंगे । केन्द्र से जो प्रकाश मिलता है उसके अनुरूप दिशा निर्धारित करने में यह संगठन सहायता ले सकते हैं । किसी तरह का बंधन उसके साथ भी नहीं हैं । युग निर्माण योजना एक विचार-पद्धति एवं कार्य पद्धति-मात्र है । उसे बन्धनात्मक झंझटों में जकड़ा नहीं गया है । स्थानीय संगठन ही इसके लिए पर्याप्त हैं । प्राचीनकाल में सभी धर्म, सम्प्रदाय एवं आन्दोलन इसी आधार पर चलते और फलते-फूलते थे । आज जब से डेमोक्रेसी की सरकारी पद्धति धर्म संगठनों और संस्थाओं में घुस पड़ी है तब से जो पदलोलुपता का रोग सरकारों में, वही इन संगठनों में भी घुस पड़ा और धूर्त लोग अपने स्वार्थ साधने के लिए इस तंत्र का दुरुपयोग करने लगे हैं । हमें इस जंजाल से अपने संगठन-क्रम को सर्वथा बचाये रखना है । केवल छोटे स्थानीय संगठन ही पर्याप्त माने जायेंगे । उनका नैतिक एवं बौद्धिक मार्ग-दर्शन केन्द्र करेगा ।

हॉं, निर्धारित विचारधारा से प्रतिकूल आचरण अथवा प्रमाद करने पर प्रतिबंध रहेगा । ऐसे संगठनों को बिरादरी से बहिष्कृत करने का दण्ड दिया जा सकेगा।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.२६)

कर्म-फल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा

यदि कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गयें । कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भुगतना अवश्य ही पड़ेगा । कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिये होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य -धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं । जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की और बढऩे का शुभारम्भ कर दिया ।

लाठी के बल पर जानवरों को इस या उस रास्ते पर चलाया जाता है और अगर ईश्वर भी बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, इससे उसकी स्वतंत्र आत्म-चेतना विकसित हुई या नहीं इसका पता ही नहीं चलता । भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अन्तर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो । अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने मे समर्थ है या नहीं ? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता । आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा । देर हो सकती है अन्धेर नहीं । ईश्वरीय कठोर व्यवस्था, उचित न्याय और उचित कर्म-फल के आधार पर ही बनी हुई है सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१७)

स्वभाव तथा भावना का परिष्कार

परिवार की आत्मीयता की भावना जब बढ़ती है तो मनुष्य अपनों के लिए बहुत कुछ सोचता और करता है । हमारा मन इन दिनों अपने आत्मीयजनों को ऐसे बनाने के लिए मचल रहा है कि इस निर्माण को देखकर देखने वाले आश्चर्यचकित रह जायें और यह अनुभव करें कि युग-निर्माण योजना कोई शेखचिल्ली की कल्पना नहीं, वरन् एक अत्यंत सरल और पूर्ण व्यावहारिक पद्धति है जिसे अपनाया और व्यापक बनाया जा सकना न तो कठिन है और न असंभव ।

समझा यह जाता है कि लोगों का स्वभाव जन्म से ही बना आता है, उसे बदला और बनाया नहीं जाता । इस धारणा को भ्रान्त सिद्ध करने का हमारा विचार है । हम अपनों को बदलना चाहते हैं । अपनी प्रयोगशाला में हम बबूलों को चन्दन बनाने की तैयारी कर रहे हैं । विज्ञान के द्वारा भौतिक जगत में इतने आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहे हैं तो ज्ञान के द्वारा मनुष्य की अन्त:स्थिति में भी आशाजनक परिवर्तन की आशा की जा सकती है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.४६)

चित्रगुप्‍त हमें देख रहा है

भीतरी दुनियाँ में गुप्‍त-चित्र या चित्रगुप्‍त पुलिस और अदालत दोनों महकमों का काम स्‍वयं ही करता है। यदि पुलिस झूठा सबूत दे दे तो अदालत का फेसला भी अनुचित हो सकता है, परंतु भीतरी दुनियाँ में ऐसी गड़बड़ी की संभावना नहीं। अंत:करण सब कुछ जानता है कि यह कर्म किस विचार से, किस इच्‍छा से, किस परिस्थिति में, क्‍यों कर किया गया था। वहाँ बाहरी मन को सफाई या बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती क्‍योंकि गुप्‍त मन उस बात के संबंध में स्‍वयं ही पूरी-पूरी जानकारी रखता है। हम जिस इच्‍छा से, जिस भावना से जो काम करते हैं, उस इच्‍छा या भावना से ही पाप-पुण्‍य का नाप होता है।

भौतिक वस्‍तुओं की तोल-नाप बाहरी दुनियाँ में होती है। एक गरीब आदमी दो पैसा दान करता है और एक धनी आदमी दस हजार रूपया दान करता है, बाहरी दुनियाँ तो पुण्‍य की तौल रुपए-पैसों की गिनती के अनुसार करेगी। दो पैसा दान करने वाले की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, पर दस हजार रूपया देने वाले की प्रशंसा चारों ओर फैल जाएगी। भीतरी दुनियाँ में यह तोल-नाप नहीं चलती। बाहरी दुनियाँ में रूपयों की गिनती से, काम के बाहरी फैलाव से, कथा-वार्ता से, तीर्थयात्रा आदि भौतिक चीजों से यश खरीदा जाता है, पर चित्रगुप्‍त देवता के देश में यह सिक्‍का नहीं चलता, वहाँ तो इच्‍छा और भावना की नाप-तौल है। उसी के मुताबिक पाप-पुण्‍य का जमा-खर्च किया जाता है।
Book: गहना कर्मणोगति
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

धर्म का प्रथम आधार और इसकी पृष्ठभूमि

धर्म का प्रथम आधार है - आस्तिकता, ईश्वर विश्वास । परमात्मा की सर्वव्यापकता, समदर्शिता और न्यायशीलता पर आस्था रखना, आस्तिकता की पृष्ठभूमि है । यह मान्यता मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सकने में पूर्णतया समर्थ होती है । सर्वव्यापी ईश्वर की दृष्टि में हमारा गुप्त-प्रकट कोई आचरण अथवा भाव छिप नहीं सकता । समाज की, पुलिस की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, पर घट-घटवासी परमेश्वर से तो कुछ छिपाया नहीं जा सकता ।

सत्कर्मों का या दुष्कर्मों का दण्ड आज नहीं तो कल मिलेगा ही, यह मान्यता वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में नीति और कर्त्तव्य का पालन करते रहने की प्रेरणा देती है । सत्कर्म करने वाले को यदि प्रशंसा, मान्यता या सफलता नहीं मिली है तो ईश्वर भविष्य में देगा ही, यह आस्था उसे निराश नहीं होने देती और असफलताएँ मिलने पर भी वह सदाचरण के पथ पर आरूढ़ बना रहता है । इसी प्रकार कुकर्मी निर्भय नहीं हो पाता ।

आस्तिकता धर्म का इसलिए प्रथम आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है कि उससे हमारा सदाचरण अक्षुण्य बना रह सकता है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०)

विभिन्न देवता और उनकी अलंकारिक कल्पना

भारतीय संस्कृति एक ही ब्रह्म मानती है । वस्तुत: भगवान एक ही है । नाम उसके अनेक हैं । रूपों की कल्पना अलग-अलग मतानुसार अलग-अलग प्रकार की गई है पर इससे ब्रह्म की एकता में कोई अन्तर नहीं आता है । अनेक देवता अनेक सत्ताएँ नहीं है वरन् एक ही परमात्मा की शक्तियाँ भर हैं ।
अनेक देवताओं की अलंकारिक कल्पना परोक्ष रूप में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना के लिए है । उनके स्वरूप, वाहन, आयुध आदि में भी अनेक रहस्य और अर्थ छिपे पड़े हैं । जिन्हें चर्चा का विषय बनाकर हम उस देवता के भक्त, अनुयायी बनकर वैसा ही आचरण करने की प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं । हर देवता इसी प्रकार की प्रेरणा, शिक्षा एवं अभिव्यंजना का रहस्यवाद अपने भीतर छिपाये हुए हैं ।

देवपूजा में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ और कर्मकाण्डों के पीछे भी धर्म और अध्यात्म के पथ पर चलने वाले साधकों को बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षण प्रस्तुत मिलेगा ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.११)

मूल्यांकन की कसौटी

मनुष्य की श्रेष्ठता की कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके द्वारा मानवीय उच्च मूल्यों का निर्वाह कितना हो सका, उनको कितना प्रोत्साहन दे सका। योग्यताएँ विभूतियाँ तो साधन मात्र हैं। लाठी एवं चाकू स्वयं न तो प्रशंसनीय हैं, न निन्दनीय। उनका प्रयोग पीड़ा पहुँचाने के लिए हुआ या प्राण रक्षा के लिए ? इसी आधार पर उनकी भर्त्सना या प्रशंसा की जा सकती है।

मनुष्य की विभूतियाँ एवं योग्यताएँ भी ऐसे ही साधन हैं। उनका उपयोग कहाँ होता है इसका पता उसके विचारों एवं कार्यों से लगता है। वे यदि सद् हैं तो यह साधन भी सद् हैं पर यदि वे असद् हैं, तो वह साधन भी असद् ही कहे जायेंगे।

मनुष्यता का गौरव एवं सम्मान इन जड़-साधनों से नहीं उसके प्राणरूप सद्विचारों एवं सद्प्रवृत्तियों से जोड़ा जाना चाहिए। उसी आधार पर सम्मान देने, प्राप्त करने की परम्परा बनायी जानी चाहिए।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (५.१३

बुद्धि पर नियंत्रण

मनुष्य ने आज बुद्धि को तो विकट रूप से बढ़ा लिया है, किन्तु उस पर नियंत्रण करना नहीं सीखा है । बुद्धि का अनियन्त्रित विकास केवल दूसरों के लिए ही दुःखदायी नहीं होता, स्वयं अपने लिए भी हानिकर होता है । अतिबुद्धि मानव को चिन्तन, असन्तोष की ज्वाला में ही जलना होता है । वह बहुत कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाता । एक बुद्धिवादी कितना ही शास्त्रज्ञ, विशेषज्ञ, दार्शनिक, वैज्ञानिक, तत्ववेत्ता आदि क्यों न हो, बुद्धि का अहंकार उसके ह्दय में शान्ति को न ठहरने देगा । वह दूसरों को ज्ञान देता हुआ भी आत्मिक शान्ति के लिए तड़पता ही रहेगा । बुद्धि की तीव्रता पैनी छुरी की तरह किसी दूसरे अथवा अपने को दिन रात काटती ही रहती है । मानव की अनियन्त्रित बुद्धि, शक्ति मनुष्य जाति की बहुत बड़ी शत्रु है । अतएव बुद्धि के विकास के साथ-साथ उसका नियंत्रण भी आवश्यक है ।

किसी शक्तिशाली का नियंत्रण तो उससे अधिक शक्ति से ही हो सकता है । तब भला समग्र सृष्टि को अपनी मुठ्ठी में करने वाली बुद्धि का नियंत्रण करने के लिये कौन-सी दूसरी शक्ति मनुष्य के पास हो सकती है ? मनुष्य की वह दूसरी शक्ति है-श्रद्धा, जिससे बुद्धि जैसी उच्छृंखल शक्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है, उसका नियंत्रण किया जा सकता है । श्रद्धा के आधार के बिना बुद्धि एक बावले बवण्डर से अधिक कुछ भी नहीं है । श्रद्धा रहित बुद्धि जिधर भी चलेगी, उधर दुःखद परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करेगी ।

मानवता के इतिहास में दो परस्पर ख्याति के व्यक्तियों के नाम पाये जाते हैं । एक वर्ग तो वह है, जिसने संसार को नष्ट कर डालने, जातियों को मिटा डालने तथा मानवता को जला डालने का प्रयत्न किया है । दूसरा वर्ग वह है जिसने मानवता का कष्ट दूर करने, संसार की रक्षा करने, देश और जातियों को बचाने के लिए तप किया है, संघर्ष किया है और प्राण दिये हैं । इतिहास के पन्नों पर आने वाले यह दोनों वर्ग निश्चित रूप से बुद्धि-बल वाले रहे हैं । अन्तर केवल यह रहा है कि श्रद्धा के अभाव में एक की बुद्धि-शक्ति अनियन्त्रित होकर बर्बरता का सम्पादन कर सकी है और दूसरे का बुद्धि-बल श्रद्धा द्वारा नियन्त्रित होने से सज्जनता का प्रतिपादन करता रहा है ।

आज अवसर है, साधन हैं । मनुष्य चाहे तो सृजन का देवदूत बन सकता है और चाहे तो शैतान का अनुचर ।

Book : जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-7.11

परिवार - जीवन निर्माण की प्रयोगशाला

तैरना सीखने के लिए तालाब चाहिए । निशाना साधने के लिए बंदूक, पढऩे के लिए पुस्तक चाहिए और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए प्रयोगशाला । यों अपनी आस्थाएँ, मान्यताएँ एकाकी भी बनाई, बदली जा सकती हैं । पर वे खरी उतरी कि नहीं, परिपक्व हुई कि नहीं, इसका परीक्षण भी होना चाहिए । इसके लिए उपयुक्त कसौटी परिवार ही हो सकता है । फिर वह ईश्वर का सींचा हुआ एक बगीचा भी है । उसे भी कर्मठ और कुशल माली की तरह सम्भाला सॅंजोया जाना है । 

विश्व-मानव के चरणों में मनुष्य अपनी श्रेष्ठतम श्रद्धांजलि एक सुसंस्कृत परिवार के रूप में ही तो प्रस्तुत करता है । परिवार निर्माण की प्रक्रिया जहाँ पुनीत उत्तरदायित्व का निर्वाह करती है, वहाँ आत्म-निर्माण का पथ प्रशस्त करने में भी असाधारण रूप से सहायक होती है ।
Book : युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (१.२४)

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