रविवार, 17 जुलाई 2011

Safalta


If one day.....


अध्यात्मवाद

वर्तमान की समस्त समस्याओं का एक सहज सरल निदान है- अध्यात्मवाद। यदि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक जैसे सभी क्षेत्रों में अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाये, तो समस्त समस्याओं का समाधान साथ-साथ होता चले और आत्मिक प्रगति के लिए अवसर एवं अवकाश भी मिलता रहे। विषयों में सर्वथा भौतिक दृष्टिकोण रखने से ही सारी समस्याओं का सूत्रपात होता है। दृष्टिकोण में वांछित परिवर्तन लाते ही सब काम बनने लगेगें।

अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्परूप है, संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है, जब शरीर को भोग साधन समझ कर बरता जाता है। आहार-विहार और रहन-सहन को विचार परक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ्य समाप्त हो जाता है। विभिन्न शारीरिक समस्याओं का आसानी से हल निकल सकता है, यदि इस संदर्भ में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाय। पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। यदि शरीर को पूरी तरह पवित्र और स्वच्छ रखा जाय, आत्म संयम और नियमितता द्वारा शरीर धर्म का पालन करते रहा जाय, तो शरीर पूरी तरह स्वस्थ बना रहेगा तथा शारीरिक संकट की संभावना ही न रहेगी। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहेगा।

शारीरिक स्वास्थ्य की अवनति या बीमारियों की चढ़ाई अपने आप नहीं होती, वरन् उसका कारण भी अपनी भूल है। आहार में असावधानी, प्राकृतिक नियमों की उपेक्षा, शक्तियों का अधिक खर्च, स्वास्थ्य में गिरावट के प्रधान कारण होते हैं। जो लोग अपने स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देते हैं, उसके नियमों का ठीक-ठीक पालन करते हैं, वे सुदृढ़ एवं निरोग बने रहते हैं।

मनुष्य का मन शरीर से भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वन्द रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है, किंतु यह खेद का विषय है कि आज लोगों की मनोभूमि बुरी तरह विकारग्रस्त बनी हुई है। चिंता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ एवं आवेगों का भूकंप उसे अस्त-व्यस्त बनाये रखता है। यदि इस प्रचण्ड मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्त्व समझ लिया जाय और निःस्वार्थ निर्लोभ एवं निर्विकारिता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर लिया जाय, तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ा जा सकता है।

सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह-सहयोग क्रिया-कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दाम्पत्य, ससुंस्कृत संतान, प्रगतिशील विकास क्रम, श्रद्धा, सम्मान, सुव्यवस्थित एवं संतुष्ट जीवन का एकमात्र सुदृढ़ आधार अध्यात्म ही है। आत्म-परिष्कार से संसार परिष्कृत होता चला जाता है। अपने को सुधारने से सारी समस्याओं का समाधान होता चला जाता है। अपने को ठीक कर लेने से आसपास के वातावरण के ठीक बनने में देर नहीं लगती। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जो अपना सुधार नहीं कर सका, अपनी गतिविधियों को सुव्यवस्थित नहीं कर सका, उसका भविष्य अंधकार मय ही बना रहेगा। इसीलिए मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है। 

-डॉ. प्रणव पण्ड्या
(लेखक- देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं।)


यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
vedmatram@gmail.com

जो कुछ चाहें, वह सब पायें

आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार सभी प्राणियों में एक ही चेतना का अस्तित्व विद्यमान है। शरीर की दृष्टि से वे भले ही अलग-अलग हों, पर वस्तुतः आत्मिक दृष्टि से सभी एक हैं। इस संदर्भ में परामनोविज्ञान की मान्यता है विश्व-मानस एक अथाह और असीम जल राशि की तरह है। व्यक्तिगत चेतना उसी विचार महासागर (यूनीवर्सल माइण्ड) की एक नगण्य -सी तरंग है, इसी के माध्यम से व्यक्ति अनेक विविध चेतनाएँ उपलब्ध करता है और अपनी विशेषताएँ सम्मिलित करके फिर उसे वापस उसी समुद्र को समर्पित कर देता है। 

इच्छा शक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रभावित करना अब एक स्वतंत्र विज्ञान बन गया है, जिसे साइकोकिनस्रिस्य कहते हैं। इस विज्ञान पक्ष का प्रतिपादन है कि ठोस दिखने वाले पदार्थों के भीतर भी विद्युत अणुओं की तीव्रगामी हलचलें जारी रहती है। इन अणुओं के अंतर्गत जो चेतना तत्त्व विद्यमान है, उन्हें मनोबल की शक्ति-तरंगों द्वारा प्रभावित, नियंत्रित और परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रकार मौलिक जगत पर मनःशक्ति के नियंत्रण को एक तथ्य माना जा सकता है।

भारत ही नहीं, अपितु अन्य देशों में भी अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति बढ़ाने और उसे प्रखर बना लेने के रूप में ऐसी कई विचित्रताएँ देखने को मिल जाती हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कुछ विशेष परिस्थतियों में ही शान्त, सन्तुलित, सुखी और संतुष्ट भले ही रहता हो, परन्तु इच्छाशक्ति को बढ़ाया जाय तथा अभ्यास किया जाय, तो वह अपने को चाहे जिस रूप में बदल सकता है। इच्छा और संकल्पशक्ति के आधार पर असंभव लगने वाले दुष्कर कार्य भी किए जा सकते हैं। 

कुछ वर्ष पूर्व मैक्सिको (अमेरिका) में डॉ. राल्फ एलेक्जेंडर ने इच्छाशक्ति की प्रचण्ड क्षमता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों को किसी भी स्थान से किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी भी शक्ल दी जा सकती है। इतना ही नहीं, बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ऐलेन एप्रागेट ने साइकोलॉजी पत्रिका में उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए बताया कि मनुष्य की इच्छा शक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युत धारा है और उसके आधार पर प्रकृति की हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया संभव है। अमेरिका के ही ओरीलिया शहर में डॉ. एलेग्जेंडर ने एक शोध संस्थान खोल रखा है, जहाँ वस्तुओं पर मनः शक्ति के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन विधिवत् किया जा रहा है। तद्नुसार एक व्यक्ति के विचार दूरवर्ती दूसरे व्यक्ति तक भी पहुँच सकते हैं और वस्तुओं को ही नहीं, व्यक्तियों को भी प्रभावित कर सकते हैं। यह तथ्य अब असंदिग्ध हो चला है। अनायास घटने वाली घटनाएँ ही इसकी साक्षी नहीं है, वरन् प्रयोग करके यह भी संभव बनाया जा सकता है कि यदि इच्छा शक्ति आवश्यक परिमाण में विद्यमान हो या दो व्यक्तियों के बीच पर्याप्त घनिष्ठता हो तो विचारों के वायरलैस द्वारा एक दूसरे से सम्पर्क संबंध स्थापित किया जा सकता है और अपने मन की बात कही-सुनी जा सकती है। 

अभी तक ऐसी अनेक घटनाएँ घटी है और ऐसे कई प्रामाणिक तथ्य मिले हैं, जिसके आधार पर यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अपनी बढ़ी हुई इच्छाशक्ति को और बढ़ाकर इस संसार के सिरजनहार की तरह समर्थ और शक्तिमान बन सकता है, क्योंकि अलग-अलग एकाकी इकाई दिखाई पडऩे पर भी वह है तो उसी का अंश।

-शैल दीदी पण्ड्या




यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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मनुष्य महान् क्यों ?

यदि व्यक्ति द्वारा अपना अस्तित्व पहचाना जा सके, तो वस्तुस्थिति का ज्ञान सहज ही हो सकता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आत्म-ज्ञान हो जाने से व्यक्ति अकर्मण्य, निष्क्रिय होकर बैठ जायेगा। सत्य की प्राप्ति कभी किसी क्षेत्र में अनर्थ नहीं करती। सत्य का ढोंग ही अनर्थ करता है। जब यह अनुभव हो जाये कि वस्तुतः यह संसार एक क्रीडांगण है, जहाँ एक ही चेतन सत्ता खेल रही है। यह जगत् अभिनयमय है, जहाँ प्रत्येक जीवात्मा को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए भेजा गया है, तो अधिक प्रखरता से साधना हो सकेगी। प्राचीनकाल में ऋषियों ने अपनी अंतर्दृष्टि से, साधना-उपासना से इस भ्रमजाल, मायामय संसार के सत्य को पहचाना था। विज्ञान भी अब उसी बिन्दु की ओर पहुँच रहा है। इसमें कोई संशय नहीं है कि सत्य को प्राप्त करने के लिए सच्ची लगन और जिज्ञासा से किसी क्षेत्र में प्रयास किया जाय, अंततः वह यात्रा एक ही गंतव्य में जाकर समाप्त होगी।

सृष्टि की सबसे विलक्षण, अद्भुत तथा सामर्थ्यवान संरचना है-मनुष्य। किसी भी वस्तु का सही स्वरूप और सामर्थ्य अविज्ञात हो, तो उससे समुचित लाभ उठाते नहीं बनता। प्रकृति की कितनी ही शक्ति धाराओं का ज्ञान मनुष्य को लाखों वर्ष तक न था। फलस्वरूप उनसे लाभ नहीं मिल सका। आज ही नहीं, लाखों वर्ष पूर्व भी वे गुण पदार्थ के गर्भ में विद्यमान थे, जिनसे परमाणु बम जैसे घातक हथियार बनते हैं। वस्तुएँ भी मौजूद थीं, जिनसे राकेटों, अंतरिक्ष उपग्रहों का निर्माण होता है। ऊर्जा के प्रचुर पेट्रोलियम भण्डार पृथ्वी के भीतर दबे पड़े थे, पर दीर्घकाल तक जानकारियों का अभाव बना रहा। फलतः उनसे मनुष्य जाति को प्रगति में विशेष सहयोग न मिल सका। जैसे-जैसे उनकी सामर्थ्य का पता प्राप्त करने की विधा हाथ लगी, द्रुतगति से प्रगति पथ पर बढ़ चलने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

अतिरिक्त उत्तरदायित्वों के आधार पर ही किसी को अतिरिक्त साधन दिये जा सकते हैं, अन्यथा ईश्वर को अन्यायियों और पक्षपातियों का सरताज कहा जाता। मनुष्य को मौज उड़ाने के लिए इतना साधन संपन्न बनाने के विरोध में सभी जीवधारी मिल जुलकर आवाज उठाते और नीति-न्याय की कचहरी में इन मिलीभगत वाले ईश्वर और मनुष्य की चैकड़ी को कड़ी सजा दिलाकर रहते। ईश्वर बड़ा है, पर बड़े का अर्थ यह तो नहीं कि वह अपनी ही बनाई मर्यादाओं को तहस-नहस कर दे और मात्र एक ही प्राणी पर स्वेच्छापूर्वक सुख-साधनों का अम्बार बरसा दे तथा दूसरे सभी उस सबके लिए तरसते भर रहें।

निश्चित रूप से मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों से अतिरिक्त मिला है, उसके दो ही प्रयोजन हैं। एक आत्म-कल्याण अर्थात् आदर्शों की दृष्टि से अपने को पूर्णता के स्तर तक पहुँचाना। दूसरा विश्व कल्याण-अर्थात् विश्व उद्यान को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत बनाने में स्रष्टा का हाथ बँटाना, क्रिया कुशल माली की भावभरी भूमिका निभाना। इन दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही मनुष्य को युवराज जैसी वरिष्ठता दी गयी है। इसकी उपेक्षा करके यदि वह शरीरचर्या में निरत रहकर असंयम बरतता है, तो उसकी विलासिता, तृष्णा और अहंता द्वारा अपनाई गयी उद्दण्डता अपराध श्रेणी में गिनी जायेगी। महत्त्वपूर्ण पदों पर अवस्थित अधिकारी जब उत्तरदायित्वों की अवहेलना करते हैं, तो उन्हें भर्त्सना एवं प्रताडऩा भी उतनी ही बड़ी मिलती है।

जीवन को यदि सार्थक बनाना है, आत्मा को यदि जीवन में भागीदार मानना है, तो ईमानदारी इसी में है कि उसकी आवश्यकता समझी जाय, उपलब्धियों में हिस्सेदारी दी जाय। प्रगति और प्रसन्नता का लाभ शत-प्रतिशत शरीर को ही न मिलता रहे, उसकी हिस्सेदारी आत्मा के लिए भी होनी चाहिए।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या
(लेखक- देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति हैं।)

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अपनी यथार्थता जानें

मानव जीवन एक प्रकार से देवत्व प्राप्ति का अवसर है। इस अवसर का सदुपयोग कर मानव से महामानव, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम तक बना जा सकता है। मानव शरीर की संरचना भगवान् की श्रेष्ठतम कृति है। इस सृष्टि में मनुष्य से बढक़र अन्य कोई प्राणी उसने इतना अद्भुत एवं प्रतिभावान नहीं बनाया। इस मानव जीवन में ही शिक्षा, कला, विज्ञान, आवास के सुंदर-सुंदर भवन, जल, थल एवं नभ में विचरण का अवसर प्राप्त हुआ है। नाना प्रकार के रंग-बिरंगे सपनों को साकार करने का अवसर इसी जीवन में उपलब्ध है। यह सुविधा तो देवयोनि में भी संभव नहीं है।

पूर्णता की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय आदर्श एवं पवित्रतम दैवी जीवन यापन किया जाय तथा अपनी उपार्जित शक्ति-सम्पदा का न्यूनतम अपने लिए तथा अधिकतम दूसरों के लिए खर्च किया जाय, इसी को मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग माना गया है। राजा का बड़ा पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाता है, किन्तु उसका कर्तव्य है कि वह अपने अन्य छोटे भाई-बहिनों की देखरेख व सुरक्षा का समुचित प्रबंध करे। परम पिता का सर्वश्रेष्ठ युवराज होने के नाते मनुष्य का भी उत्तरदायित्व यही है कि अपने से अविकसित, पिछड़े प्राणियों को, जो हमारे छोटे भाई-बहिन के समान हैं, उनको विकसित करने, आगे बढ़ाने में उदारतापूर्वक सहयोग करे। उनको सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करे।

शरीर और मन जीवन रूपी रथ के दो पहियों के समान हैं। इन दोनों का अपना स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है। यह अन्तःकरण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप दोनों स्वामिभक्त सेवक के समान सदैव उसकी आज्ञा का पालन मात्र करते रहते हैं। शरीर द्वारा क्रिया मन द्वारा विचारणा उसी ओर घूमती एवं चलती है, जिधर अंतरात्मा की भावना प्रेरित करती है। भावनाएँ ही श्रद्धा, आस्था, निष्ठा एवं मान्यता आदि नामों से जानी जाती हैं। इन्हीं सबके समन्वय से आकांक्षाएँ उभरती हैं और फिर उन्हीं के अनुरूप मन अपना तर्क, वितर्क, चिंतन एवं क्रिया प्रणाली निर्धारित करता है। तदुपरान्त गुलाम की तरह शारीरिक हलचलें क्रिया रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। ऐसे में शरीर और मन दोनों को निर्दोष ही माना जाएगा। भला या बुरा, उत्थान या पतन जिस भी मार्ग में बढ़ जाता है, उसका सारा दारोमदार अन्तःकरण पर ही जाता है।

आत्मज्ञान, आत्मबोध का अभिप्राय अंतराल के गहन स्तर में यह अनुभूति एवं विश्वास उत्पन्न करते रहना कि हम सत्, चित्त, आनंद स्वरूप परमात्मा के ही अभिन्न अंग हैं। हमें यह भावना भी उत्पन्न करनी चाहिए कि संकीर्ण स्वार्थपरता त्याज्य है। व्यक्तिवादी आपाधापी अंततोगत्वा पतन के ही मार्ग में धकेलती है। अस्तु व्यक्ति से उठकर समष्टि पर ध्यान दिया जाना चाहिए। भगवान बुद्ध को जब आत्मबोध प्राप्त हुआ था, तब वे संकीर्ण स्वार्थयुक्त राजपाट को त्यागकर समष्टिगत हित साधना में लग गए थे। स्वयं ही नहीं अपने अबोध बालक एवं पत्नी को भी लोकहित के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति की क्रिया पद्धति में आदर्शवादिता ही आदर्शवादिता उभरती, उछलती रहती है। ऐसे लोग स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, समाज के लाखों-करोड़ों सामान्यजनों के लिए मार्गदर्शन का भी कार्य कर जाते हैं।

-डॉ. प्रणव पण्ड्या)



यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान

गायत्री परिवार के जनक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार में दिये गये प्रवचनों में से एक है- 

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ


ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

देवता देते तो हैं, इसमें कोई शक नहीं है। अगर वे देते न होते, तो उनका नाम देवता न रखा गया होता। देवता का अर्थ ही होता है-देने वाला। देने वाले से अगर माँगने वाला कुछ माँगता है, तो कोई बेजा बात नहीं है, पर विचार करना पड़ेगा कि आखिर देवता देते क्या चीज हैं? देवता वही चीज देते हैं, जो उनके पास है। जिसके पास जो चीज होगी, वही तो दे पाएगा। देवता के पास सिर्फ एक चीज है और उसका नाम है-देवत्व। देवत्व कहते हैं- गुण, कर्म और स्वभाव-तीनों की अच्छाई को, श्रेष्ठता को। इतना देने के बाद में देवता निश्चिन्त हो जाते हैं, निवृत्त हो जाते हैं और कहते हैं कि जो हम आपको दे सकते थे, हमने वह दे दिया। अब आपका काम है कि जो चीज हमने दी है, उसको जहाँ भी आप मुनासिब समझें, वहाँ इस्तेमाल करें और उसी किस्म की सफलता पाएँ।

दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है- आदमी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व। इससे कम में कोई चीज नहीं मिल सकती। अगर कहीं से किसी ने घटिया व्यक्तित्व की कीमत पर किसी तरीके से अपने सिक्के को भुनाए बिना, अपनी योग्यता का सबूत दिये बिना, परिश्रम के बिना, गुणों के अभाव में, कोई चीज प्राप्त कर ली है, तो वह उसके पास ठहरेगी नहीं। शरीर में हजम करने की ताकत न हो, तो जो खुराक आपने खाई है, वह आपको हैरान करेगी, परेशान करेगी। इसी तरह सम्पत्तियों को, सुविधाओं को हजम करने के लिए गुणों का माद्दा नहीं होगा, तो वे आपको तंग करेंगी, परेशान करेंगी। अगर गुण नहीं है, तो जैसे-जैसे दौलत बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे आपके अन्दर दोष-दुर्गुण बढ़ते जाएँगे, व्यसन बढ़ते जाएँगे, अहंकार बढ़ता जाएगा और आपकी जिन्दगी को तबाह कर देगा।

देवता क्या देते हैं? देवता हजम करने की ताकत देते हैं। जो दुनियाबी दौलत या जिन चीजों को आप माँगते हैं, जो आपकी खुशी का बायस मालूम पड़ती है, उन सारी चीजों को हजम करने के लिए विशेषता होनी चाहिए। इसी का नाम है-देवत्व। देवत्व अगर प्राप्त हो जाता है, तो फिर आप दुनिया की हर चीज से, थोड़ी से थीड़ी चीजों को लेकर फायदा उठा सकते हैं। अगर वे न भी हों, तो भी काम चल सकता है। ज्यादा चीजें हो जाएँ, तो भी अच्छा है, यदि न हो जाएँ, तो भी कोई हर्ज नहीं है, लेकिन अगर आप इस बात के लिए उतावले हैं कि जैसे भी हम पिछड़े हैं, वैसे ही बने रहें, तो फिर कुछ कहना संभव नहीं है। मनुष्य के शरीर में ताकत होनी चाहिए, लेकिन समझदारी का नियंत्रण न होने से आग में घी डालने, ईंधन डालने के तरीके से वह सिर्फ दुनिया में मुसीबतें पैदा करेंगी। देवता किसी को दौलत देने की गलती नहीं कर सकते। अगर देते हैं, तो इसका मतलब है कि तबाही कर रहे हैं। इनसानियत उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी का चिंतन, दृष्टिकोण, महत्त्वाकांक्षाएँ और गतिविधियाँ ऊँचे स्तर की हो जाती हैं। इनसानियत एक बड़ी चीज है।

मनोकामनाएँ पूरी करना खराब बात नहीं है, पर शर्त एक ही है कि यह किस काम के लिए, किस चीज के लिए माँगी गई है? अगर सांसारिकता के लिए माँगी गयी है, तो उससे पहले यह जानना जरूरी है कि उस दौलत को हजम कैसे कर सकते हैं? उसे खर्च कैसे कर सकते हैं? मनुष्य भूल कर सकता है, पर देवता भूल नहीं कर सकते। देवता आपको वे चीजें नहीं दे सकते, जैसा कि आप चाहते हैं। देवताओं के सम्पर्क में आने वाले को भौतिक वस्तुएँ नहीं मिलीं। क्या मिला है? आदमी को गुण मिले हैं, देवत्व मिला है। सद्गुणों के आधार पर आदमी को विकास करने का मौका मिला है। गुणों के विकसित होने के पश्चात् उन्होंने वह काम किए हैं, जिन्हें सामान्य बुद्धि से काम करते हुए नहीं कर सकता। देवत्व के विकसित होने पर कोई भी उन्नति के शिखर पर जा - पहुँच सकता है, चाहे वह सांसारिक हो अथवा आध्यात्मिक। संसार और अध्यात्म में कोई फर्क नहीं पड़ता। गुणों के इस्तेमाल करने का तरीका भर है। गुण अपने आप में शक्ति के पुंज हैं, कर्म अपने आप में शक्ति पुंज है और स्वभाव अपने आप में शक्ति के पुंज हैं। इन्हें कहाँ इस्तेमाल करना चाहते हैं, यह आपकी इच्छा की बात है। जिससे इस कार्य में सफलता पा ली, मानों उसे सब कुछ मिल गया। उसका जीवन देवतुल्य बन गया और जहाँ देवता निवास करते हैं, वह स्थान स्वर्ग ही कहा जायेगा। वहाँ के रहने वालों का जीवन हँसी-खुशी से भरा-पुरा रहता है। 

-डॉ. प्रणव पण्ड्या


यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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तीर्थ यात्रा, महत्त्व और उद्देश्य

हमारा भारत देश तीर्थों का देश है। उसकी प्रत्यक्ष धार्मिकता का स्वरूप खुली आँखों से देखना हो, तो इन पुण्य क्षेत्रों के निर्माण में किये गये प्रयासों, लगाये हुए साधनों और पहुँचने वाले दर्शकों को देखकर लगाया जा सकता है। 

तीर्थ की पुण्य परंपरा एवं उसके महत्त्व पर गायत्री चेतना केन्द्र प्रमुख ने कहा कि तीर्थों के प्राचीन स्वरूप और कार्यक्रमों पर पैनी दृष्टि डालने से स्थिति को समझने में कठिनाई नहीं रहती और उनकी गरिमा बखानने में जो बात कहीं गई है। उनका आधारभूत कारण समझने में कोई अड़चन शेष नहीं रह जाती और यह विश्वास करना सरल पड़ता है कि प्राचीन काल में तीर्थों की कार्य पद्धति और विधि व्यवस्था के सम्पर्क में आने वाले निश्चित रूप से वैसा ही लाभ पाते रहे होंगे, जैसा कि कहा गया है। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया को तीर्थों की आत्मा कह सकते हैं। उसकी विशिष्टता को गवाँ देने के कारण आज तीर्थों का स्वरूप पर्यटन केन्द्रों जैसा होता जा रहा है और उनकी महत्ता एवं पुण्य फल का जो वर्णन किया गया है, उस का कुछ परिणाम न होने से विश्वास करना कठिन पड़ता है।

प्राचीन काल में तीर्थ ऐसे साधना केन्द्रों के रूप में स्थापित एवं विकसित किए गये थे, जिनसे अंतराल की गहरी परतों का उपचार परिष्कार एवं उत्कर्ष संभव हो सके। इस प्रक्रिया को एक प्रकार से उपयोगी वातावरण में बने हुए साधन सम्पन्न तथा मूर्धन्य चिकित्सकों से भरे-पूरे सैनेटोरियम की उपमा दी जा सकती है। अंतर इतना ही है कि वे उपचार केन्द्र मात्र स्वास्थ्य लाभ भर दे सकते हैं, जबकि तीर्थों से न केवल चिन्तन को मोडऩे-मरोडऩे वाली स्वाध्याय, सत्संग जैसी परिचर्चा चलती है, वरन् मेजर ऑपरेशनों, प्लास्टिक सर्जरी जैसी सुविधा भी रहती है। अन्तःकरण को, अचेतन मन के रहस्यमय क्षेत्रों को सुधारने सँभालने का कार्य तीर्थों में होता रहता है। उसकी कुछ-कुछ तुलना वैज्ञानिक उपचारों से किये जाने वाले ब्रेन वाशिं से की जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारने वाले, व्यक्तित्व को सामान्य से असामान्य बनाने वाले उपचार एवं अभ्यास केन्द्रों के रूप में महामनीषियों ने तीर्थों की स्थापना की थी और यह स्थापना अपने समय में पूर्ण तथा सफल भी रही।

आज की तरह तीर्थ यात्रा में भगदड़ के लिए गुंजाइश नहीं थी। जिस-तिस देवालय को भागते- दौड़ते देख भर लेना, पाई-पैसा चढ़ाकर देवता का अनुग्रह बटोर लेना, जलाशय में डुबकी मारकर पाप से पीछा छुड़ा लेना, देवी-देवताओं की प्रतिमा एवं मूर्तियों से मनोकामना की पूर्ति के लिए मनौती माँगते फिरना आज का शुगल है। छोटी बुद्धि इतना ही सोच सकती है और इतना ही उससे बन पडऩा सम्भव है। उच्च दृष्टि और तत्वान्वेषी बुद्धि ही कार्य-कारण की संगति बिठाती है। जिन दिनों लोगों में वस्तुस्थिति समझने की क्षमता न थी, उन दिनों भी लोग तीर्थों में जाते थे, पर उनका उद्देश्य और कार्यक्रम उतना उथला नहीं रहता था, जितना आज देखा जाता है। वे ठण्डक नहीं शान्ति पाने जाते थे। पुण्य नहीं प्रकाश की कामना लेकर पहुँचते थे। मानसिक आरोग्य की उपयोगिता शारीरिक स्वास्थ्य से भी बढ़ी-चढ़ी है।

अस्पतालों, मानसिक चिकित्सालयों, स्वास्थ्य केन्द्रों विश्राम गृहों की उपयोगिता तो इन दिनों समझी जाती है। प्राचीन काल में आरण्यकों की भूमिका इन सबके संयुक्त लाभों से भी बढ़ी-चढ़ी होती थी। शारीरिक, मानसिक और आंतरिक व्याधि-वेदनाओं का निराकरण करने और विक्षोभ के स्थान पर उल्लास भर देने में आरण्यक पूर्णतया समर्थ रहते थे। उन दिनों तीर्थों का स्वरूप भी आरण्यकों जैसा ही बना हुआ था। अतएव मात्र पुण्य लाभ के लिए ही नहीं, प्रत्यक्ष जीवन में उस विशिष्टता को प्राप्त करने हेतु लोग तीर्थों में पहुँचते थे।

-वीरेश्वर उपाध्याय

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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आकर्षक व्यक्तित्व की कुंजी

व्यक्तित्व रूपी साँचे में ढलकर ही मनुष्य जीवन बनता है। अतः यदि जीवन को उच्च बनाना है, तो आवश्यक है कि हम पहले व्यक्तित्व को श्रेष्ठ बनायें। श्रेष्ठ व्यक्तित्व ही दिव्य जीवन की निशानी है। गुण, कर्म, स्वभाव इन तीनों का परिष्कार लाने से ही सही रूप में व्यक्तित्व निखरता है और निखरा हुआ व्यक्तित्व ही आकर्षक प्रतीत होता है। पूर्ण व्यक्तित्व अंतर और बाह्य दोनों स्तरों के सम्मिश्रण से ही बनता है। जहाँ आंतरिक सुधार आवश्यक है, वहीं भौतिक जीवन के दैनिक कार्यक्रमों में भी उत्कृष्टता बनाये रखना जरूरी है।

जीवन सरसता लिए होना चाहिए। यह सरसता अपने अन्दर धारण करने से उत्पन्न होती है। प्रसन्न मुख रहने वाले व्यक्ति की ओर सभी आकर्षित होते हैं। जो रोनी सूरत बनाये रखता है, उसके पास कोई फटकना पसंद नहीं करता। नीरस व्यक्ति के मुख का सौन्दर्य भी विकृत हो उठता है। हँसना एक गुण है, जिसका व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं चरित्र पर प्रभाव पड़ता है। 

आकर्षक व्यक्तित्व की कुंजी तो बाह्य और आंतरिक सुन्दरता में निहित है। मनुष्य अपने अन्तःकरण का प्रतिबिम्ब है। प्रसन्नता से पता चलता है कि व्यक्ति का मानस स्वस्थ है। स्वाभाविक मुस्कान से मन का भार हलका हो जाता है। दुःख की स्थिति में भी मुस्कुराने वाला व्यक्ति अपने मन को शुभ भावनाओं एवं सद्विचारों से आच्छादित रखता है। सब जीवों में मनुष्य जाति की एक बड़ी विशेषता है-हँसना। यह ईश्वर द्वारा मनुष्य को इसलिए दी गयी है कि वह क्षण भर में अपने दुःख-दर्दों से मुक्ति पा सके। मुस्कान एक ऐसी औषधि है, जिससे व्यक्ति के शरीर में स्फूर्ति एवं शक्ति आती है। कार्य में उत्साह उत्पन्न होता है, जो हमारे व्यक्तित्व के गठन में सहायक है। गंभीरता व्यक्ति के लिए आवश्यक है, किन्तु इससे भी अधिक आवश्यकता प्रसन्नता की है। हँसी व्यक्ति में प्राण शक्ति का संचार करती है, जो व्यक्ति को गतिशील एवं उन्नतिशील बनाती है। आकर्षक व्यक्तित्व प्रसन्नता एवं गंभीरता के मिश्रण से ही पूर्ण मुखरित होता है।

गुणों का विकास ही व्यक्तित्व के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु है। हममें नम्रता और सौम्यता होनी चाहिए। इससे हम अनेक दुर्गुणों से बचते व दूसरों को प्रभावित करते हैं। इसका अभिप्राय यह नहीं कि अनीति या गलत बात के सम्मुख भी हमें अपने स्वभावनुकूल झुक जाना चाहिए।

सोचने का ढंग भी मनुष्य के चरित्र विकास का महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य के प्रत्येक कार्य के पीछे उसके विचारों की ही प्रेरणा होती है। विचारों के अनुसार ही व्यक्ति के बोलने-चालने देखने का ढंग भी होता है। मनुष्य जीवन का प्रत्येक भाग उसके मस्तिष्क में उठने वाले विचारों से प्रभावित होता है। विचार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को विनिर्मित करते हैं। जैसे विचार होंगे, वैसा चरित्र बनेगा और जैसा चरित्र होगा, वैसा ही व्यक्तित्व बनेगा।

मानवीय विकास का अगला चरण है, अन्तःकरण को भाव संवेदनाओं से अभिपूरित करना। इसके लिए दूसरों की सहानुभूति मनुष्य की आंतरिक शक्तियों में से एक है। सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम और करुणा के सम्मिश्रण से होता है। वह आत्मा की निःस्वार्थ भाषा है, जिसकी वाणी मूक है, किन्तु हर हृदयवान उसे समझ लेता है। प्रेम, दया एवं करुणा ऐसे मानवीय गुण हैं, कि इनके अभाव में एक पल चलना भी भारी हो जाता है; किन्तु आज का विचारवान मनुष्य इन पर गहराई से ध्यान नहीं देता। प्रेम के अभाव में जीवन वीरान हो सकता है। करुणा, दया, सहयोग, के अभाव में समाज या परिवार का ढाँचा भी नहीं बन सकता। 

हर मनुष्य सहानुभूति का भूखा होता है। दुःख में संवेदना, दया किसी कीमती दवा से कम नहीं है। आपत्ति के समय प्रेम के, सांत्वना के दो शब्द शांति देते हैं। इसका अनुभव हर व्यक्ति को होगा। किसी की सहानुभूति मेरे साथ है, यह अनुभव मात्र मनुष्य को साहस प्रदान करता है। शारीरिक, आर्थिक या भौतिक रूप से उस सहानुभूति का हमारे स्वास्थ्य से गहरा संबंध है।

व्यक्तित्व की महानता का मूल्यांकन भौतिक संसाधनों से नहीं, बल्कि उन तथ्यों के आधार पर होना चाहिए, जो व्यक्ति को आत्मिक सुख और आनन्द की अनुभूति कराते हैं। दुःख में हमारी भूख मर जाती है और खुशी में दो रोटी ज्यादा खा लेते हैं। यह तथ्य सिद्ध करता है कि महान विचारों और गुणों का शरीर व मन पर गहरा प्रभाव है। स्वस्थ शरीर तथा स्वच्छ मन का निर्माण सद्गुणों से ही होता है। अतः सद्गुण ही सच्ची सम्पत्ति है। 

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल, रूद्रपुर ( नैनीताल ) से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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