कहना न होगा कि समस्त समृद्धि, प्रगति और शान्ति का सद्भाव मनुष्य के सद्गुणों पर अवलम्बित है। दुर्गुणी व्यक्ति हाथ में आई हुई, उत्तराधिकार में मिली हुई समृद्धियों को गवाँ बैठते हैं और सद्गुणी गई-गुजरी परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रगति के हजार मार्ग प्राप्त कर लेते हैं । सद्गुणी की विभूतियॉं ही व्यक्तित्व को प्रतिभावान बनाती हैं और प्रखर व्यक्तित्व ही हर क्षेत्र में सफलताएँ वरण करते चले जाते हैं ।
उठती आयु में सबसे अधिक उपार्जन सद्गुणों का ही किया जाना चाहिए । विद्या पढ़ी जाये सो ठीक है, खेल-कूद, व्यायाम आदि के द्वारा स्वास्थ्य बढ़ाया जाये, सो भी अच्छी बात है, विभिन्न कला-कौशल और चातुर्य सीखे जायें, वह भी सन्तोष की बात है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि इस आयु में जितनी अधिक सतर्कता और तत्परतापूर्वक सद्गुणो का अभ्यास किया जा सके, करना चाहिए । एक तराजू में एक और शिक्षा, बुद्धि, बल और धन आदि की सम्पत्तियाँ रखी जायें और दूसरी पलड़े में सद्गुण तो निश्चय ही यह दूसरा पलड़ा अधिक भारी और अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा । दुर्गुणी व्यक्ति साक्षात संकट स्वरूप है । वह अपने लिए पग-पग पर काँटे खड़े करेगा, अपने परिवार को त्रास देगा और समाज में अगणित उलझनें पैदा करेगा । उसका उपार्जन चाहे कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, कुकर्म बढ़ाने और विक्षोभ उत्पन्न करने वाले मार्ग में ही खर्च होगा । ऐसे मनुष्य अपयश, घृणा, द्वेष, निन्दा और भर्त्सना से तिरस्कृत होते हुए अन्तत: नारकीय यन्त्रणाएँ सहते हैं।
आज अभिभावक रुष्ट, अध्यापक दु:खी, साथी क्षुब्ध, स्वयं में उद्विग्नता हैं । इन सबका एक ही कारण है - दुर्गुणों की मात्रा बढ़ जाना । बुखार बढऩे की तरह मर्यादाओं का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति का बढऩा भी खतरनाक है । कहने का सार यह है कि जो भी हों अपने बच्चों को समझाने और सिखाने का हर कडुआ-मीठा उपाय हमें करना चाहिए कि वे सज्जन, शालीन, परिश्रमी और सत्पथगामी बनें, इसी में उनका और हम सबका कल्याण है ।
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०१)