रविवार, 1 अगस्त 2010

थैली से जुड़ा हमारा पर्यावरण

कुछ दिनों पहले मैंने टीवी पर पॉलीथिन की समस्या पर एक छोटी-सी फिल्म देखी। इसमें मैंने देखा कि किस तरह समंदर के तट पर एक मरा हुआ कछुआ मिला। इस दृश्य ने मुझे फिल्म देखने के लिए रोक लिया, क्योंकि मुझे कछुए अच्छे लगते हैं। मैंने देखा कि डॉक्टर कछुए की मौत का कारण पता लगा रहे हैं। जल्द ही कारण उनके हाथ में था। कछुए के पेट से निकली पॉलीथिन की थैली ही उसकी मौत की वजह थी। 

इस फिल्म को देखकर मुझे समझ आया कि हमारे द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली पॉलीथिन थैलियाँ किस तरह जल में रहने वाले जीवों के लिए मौत का कारण बन रही हैं। फिल्म में आगे बताया गया कि बड़ी व्हेल मछली हो या छोटी मछलियाँ पॉलीथिन के कारण सभी मारी जा रही हैं। फिल्म में भारत के भी कुछ दृश्य थे जिनमें हर कूड़े के ढेर पर पॉलीथिन का कचरा दिखाया गया था और गौमाता उनमें मुँह मार रही थी। 

भारत में लोग अब सब्जियों का कचरा भी पॉलीथिन में बंद करके फेंकते हैं जिसे खाने के चक्कर में पॉलीथिन भी गाय के पेट में चली जाती है और फिर लगातार पेट में पॉलीथिन के इकट्ठा होने से गाय की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है। गौमाता को पूजने वाले देश में गायें इस तरह पॉ‍लीथिन का कचरा खाकर मारी जा रही हैं यह सोचकर मुझे दुख हुआ।

फिल्म में दूसरे देशों में पॉलीथिन प्रदूषण का जिक्र भी था। इसमें बताया गया कि २००२ में जब ऑस्ट्रेलिया दिवस मनाया गया था तो इस दौरान इस देश में स्वच्छता अभियान चलाया गया था। तब पूरे ऑस्ट्रेलिया से करीब ५ लाख पॉलीथिन थैलियों का कचरा इकट्ठा किया गया था। सोचिए हर साल इतनी मात्रा में पन्नी की थैलियों का कचरा पर्यावरण का कितना नुकसान करता है।

इसके बाद ऑस्ट्रेलिया में पॉलीथिन थैलियों पर प्रतिबंध लगाने की बात भी उठी, पर इसे जनता के विवेक पर छोड़ दिया गया। ऑस्ट्रेलिया छोटा देश है, पर साउथ अफ्रीका जैसे देश में हर साल करीब ८ अरब पॉलीथिन थैलियाँ उपयोग में लाई जाती हैं और उपयोग के बाद ये कचरे में जाती हैं। सिंगापुर, थाईलैंड और आयरलैंड जैसे देशों में पॉलीथिन बैग का उपयोग कम करने के लिए इनके उपयोग पर भारी टैक्स लगाया गया है। लोग इन देशों में पॉलीथिन की थैलियों का बार-बार उपयोग करते हैं। फिल्म बनाने वाले का कहना था कि टैक्स लगाने से ज्यादा जरूरी है लोगों की सोच कि वे इन थैलियों का उपयोग करके दूसरों के जीवन को कितना मुश्किल में डाल रहे हैं। 

फिल्म में यह बताने वाले अनेक दृश्य थे कि किस तरह कचरे में फेंक दी गई पॉलीथिन मिट्टी और जलस्रोतों को प्रदूषित करती है। फिल्म से मैंने जाना कि एक प्लास्टिक बैग को मिट्टी में मिलने में २० से १००० साल तक लगते हैं। यह बहुत लंबा समय है और इतने समय तक एक बहुत छोटी प्लास्टिक की थैली कचरे के रूप में यहाँ-वहाँ प्रदूषण फैलाती रहती है। वह मिट्‍टी की उपजाऊ क्षमता को भी कम करती है। आपने भारत के हर बड़े शहर में पन्नी बीनने वाले बच्चे देखे होंगे। ये बच्चे कचरे के ढेर से पॉलीथिन निकालकर उसे रिसाइकलिंग सेंटर तक पहुँचाते हैं पर क्या हमें ही यह काम नहीं करना चाहिए?

घर में सब्जी, फल, धूल-मिट्‍टी और इस तरह का कचरा अलग फेंकना चाहिए, क्योंकि यह जल्दी ही मिट्‍टी में घुल-मिल जाता है जबकि पॉलिथीन जैसा कचरा जो सड़ने में बहुत लंबा समय लगाता है, अलग करके एक जगह रखना चाहिए जहाँ से वह कबाड़ी वाले के जरिए रिसाइकल होने के लिए पहुँच सके। इस तरह या पॉलिथिन थैलियों का उपयोग बंद करके और एक ही थैली का बार-बार उपयोग करके भी हम पर्यावरण की बेहतरी के लिए कुछ कर सकते हैं।

इस फिल्म को देखते हुए मुझे अपने दादाजी की याद भी आई, जो बाजार जाते हुए हमेशा एक कपड़े की थैली अपने साथ ले जाते थे और सब्जी-भाजी से किराने तक का सामान उसी में लाते थे। वे हमेशा एक कपड़े की थैली अपने साथ रखते थे। अब मुझे पता चला कि दादाजी की उस थैली के पीछे पर्यावरण को अच्छा बनाए रखने की बड़ी सीख छुपी थी।

ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं

एक बार स्वामी विवेकानंद जी मेरठ आए। उनको पढ़ने का खूब शौक था। इसलिए वे अपने शिष्य अखंडानंद द्वारा पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ने के लिए मँगवाते थे। केवल एक ही दिन में पुस्तक पढ़कर वापस करने के कारण ग्रंथपाल क्रोधित हो गया। उसने ग्रंथपाल से कहा कि रोज-रोज पुस्तकें बदलने में मुझे तकलीफ होती है। आप यह पुस्तक पढ़ते हैं कि केवल पन्ने ही बदलते हैं? 

अखंडानंद ने यह बात स्वामी जी को बताई तो वे स्वयं पुस्तकालय में गए और ग्रंथपाल से कहा ये सब पुस्तकें मैंने मँगवाई थीं। ये सब पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं। आप मुझसे इन पुस्तकों में से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। ग्रंथपाल को शंका थी कि पुस्तकों को पढ़ने समझने के लिए समय तो चाहिए। इसलिए उसने अपनी शंका के समाधान के लिए बहुत सारे प्रश्न पूछे। 

स्वामी विवेकानंद ने प्रत्येक प्रश्न का जवाब तो ठीक दिया ही, पर यह भी बता दिया कि वह प्रश्न पुस्तक के किस पृष्ठ पर है। तब ग्रंथपाल स्वामी जी की मेधा स्मरण शक्ति देखकर ग्रंथपाल आश्चर्यचकित हो गया। ऐसी स्मरण शक्ति का रहस्य पूछा। स्वामी विवेकानंद ने कहा - पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता और एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान। ध्यान के द्वारा ही हम इंद्रियों पर संयम रख सकते हैं। 

प्रभु को भी प्रिय है सरलता

सतपुड़ा के वन प्रांत में अनेक प्रकार के वृक्ष में दो वृक्ष सन्निकट थे। एक सरल-सीधा चंदन का वृक्ष था दूसरा टेढ़ा-मेढ़ा पलाश का वृक्ष था। पलाश पर फूल थे। उसकी शोभा से वन भी शोभित था। चंदन का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार सरल तथा पलाश का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार वक्र और कुटिल था, पर थे दोनों पड़ोसी व मित्र। यद्यपि दोनों भिन्न स्वभाव के थे। परंतु दोनों का जन्म एक ही स्थान पर साथ ही हुआ था। अत: दोनों सखा थे। 

कुठार लेकर एक बार लकड़हारे वन में घुस आए। चंदन का वृक्ष सहम गया। पलाश उसे भयभीत करते हुए बोला - 'सीधे वृक्ष को काट दिया जाता है। ज्यादा सीधे व सरल रहने का जमाना नहीं है। टेढ़ी उँगली से घी निकलता है। देखो सरलता से तुम्हारे ऊपर संकट आ गया। मुझसे सब दूर ही रहते हैं।'

चंदन का वृक्ष धीरे से बोला - 'भाई संसार में जन्म लेने वाले सभी का अंतिम समय आता ही है। परंतु दुख है कि तुमसे जाने कब मिलना होगा। अब चलते हैं। मुझे भूलना मत ईश्वर चाहेगा तो पुन: मिलेंगे। मेरे न रहने का दुख मत करना। आशा करता हूँ सभी वृक्षों के साथ तुम भी फलते-फूलते रहोगे।'

लकड़हारों ने आठ-दस प्रहार किए चंदन उनके कुल्हाड़े को सुगंधित करता हुआ सद्‍गति को प्राप्त हुआ। उसकी लकड़ी ऊँचे दाम में बेची गई। भगवान की काष्ठ प्रतिमा बनाने वाले ने उसकी बाँके बिहारी की मूर्ति बनाकर बेच दी। मूर्ति प्रतिष्ठा के अवसर पर यज्ञ-हवन का आयोजन रखा गया। बड़ा उत्सव होने वाला था। 

यज्ञीय समिधा (लकड़ी) की आवश्यकता थी। लकड़हारे उसी वन प्रांत में प्रवेश कर उस पलाश को देखने लगा जो काँप रहा था। यमदूत आ पहुँचे। अपने पड़ोसी चंदन के वृक्ष की अंतिम बातें याद करते हुए पलाश परलोक सिधार गया। उसके छोटे-छोटे टुकड़े होकर यज्ञशाला में पहुँचे।

यज्ञ मण्डप अच्छा सजा था। तोरण द्वार बना था। वेदज्ञ पंडितजन मंत्रोच्चार कर रहे थे। समिधा को पहचान कर काष्ट मूर्ति बन चंदन बोला - 'आओ मित्र! ईश्वर की इच्‍छा बड़ी बलवान है। फिर से तुम्हारा हमारा मिलन हो गया। अपने वन के वृक्षों का कुशल मंगल सुनाओ। मुझे वन की बहुत याद आती है। मंदिर में पंडित मंत्र पढ़ते हैं और मन में जंगल को याद करता हुआ रहता हूँ।

पलाश बोला - 'देखो, यज्ञ मंडप में यज्ञाग्नि प्रज्जवलित हो चुकी है। लगता है कुछ ही पल में राख हो जाऊँगा। अब नहीं मिल सकेंगे। मुझे भय लग रहा है। ‍अब बिछड़ना ही पड़ेगा।' 

चंदन ने कहा - 'भाई मैं सरल व सीधा था मुझे परमात्मा ने अपना आवास बनाकर धन्य कर‍ दिया तुम्हारे लिए भी मैंने भगवान से प्रार्थना की थी अत: यज्ञीय कार्य में देह त्याग रहे हो। अन्यथा दावानल में जल मरते। सरलता भगवान को प्रिय है। अगला जन्म मिले तो सरलता, सीधापन मत छोड़ना। सज्जन कठिनता में भी सरलता नहीं छोड़ते जबकि दुष्ट सरलता में भी कठोर हो जाते हैं। सरलता में तनाव नहीं रहता। तनाव से बचने का एक मात्र उपाय सरलता पूर्ण जीवन है।' 

बाबा तुलसीदास के रामचरितमानस में भगवान ने स्वयं ही कहा है - 
निरमल मन जन सो मोहिं पावा।
मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

अचानक पलाश का मुख एक आध्‍यात्मिक दीप्ति से चमक उठा।

अपनी भाषा का महत्व

इतिहास के प्रकांड पंडित डॉ. रघुबीर प्राय: फ्रांस जाया करते थे। वे सदा फ्रांस के राजवंश के एक परिवार के यहाँ ठहरा करते थे। उस परिवार में एक ग्यारह साल की सुंदर लड़की भी थी। वह भी डॉ. रघुबीर की खूब सेवा करती थी। अंकल-अंकल बोला करती थी।

एक बार डॉ. रघुबीर को भारत से एक लिफाफा प्राप्त हुआ। बच्ची को उत्सुकता हुई। देखें तो भारत की भाषा की लिपि कैसी है। उसने कहा - अंकल लिफाफा खोलकर पत्र दिखाएँ। डॉ. रघुबीर ने टालना चाहा। पर बच्ची जिद पर अड़ गई।

डॉ. रघुबीर को पत्र दिखाना पड़ा। पत्र देखते ही बच्ची का मुँह लटक गया - अरे यह तो अँगरेजी में लिखा हुआ है। आपके देश की कोई भाषा नहीं है? डॉ. रघुबीर से कुछ कहते नहीं बना। बच्ची उदास होकर चली गई। माँ को सारी बात बताई। दोपहर में हमेशा की तरह सबने साथ-साथ खाना तो खाया, पर पहले दिनों की तरह उत्साह चहक-महक नहीं थी। 

गृहस्वामिनी बोली - डॉ. रघुबीर, आगे से आप किसी और जगह रहा करें। जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं होती, उसे हम फ्रेंच, बर्बर कहते हैं। ऐसे लोगों से कोई संबंध नहीं रखते। 

गृहस्वामिनी ने उन्हें आगे बताया - मेरी माता लोरेन प्रदेश के ड्‍यूक की कन्या थी। प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व वह फ्रेंच भाषी प्रदेश जर्मनी के अधीन था। जर्मन सम्राट ने वहाँ फ्रेंच के माध्यम से शिक्षण बंद करके जर्मन भाषा थोप दी थी। फलत: प्रदेश का सारा कामकाज एकमात्र जर्मन भाषा में होता था, फ्रेंच के लिए वहाँ कोई स्थान न था। स्वभावत: विद्यालय में भी शिक्षा का माध्यम जर्मन भाषा ही थी। मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थी और सर्वश्रेष्ठ कान्वेंट विद्यालय में पढ़ती थी। एक बार जर्मन साम्राज्ञी कैथराइन लोरेन का दौरा करती हुई उस विद्यालय का निरीक्षण करने आ पहुँची। मेरी माता अपूर्व सुंदरी होने के साथ-साथ अत्यंत कुशाग्र बुद्धि भी थीं। सब ‍बच्चियाँ नए कपड़ों में सजधज कर आई थीं। उन्हें पंक्तिबद्ध खड़ा किया गया था।  बच्चियों के व्यायाम, खेल आदि प्रदर्शन के बाद साम्राज्ञी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है? मेरी माँ को छोड़ वह किसी को याद न था। मेरी माँ ने उसे ऐसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुंदर ढंग से सुना पाते। साम्राज्ञी ने बच्ची से कुछ इनाम माँगने को कहा। बच्ची चुप रही। बार-बार आग्रह करने पर वह बोली - 'महारानी जी, क्या जो कुछ में माँगू वह आप देंगी?' 

साम्राज्ञी ने उत्तेजित होकर कहा - 'बच्ची! मैं साम्राज्ञी हूँ। मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता। तुम जो चाहो माँगो। इस पर मेरी माता ने कहा - 'महारानी जी, यदि आप सचमुच वचन पर दृढ़ हैं तो मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि अब आगे से इस प्रदेश में सारा काम एकमात्र फ्रेंच में हो, जर्मन में नहीं।' 

इस सर्वथा अप्रत्याशित माँग को सुनकर साम्राज्ञी पहले तो आश्चर्यकित रह गई, किंतु फिर क्रोध से लाल हो उठीं। वे बोलीं 'लड़की' नेपोलियन की सेनाओं ने भी जर्मनी पर कभी ऐसा कठोर प्रहार नहीं किया था, जैसा आज तूने शक्तिशाली जर्मनी साम्राज्य पर किया है। साम्राज्ञी होने के कारण मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता, पर तुम जैसी छोटी सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज पराजय दी है, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। जर्मनी ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया। 

मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अब आगे लारेन प्रदेश अधिक दिनों तक जर्मनों के अधीन न रह सकेगा। यह कहकर महारानी अतीव उदास होकर वहाँ से चली गई। 
गृहस्वामिनी ने कहा - 'डॉ. रघुबीर, इस घटना से आप समझ सकते हैं कि मैं किस माँ की बेटी हूँ। हम फ्रेंच लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते हैं। क्योंकि हमारे लिए राष्ट्र प्रेम और भाषा प्रेम में कोई अंतर नहीं...।'

हमें अपनी भाषा मिल गई। तो आगे चलकर हमें जर्मनों से स्वतंत्रता भी प्राप्त हो गई। आप समझ रहे हैं न!

सुकरात के तीन छोटे प्रश्न

प्राचीन यूनान में सुकरात नाम के विद्वान हुए हैं। वे ज्ञानवान और विनम्र थे। एक बार वे बाजार से गुजर रहे थे तो रास्ते में उनकी मुलाकात एक परिचित व्यक्ति से हुई। उन सज्जन ने सुकरात को रोककर कुछ बताना शुरू किया। वह कहने लगा कि 'क्या आप जानते हैं कि कल आपका मित्र आपके बारे में क्या कह रहा था?' 

सुकरात ने उस व्यक्ति की बात को वहीं रोकते हुए कहा - सुनो, भले व्यक्ति। मेरे मित्र ने मेरे बारे में क्या कहा यह बताने से पहले तुम मेरे तीन छोटे प्रश्नों का उत्तर दो। उस व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा - 'तीन छोटे प्रश्न'।

सुकरात ने कहा - हाँ, तीन छोटे प्रश्न। 

पहला प्रश्न तो यह कि क्या तुम मुझे जो कुछ भी बताने जा रहे हो वह पूरी तरह सही है? 
उस आदमी ने जवाब दिया - 'नहीं, मैंने अभी-अभी यह बात सुनी और ...।' 

सुकरात ने कहा- कोई बात नहीं, इसका मतलब यह कि तुम्हें नहीं पता कि तुम जो कहने जा रहे हो वह सच है या नहीं।'

अब मेरे दूसरे प्रश्न का जवाब दो कि 'क्या जो कुछ तुम मुझे बताने जा रहे हो वह मेरे लिए अच्छा है?' आदमी ने तुरंत कहा - नहीं, बल्कि इसका ठीक उल्टा है। सुकरात बोले - ठीक है। 

अब मेरे आखिरी प्रश्न का और जवाब दो कि जो कुछ तुम मुझे बताने जा रहे हो वह मेरे किसी काम का है भी या नहीं। 

व्यक्ति बोला - नहीं, उस बात में आपके काम आने जैसा तो कुछ भी नहीं है। 

तीनों प्रश्न पूछने के बाद सुकरात बोले - 'ऐसी बात जो सच नहीं है, जिसमें मेरे बारे में कुछ भी अच्छा नहीं है और जिसकी मेरे लिए कोई उपयोगिता नहीं है, उसे सुनने से क्या फायदा। और सुनो, ऐसी बातें करने से भी क्या फायदा।

शिवाजी को गुरु का संदेश

जब छत्रपति शिवाजी को यह पता चला कि समर्थ रामदासजी ने महाराष्ट्र के ग्यारह स्थानों में हनुमानजी की प्रतिमा स्थापित की है और वहाँ हनुमान जयंती उत्सव मनाया जाने लगा है, तो उन्हें उनके दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा हुई। वे उनसे मिलने के लिए चाफल, माजगाँव होते हुए शिगड़वाड़ी आए। वहाँ समर्थ रामदासजी एक बाग में वृक्ष के नीचे "दासबोध" लिखने में मग्न थे।

शिवाजी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनसे अनुग्रह के लिए विनती की। समर्थ ने उन्हें त्रयोदशाक्षरी मंत्र देकर अनुग्रह किया और "आत्मानाम" विषय पर गुरुपदेश दिया (यह "लघुबोध" नाम से प्रसिद्ध है और "दासबोध" में समाविष्ट है।) फिर उन्हें श्रीफल, एक अंजलि मिट्टी, दो अंजलियाँ लीद एवं चार अंजलियाँ भरकर कंकड़ दिए। 

जब शिवाजी ने उनके सान्निध्य में रहकर लोगों की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की, तो संत बोले- "तुम क्षत्रिय हो, राज्यरक्षण और प्रजापालन तुम्हारा धर्म है। यह रघुपति की इच्छा दिखाई देती है।" और उन्होंने "राजधर्म" एवं "क्षात्रधर्म" पर उपदेश दिया।

शिवाजी जब प्रतापगढ़ वापस आए और उन्होंने जीजामाता को सारी बात बताई, तो उन्होंने पूछा- "श्रीफल, मिट्टी, कंकड़ और लीद का प्रसाद देने का क्या प्रयोजन है?" शिवाजी ने बताया- "श्रीफल मेरे कल्याण का प्रतीक है, मिट्टी देने का उद्देश्य पृथ्वी पर मेरा आधिपत्य होने से है, कंकड़ देकर यह कामना व्यक्त हो गई है कि अनेक दुर्ग अपने कब्जे में कर पाऊँ और लीद अस्तबल का प्रतीक है, अर्थात उनकी इच्छा है कि असंख्य अश्वाधिपति मेरे अधीन रहें।" इस प्रकार राजधर्म को समझकर शिवा ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और न्याय नीति की स्थापना की।

राजा बदल गया

उदयपुर नाम का एक राज्य था। राजा रत्नेश का शासन चल रहा था। वे बड़े लापरवाह और कठोर प्रकृति के थे। राज्य में निर्धनता आसमान को छू रही थी। प्रजा रत्नेश का आदर-सम्मान करना भूल चुकी थी। राजा को प्रणाम-नमस्कार किए बिना लोग अपना मुख मोड़ लेते थे। प्रजा के व्यवहार से रत्नेश स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा था। 

प्रजा के इस व्यवहार का कारण रत्नेश समझ नहीं पा रहा था। 

एक दिन रत्नेश ने मंत्री से कहा - 'मंत्रीवर! आज हमारा मन यहाँ घुटने लगा है। जंगलों में भ्रमण करने से शायद घुटन मिट जाए।

बस वे दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर निकल पड़े। 

दोनों एक बड़े पर्वत के पास पहुँचे। फागुन का महीना था। धूप चढ़ने लगी थी। थोड़ी देर तक सुस्ताने के लिए दोनों एक घने पेड़ के नीचे रुके। घोड़े से उतरते हुए रत्नेश को एक छोटी सी पर्ण कुटिया दिखाई पड़ी। घने जंगल में कुटिया! कौन हो सकता है? उन्हें अचरज हुआ।

धीमे कदमों से रत्नेश कुटिया के पास पहुँचे, पीछे-पीछे गजेंद्र सिंह भी थे। कुटिया में एक महात्मा थे। उनको देखकर वे दोनों भाव-विभोर हो उठे। 

'महात्मा जी! मैं उदयपुर राज्य का राजा रत्नेश हूँ। और ये हमारे मंत्री गजेंद्र सिंह।' महात्मा जी को राजा ने अपना व मंत्री का परिचय दिया। 

'कैसे आना हुआ? महात्मा जी ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर पूछा। 

हम भ्रमण कर रहे थे। इस पेड़ की शीतल छाँह में सुस्ताने यहाँ रुके तो कुटिया दिख पड़ी। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हो गए। मंत्री ने कहा। 

हाव-भाव व मुख की आभा ही से रत्नेश समझ गए कि महात्माजी ज्ञान-दर्शन और शास्त्रों में निष्णात हैं। राजा ने उनको अपनी व्यथा बताई - 'महात्माजी! मेरे राज्य की प्रजा मेरा आदर-सम्मान नहीं करती।

प्रजा का तो कर्तव्य बनता है कि वह अपने राजा का आदर करे, किंतु मैं इससे वंचित हूँ। 

रत्नेश के व्यवहार से महात्मा जी परिचित थे। अत: उनको माजरा समझते देर नहीं लगी। 'राजन्! मैं समझ गया हूँ, आप चलिए मेरे साथ।' महात्मा जी बोले और दरिया की ओर बढ़ गए। उनके पीछे-पीछे रत्नेश और गजेंद्र सिंह चल पड़े। 

हरी-भरी घास उगी थी। घोड़े घास में लीन थे। कुटिया की पूर्व दिशा में पर्वत श्रृंखलाएँ थीं। पर्वतों से बहने वाले झरने समतल भूमि में एक साथ मिलकर दरिया बन गए थे। 

दरिया के पास एक चट्‍टान खड़ी थी। चट्‍टान के पास पहुँचकर महात्मा रुक गए। राजा और मंत्री भी अचरज के साथ महात्माजी के पास खड़े थे। राजन्! एक पत्थर उठाइए और इस चट्‍टान के ऊपर प्रहार कीजिए। महात्मा ने रत्नेश से कहा।

रत्नेश हक्के-बक्के रह गए। पर महात्मा जी का आदेश था। अतएव बिना कुछ जाने-समझे रत्नेश ने एक पत्थर उठाया और जोर से चट्‍टान के ऊपर प्रहार किया। चट्‍टान पर लगते ही वह नीचे गिर पड़ा। राजन्! अब दरिया के तट से थोड़ी गीली मिट्‍टी लेकर आइए।' महात्माजी ने फिर आदेश दिया। 

राजा एक मुट्‍ठी गीली मिट्‍टी के साथ चटपट महात्माजी के पास पहुँचे। राजन्! अब प्रहार कीजिए।' महात्मा ने फिर कहा।

रत्नेश ने जोर लगाकर गीली मिट्‍टी चट्‍टान पर फेंकी। गीली मिट्‍टी नीचे गिरने की बजाय चट्‍टान पर चिपक गई। 

गीली मिट्‍टी को चिपकी हुई देखकर महात्मा बोले -

'राजन्! संसार की यही नियति है। संसार कोमलता को आसानी से ग्रहण कर लेता है। कठोरता को त्याग देता है। इसलिए चट्‍टान ने गीली मिट्‍टी को ग्रहण कर लिया और कठोर पत्थर को त्याग दिया।

राजन्। आपके साथ भी ऐसा ही हुआ है।  मेरे साथ! रत्नेश ने अचरज भरे स्वर में कहा। 

हाँ राजन्! आप अहंकारी व कठोर प्रकृति के हैं। आपका यह व्यवहार राज्य की उन्नति और सुख-शांति में बाधक बना हुआ है। यह प्रकृति राज्य की प्रजा को स्वीकार नहीं है। अत: प्रजा आपकी उपेक्षा कर रही है।' महात्मा ने संयत स्वर में समझाया। सुनते ही राजा का सिर झुक गया।

राजन्! अपने व्यवहार में परिवर्तन लाइए आपको आदर-सम्मान सब मिलेगा। 

महात्माजी की नसीहत सुनकर रत्नेश ने उनके चरण पकड़ लिए और बोले - 'महात्मा जी भूल क्षमा हो आपकी शिक्षा शिरोधार्य है।'

विनम्रता से प्रणाम करके दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार हो गए और राजमहल की ओर चल पड़े।

काँच की बरनी

जीवन में सबकुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, तब कुछ तेजी से पा लेने की भी इच्छा होती है और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं। दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर कक्षा में आए और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बरनी टेबल पर रखी और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। 

उन्होंने छात्रों से पूछा, "क्या बरनी पूरी भर गई ?" "हाँ," आवाज आई। फिर प्रोफेसर ने कंकर भरने शुरू किए। धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो जहाँ-जहाँ जगह थी वहाँ कंकर समा गए। प्रोफेसर ने फिर पूछा, "क्या अब बरनी भई गई है?" छात्रों ने एक बार फिर हाँ कहा। अब प्रोफेसर ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरू किया। रेत भी उस बरनी में जहाँ संभव था बैठ गई। प्रोफेसर ने फिर पूछा- "क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई न?" हाँ, अब तो पूरी भर गई है," सभी ने कहा। 

प्रोफेसर ने समझाना शुरू किया। इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो। टेबल टेनिस की गेंद को भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक समझो। छोटे कंकर का मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बड़ा मकान आदि है। रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार-सी बातें, मनमुटाव, झगड़े हैं। अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिए जगह ही नहीं बचती या कंकर भर दिए होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी। ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिए अधिक समय नहीं रहेगा।

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