शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

सज्जनता घाटे में नहीं रहती

उदार-प्रकृति के लोग कई बार चालाक लोगों द्वारा ठगे जाते हैं और उससे उन्हें घाटा ही रहता है, पर उनकी सज्जनता से प्रभावित होकर दूसरे लोग जितनी उनकी सहायता करते हैं उस लाभ के बदले में ठगे जाने का घाटा कम ही रहता है । सब मिलाकर वे लाभ में ही रहते हैं ।

इसी प्रकार स्वार्थी लोग किसी के काम नहीं आने से अपना कुछ हर्ज या हानि होने का अवसर नहीं आने देते, पर उनकी कोई सहायता नहीं करता तो वे उस लाभ से वंचित भी रहते हैं । ऐसी दशा में वह अनुदार चालाक व्यक्ति, उस उदार और भोले व्यक्ति की अपेक्षा घाटे में ही रहता है ।

दुहरे बाँट रखने वाले बेईमान दुकानदारों को कभी फलते-फूलते नहीं देखा गया । स्वयं खुदगर्जी और अशिष्टता बरतने वाले लोग जब दूसरों से सज्ज्नता और सहायता की आशा करते हैं तो ठीक दुहरे बाँट वाले बेईमान दुकानदार का अनुकरण करते हैं । ऐसा व्यवहार कभी किसी के लिए उन्नति और प्रसन्नता का कारण नहीं बन सकता ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (५.१७)

Good nature doesn’t cost anything

Selfless and generous individuals are often tricked by cunning people and as a result, they may usually seem to be at disadvantage. On the other hand, many people—influenced by their generosity—offer them so much help and support that the disadvantage of being tricked by cunning people more or less gets eclipsed by the advantage of reaping help and support from many people. All in all, selfless and generous individuals are always at advantage. 

In the same way, selfish people may not bother to help others and in doing so, they may avoid losing anything. However, their selfish nature discourages other people from offering help, thus depriving them of that crucial advantage. To put in a nutshell, mean and selfish individuals would generally suffer greater loss than generous and good-natured individuals. 

Corrupt traders who follow double-standards are never seen prospering. Selfish, egoistical and bad-mannered people who expect others to be good to them and help them are actually behaving in the same way as the corrupt traders having double-standards. Such behavior can never ever lead to progress and happiness in life. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirman Yojana: Darshan, swaroop va karyakram 66:5.17

कार्य प्रवृत्तियों व अभिरुचियों के अनुरूप हो सकता हैं

जहॉं कुछ लोग उपासनात्मक विचारधारा के हैं वे संगठित होकर इस कार्य-प्रणाली को चलाते रह सकते हैं और अपने संगठन का नाम गायत्री परिवार रख सकते हैं । जिन्हें उपासना में अधिक रूचि नहीं, समाज सेवा के कार्यों तक ही जिनकी अभिरुचि है, जो प्रचारात्मक स्तर से आगे बढक़र कुछ रचनात्मक कार्य करने या आन्दोलनात्मक कार्य चलाने की स्थिति है वे वैसा भी कर सकते हैं । वे युग-निर्माण योजना के नाम से भी अपना संगठन बना सकते हैं ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.९

Actions should be infused with personal passion and genuine interest

Those who believe in prayer and meditation can very well form spiritual groups that celebrate spirituality via promoting prayer and meditation: they can freely use the term "Gayatri Pariwar" (Gayatri Family) for such communities. Formative and social-action oriented activities will be more suitable to those who are less inclined toward meditation and more inclined toward social service and volunteer work. These communities may aptly be called "Yug Nirman Yojanas" (Era Transformation Programme)." 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirman Yojana- Darshan, swaroop, va Karyakrma- 66 (3.9)

Combine Emotions with Action

कर्म के साथ भावना को भी जोडें
दिनभर लोहा पीटने वाले लुहार की अपेक्षा अखाड़े में दो घण्टे कसरत करने वाला पहलवान अधिक परिपुष्ट पाया जाता है । इसका कारण व्यायाम के साथ जुड़ी हुई उत्साहवर्द्धक भावना है । कसरत करते समय यह मान्यता रहती है कि हम स्वास्थ्य साधना कर रहे हैं और इस आस्था का मनोवैज्ञानिक असर ऐसा चमत्कारी होता है कि देह ही परिपुष्ट नहीं होती, मन की हिम्मत तथा सशक्तता भी बहुत बढ़ जाती है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.९६)

Combine Emotions with Action
A wrestler who devotes 2-3 hours daily in the Gymnasium is more stronger than a blacksmith who threshes & beats iron for many hours regularly. Enthusiasm to build a body is a reason behind such results. We think of good health during exercise and this affects our psychology and not only our body but our mind also gets strengthened. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
YUG NIRMAN YOJANA – DARSHAN, SWAROOP AND KARYAKRAM – 66 (6.96)

विचार शक्ति ही भाग्य रेखा

कहा जाता है कि खोपड़ी में मनुष्य का भाग्य लिखा रहता है । इस भाग्य को ही कर्म लेख भी कहते हैं । मस्तिष्क में रहने वाले विचार ही जीवन का स्वरूप निर्धारित करने और सम्भावनाओं का ताना-बाना बुनते हैं । इसलिए प्रकारान्तर से भी यह बात सही है कि भाग्य का लेखा-जोखा कपाल में लिखा रहता है । कपाल अर्थात् मस्तिष्क । मस्तिष्क अर्थात् विचार । अत: मानस शास्त्र के आचार्यों ने उचित ही संकेत किया है कि भाग्य का आधार हमारी विचार पद्धति ही हो सकती है । विचारों की प्रेरणा और दिशा अपने अनुरूप कर्म करा लेती है । इसलिए भाग्य का लेखा-जोखा कपाल में लिखा रहता है, जैसी भाषा का प्रयोग पुरातन ग्रंथ से करते हुए भी तथ्य यही प्रकट होता है कि कर्तृत्व अनायास ही नहीं बन पड़ता, उसकी पृष्ठभूमि विचार शैली के अनुसार धीरे-धीरे मुद्दतों में बन पाती है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.४९)


Power of Thoughts: the Only Creator of Destiny
It is said that a man’s destiny is written in his head. This destiny is called the blueprint of the future. Only thoughts determine the shape of future life and materialize the possibilities. So, any way we think, it is true that plans for all actions are first created in the forehead only! Forehead means brain, and brain means mind or the thought process. Hence, the preachers of psychology are right in indicating that our future is based upon the style of our thinking. The line of thought and its influence compels one to act accordingly. Therefore, whatever language our scriptures use, the final truth they reveal is, the action is never performed automatically. Its background is always gradually, slowly prepared over a long period of time according to the thought process. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Yug Nirman Yojana – The Vision, Structure and the Program – 66 (6.49)

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