रविवार, 10 जुलाई 2011

मन को मौन करो।

1) मैने अपने मुश्किल भरे दिनो में और पूरी उडान के दौरान सीखा कि असली हिम्मत का मतलब किसी चीज को बिना डर के नहीं बल्कि डर के बावजूद प्राप्त करना है।- डा. विजय पथ सिंघानिया
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2) मनुष्य का एकाग्र मन उसकी उन्नति में सबसे अधिक सहायक है।
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3) मजबूत संकल्प बल विवेक-विचार से सहज ही पैदा हो जाता है।
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4) मन की प्रसन्नता ही व्यवहार में उदारता बन जाती है।
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5) मन का निरुद्धेश्य फिरते रहने की छूट न दें, उससे पतन-पराभव का पथ प्रशस्त होता हैं।
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6) मन का संकल्प और शरीर का पराक्रम यदि किसी काम में पूरी तरह लगा दिया जाये, तो सफलता मिल कर रहेगी।
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7) मन को कुमार्ग से रोकना ही सबसे बडा पुरुषार्थ है।
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8) मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाये रखने के लिये स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था रखनी चाहिये।
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9) मन को मौन करो।
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10) मन को जीतना नहीं जीना है।
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11) मन के कहे अनुसार करने से हमे क्षणिक प्रसन्नता प्राप्त होती हैं, स्थायी प्रसन्नता पाने के लिये आत्मा के कहे अनुसार चलना चाहिये।
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12) मन के हाथी को विवेक के अंकुश में रखो।
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13) मन प्राप्ति के प्रति आकषर्ण का अनुभव नहीं करता, अप्राप्त की ओर जाता है। 
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14) मनःस्थिति को परिस्थिति का सृजनकर्ता कहा गया है।
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15) मन-ही-मन सबको दण्डवत प्रणाम करो कि उनको पता ही न लगे। गुप्त दान, गुप्त साधन बडा तेज होता है। सबको किया गया प्रणाम भगवान् को प्राप्त होता है। यह बहुत ही उत्तम साधन है जो हरेक कर सकता है।
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16) मन, वचन और कर्म से किसी को कष्ट मत पहुचाइये।
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17) मनुष्य ऋषियों, तपस्वियों, मनस्वियों और मनीषियों का वंशधर है।
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18) मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता हैं, पर किस काम की वह बुद्धिमानी, जिससे जीवन की साधारण कला, हँस खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आये।
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19) मनुष्य की कल्पना शक्ति मन की सृजन शक्ति है।
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20) मनुष्य की महत्वाकांक्षाओ को चूसने वाला ‘‘भय’’ महाराक्षस है । भय की मनोस्थिति हमारे शुभ्र विचारों साहसपूर्ण प्रयत्नों तथा उत्तम योजनाओं को एक क्षण में चूर्ण-चूर्ण कर डालती है ।
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21) मनुष्य की प्रतिष्ठा ईमानदारी पर ही निर्भर है।
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22) मनुष्य की सबसे बडी पूँजी समय हैं। यदि उसे खर्च करना सीख लिया जाये तो उससे बहुमूल्य सफलता भी खरीदी जा सकती है।
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23) मनुष्य की देह क्षुद्र कामो के लिये नहीं है।
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24) मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्ति प्रदान रने वाली प्रक्रिया का नाम शिक्षा है।

उन्नति नहीं, प्रगति अभीष्ट

1) मानव जीवन का मन्थन करने पर जो अमृत निकलता हैं, उसका नाम आत्म गौरव है।
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2) मानव जीवन का परम पुरुषार्थ हैं-अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पायें।
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3) मानव जीवन को पवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने वाले आध्यात्मिक उपचार का नाम हैं - संस्कार।
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4) मानव जीवन मे आधी गलतिया तो केवल मात्र इसलिये हो जाती हैं कि जहा हमें विचार से काम लेना चाहिये वहा हम भावना से काम लेते हैं और जहा भावनाओं की आवश्यकता रहती हैं वहा विचारों को अपनाते हैं।
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5) मानवी गरिमा के प्रति अनास्था को ही आस्तिकता कहते हैं।
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6) मानवीय मूल्यो की दृढ अवधारणा एवं स्थापना में मानव कल्याण निहित हैं।
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7) मानवीय मूल्यों में तुलसीदास जी ने लोकहित को सर्वोच्च मान्यता प्रदान की है।
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8) मानवता की यहीं पुकार, रोको नारी अत्याचार।
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9) मानवता के अनन्य पुजारी, ब्रह्मर्षि, गायत्री माता के वरद पुत्र, प्राणि मात्र के सहज सहचर, युगपुरुष, युगदृष्टा, युगप्रर्वतक, विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के समर्थक-पोषक, अभिनव विश्वामित्र, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीरामशर्मा आचार्य के श्रीचरणों में सादर नमन्।
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10) माँ का हृदय बच्चे की पाठशाला है।
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11) माँ के संस्कार ही बच्चे का भाग्य हैं।
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12) मार्ग उन्ही का अवरुद्ध रहता हैं, जो अपने उपर भरोसा नहीं करते।
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13) माली की तरह जियो, जिसके प्रयास की चर्चा खिलते पुष्प हवा में फैलाते हैं।
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14) मुक्ति भव-बन्धनो से होती हैं। वासना, तृष्णा और अहन्ता को भवसागर कहा गया है। लोभ को हथकडी, मोह को बेडी और गर्व को गले का तौक कहते हैं । जीव इन्ही से बन्धा रहता है।
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15) मुस्कान ही चेहरे का सच्चा सौन्दर्य है।
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16) मेघ चाहे उपाधिया व जागीरे बरसा दे, धन चाहें हमें खोजें, किन्तु ज्ञान को तो हमें ही खोजना पडेगा।
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17) मैं कौन हू ? जो स्वयं से इस सवाल को नहीं पूछता है, ज्ञान के द्वार उसके लिए बन्द ही रह जाते है। उस द्वार को खोलने की चाबी यहीं हैं कि स्वयं से पूछो, ‘‘ मैं कौन हूँ ? ’’ और जो तीव्रता से, समग्रता से अपने से यह सवाल पूछता हैं, वह स्वयं ही उत्तर भी पा जाता है।
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18) मैं सबको सब कुछ नहीं पढा सकता, मैं सिर्फ उन्हें सोचने के लिये प्रेरित कर सकता हू।
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19) मैं दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करूँगा जो मुझे अपने लिये पसन्द नहीं।
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20) मैं अपने आप को बदल रहा हू, दूसरों से बहुत कम आशाए रखता हू। और उनके व्यवहार पर तीखी प्रतिक्रिया भी नहीं करता।
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21) मेरी तो बस एक ही प्रार्थना हैं, सभी प्राणियों का हृदय स्थिर रहें और मैं सब दुःखों को सहन करु।
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22) मेरे मन के संकल्प शुभ और कल्याणमय हो।
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23) मेरे लिये नैतिकता, सदाचार और धर्म पर्यायवाची शब्द हैं-राष्ट्रपिता।
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24) मैने अपनी इच्छाओ का दमन करके सुख प्राप्त करना सीखा हैं, उनकी पूर्ति करके नहीं।

अपनो से अपनी बात

1) महानता एवं मानवता का गुण न तो किसी के लियें सुरक्षित हैं और न किसी के लिये प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओ से उसे प्राप्त कर सकता है।
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2) महानता के दो आधार, सादा जीवन उच्च विचार।
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3) महत्व इसका नहीं हैं कि हमारे कितने सेवक हैं ? महत्व इसका हैं कि हममें कितना सेवाभाव हैं।
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4) मात्र आहार पर ही शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर नहीं रहता। जलवायु, मनःस्थिति और संयम-नियम पर भी बहुत हद तक अवलम्बित है। हिमालय का शीतप्रधान वातावरण, निरन्तर गंगा जल का उपयोग, हर काम में समय की नियमित व्यवस्था, भूख से कम खाने से पाचन सही होना, चित्त का दिव्य चिन्तन में निरत रहना, मानसिक विक्षोभ और उद्वेग का अवसर न आना यह ऐसे आधार हैं, जिनका मूल्य पौष्टिक आहार से हजार गुना ज्यादा है। तपस्वी लोग सुविधा-साधना का, आहार का अभाव रहने पर भी दीर्घजीवी, पुष्ट और सशक्त रहते हैं, उसका कारण उपर्युक्त हैं जिसका महत्व आमतौर से नहीं समझा जाता है।
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5) मामूली सा अभ्रक जब सौ बार अग्नि मे तपाया जाता हैं, तो चन्द्रोदय रस बन जाता है।
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6) मालिक बारह घण्टे काम करता हैं, नौकर आठ घण्टे काम करता हैं, चोर चार घण्टे काम करता हैं। हम सब अपने आप से पूछे कि हम तीनो में से क्या है।
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7) माता की ममता एक साचे की तरह हैं, जिसमें वह अपने मन के अनुरुप अपनी सन्तान का निर्माण करती है। 
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8) माता में हो यदि अज्ञान, बच्चे कैसे बने महान्।
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9) माता वह जो पुत्र को उत्कृष्टता की ओर ले जाती है।
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10) माता-पिता, पति, गुरु की परतन्त्रता में महान् स्वतन्त्रता है।
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11) मौलिकता अपनेपन में स्थिर रहना हैं और सही-सही वह कहना हैं जो हम हैं और देखते है।
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12) मौन इतना गम्भीर हैं, जितनी अखिल सृष्टि, वाणी इतनी उथली हैं जितना काल।
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13) मौन विचारों की आत्मा है।
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14) मौन ही प्रारम्भ हैं, मौन ही अन्त हैं, और यदि तुम एक ध्यानी हो तो मौन ही मध्य है। मौन अस्तित्व का समुचा ताना-बाना है।
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15) मौन और एकान्त आत्मा के सर्वोत्तम मित्र है।
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16) मोटा उपर छोटा को हैं सदा सो भार। मटकी उपर छुकलियो देख परेंडे जार।
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17) मान-अपमान में सम रहे।
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18) मानसिक पापो से सदैव बचे।
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19) मानसिक चेतना असंख्य रचनात्मक क्षमताओं की स्त्रोत है।
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20) मानव धर्म ही हिन्दू धर्म की परिसीमा और पूर्णता मानी गयी है।
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21) मानव कर्म से ब्राह्मण होता हैं, कर्म से क्षत्रिय होता हैं, कर्म से वैश्य होता हैं, और कर्म से शुद्र होता है।
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22) मानव की सबसे बडी आवश्यकता शिक्षा नहीं, चरित्र हैं और यहीं उसका सबसे बडा रक्षक है।
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23) मानव को विवेक का आश्रय लेना चाहिये। विवेक द्वारा मनुष्य दुगुर्णो से विमुख होकर सद्गुणो की ओर उन्मुख होता है।
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24) मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब सन्तान।

महान् सोचे, महान् बने।

1) क्रोध से अधिक विश्व की कोई भी वस्तु मानव को कुरुप नहीं बनाती।
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2) क्रोध अपने अवगुणो पर करना चाहिये।
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3) क्रुद्ध व्यक्ति का मुह तो खुला रहता हैं किन्तु नेत्र बन्द रहते है।
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4) मधुर भाषिणी नारी परिवार को स्वर्ग बनाने वाली होती हैं।
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5) मधुर पुष्प धीमे-धीमे उगते हैं, घास जल्दी-जल्दी।
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6) मधुर व्यवहार व्यक्ति को ऊँचा उठाता है।
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7) मधुर वचन बोलना व्यक्तित्व की गरिमा बढाने वाली साधना हैं।
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8) मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव:- सुखपूर्वक एवं शोकरहित मृत्यु वरण करने के लिए एक महामन्त्र है, ‘ येनानृत्तनि नोक्तानि प्रीति भेदः कृतो न च। आस्तिकः श्रद्धानश्च स सुखंमृत्युमृच्छति। अर्थात् जिसने कभी असत्य आचरण नहीं किया हो, जिसके अन्दर ईर्ष्या-द्वेष का भाव न हो, जो आत्मा में परम विश्वासी हो तथा जो अच्छाइयों पर अनन्य श्रद्धा-आस्था रखता हो, वही सुखपूर्वक-शांतिपूर्वक महामृत्यु को वरण कर सकता हैं। अतः हम भी सद्चिन्तन, सदाचरण और सद्व्यवहार को जीवन में उतारकर मृत्यु को मांगलिक महोत्सव के रुप में मना सकते है।

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9) मृत्यु एक महोत्सव हैं। इस तथ्य को वही समझ पाता हैं, जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन त्याग, सेवा, आदर्श, सचाई और सद्चिन्तन को अपनाया-आत्मसात किया।

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10) मृत्यु भोज और नेग दहेज, इनसे करना हैं परहेज।

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11) मृत्यु से सुन्दर और कोई घटना नहीं हो सकती।

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12) मंगलवार को ऋण लेना अशुभ होता है।

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13) मस्तिष्क स्वयं अपने में ही स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग में बदल सकता है।

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14) मन्दिर तोडो, मस्जिद तोडो, इसमें क्या मुजायका हैं। दिल मत तोडो यार किसी का, यह घर खास खुदा का है।

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15) महर्षि पतंजलि ने दुःख को चित्त की चंचलता का परिणाम कहा है। जिसका चित्त जितना ज्यादा चंचल हैं, वह दुःखी भी उतना ही होता है। जहा चंचलता ही नहीं वहा दुःख कैसा। चंचल चित्त वाले व्यक्ति एक छोटी सी घटना से भी बहुत दुःखी हो जाते है, किंतु जिनका चित्त स्थिर हैं, उन्हें भारी-से-भारी दुःख भी विचलित नहीं कर पाते। श्रीमद्भगवत्गीता की भाषा में ‘ न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते। ’’ ( 6/22 )

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16) महाभारत युद्ध में प्रधान सेनापति कर्ण था। उसे हराना असम्भव ठहराया गया था। चतुरता से उसके बल का अपहरण किया गया। कर्ण का सारथी शल्य था। श्री कृष्ण के साथ तालमेल बिठाकर उसने एक योजना स्वीकार कर ली। जब कर्ण जीतने को होता तब शल्य चुपके से दो बाते कह देता, यह कि-तुम सूत पुत्र हो। द्रोणाचार्य ने विजयदायिनी विद्या राजकुमारो को सिखाई है। तुम राजकुमार कहा हो जो विजय प्राप्त कर सको। जीत के समय भी शल्य हार की आशंका बताता । इस प्रकार उसका मनोबल तोडता रहता। मनोबल टूटने पर वह जीती बाजी हार जाता। अन्ततः विजय के सारे सुयोग उस के हाथ से निकलते गये और पराजय का मुह देखने का परिणाम भी सामने आ खडा हुआ।

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17) महापुरुषों की वाणी ही शास्त्र बन जाते है।

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18) महान् कार्य प्रारम्भ में छोटे ही होते है।

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19) महान् कार्य शक्ति के बल पर नहीं, दूरदर्शिता के बल पर सम्पन्न होत है।

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20) महान् सोचे, महान् बने।

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21) महान् उद्धेश्य के लिये महान् धैर्य चाहिये।

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22) महान् व्यक्तियों के लिऐ सम्मान और गौरव जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।

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23) महान् व्यक्तित्व न किसी का अपमान करता हैं और न उसको सहता है।

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24) महान् आदर्श महान् मस्तिष्क का निर्माण करते है।

क्रोध साक्षात् यमराज है।

1) कुसंस्कारो के नाश के लिये ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये।
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2) कुछ करने की इच्छा हो तो सबका भला करो।
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3) कुछ चीजें लुटाने पर और ज्यादा वापस मिलती हैं। जैसे प्रेम, विश्वास।
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4) कुछ लोग मरने से इतना डरते हैं कि वे जीना ही आरम्भ नहीं कर पाते।
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5) कुदरत कभी भी भूल नहीं करती, अक्ल वाले ही भूल करते है।
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6) कुदरत करती रहे और आप सिर्फ उसे जानते रहे यही मोक्ष मार्ग है।
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7) कर्तव्य का सारा पाठ आत्म-बलिदान से आरम्भ और आत्म-बलिदान पर समाप्त होता है।
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8) कर्तव्य चिंता का विषय नहीं होता हैं, प्रत्युत चिंतन का विषय होता है।
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9) कर्तव्य हैं-दूसरे के अधिकार की पूर्ति कर देना और अपना अधिकार छोड देना।
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10) कर्तव्य पालन और लक्ष्य की प्राप्ति हो, यह सभी शास्त्रों का सार है।
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11) केवल एक ‘‘भय’’ को अन्तःकरण से निकाल फेंकने से अनेक अवगुण स्वयं विनष्ट हो जाते है।
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12) केवल कर्महीन ही ऐसे हैं जो भाग्य को कोसते हैं और जिनके पास शिकायतो का बाहुल्य है।
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13) कन्याये प्रतिदिन सुबह-शाम सात-सात बार “सीता माता” और “कुन्ती माता” नामों का उच्चारण करे तो वे पतिव्रता होती है।
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14) कल की चिन्ता मत करों। कल अपनी फिक्र स्वयं कर लेगा।
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15) कल्पना मानवीय चेतना की दिव्य क्षमता हैं। यही वह शक्ति हैं, जिसके प्रयोग से मनुष्य देह-बन्धन में रहते हुए भी असीम और विराट तत्व से संपर्क कर पाता है। इसी के उपयोग से उसके जीवन में नई अनुभूतियों के द्वार खुलते है, चेतना में नवीन आयाम उद्घाटित होते है। इन्हीं से नवसृजन के अंकुर फूटते है। कलाओं की सृष्टि होती है, अनुसंधान की आधारशिला रखी जाती है। उपलब्धिया लौकिक हो या अलौकिक, इनके पथ पर पहला पग कल्पनाओं के बलबूते ही रखा जाता है।
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16) क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता को होना ही है। विवेकवान लोग इन दोनो में से किसी को अपनाकर उस संघर्ष को टाल देता हैं और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।
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17) क्रोध क्या हैं ? क्रोध भयावह हैं, क्रोध भयंकर हैं, क्रोध बहरा हैं, क्रोध गूंगा हैं, क्रोध विकलांग है।
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18) क्रोध की फुफकार अहं पर चोट लगने से उठती है।
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19) क्रोध करना पागलपन हैं, जिससे सत्संकल्पो का विनाश होता है।
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20) क्रोध में विवेक नष्ट हो जाता है।
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21) क्रोध पागलपन से शुरु होता हैं और पश्चाताप पर समाप्त।
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22) क्रोध साक्षात् यमराज है।
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23) क्रोध से मनुष्य उसकी बेइज्जती नहीं करता, जिस पर क्रोध करता हैं। बल्कि स्वयं अपनी प्रतिष्ठा भी गॅंवाता है।
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24) क्रोध से वही मनुष्य सबसे अच्छी तरह बचा रह सकता हैं जो ध्यान रखता हैं कि ईश्वर उसे हर समय देख रहा है।

भटकते न फिरें, ध्रुव के साथ जुड़े

1) कार्य की अधिकता से उकताने वाला व्यक्ति कभी कोई बड़ा कार्य नहीं कर सकता है।
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2) कार्य करने से पूर्व सोचना बुद्धिमता और काम पूर्ण होने पर सोचना मूर्खता है।
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3) कार्य को उदारता पूर्वक करना ही उसका इनाम पाना है।
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4) कार्य के अनुरुप प्रयत्न करने वाला धीर व्यक्ति खूब लक्ष्मी प्राप्त करता है।
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5) कार्य में धैर्य और निष्ठा का अभाव सफलता के द्वार से वापस लौटा देता है।
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6) काम खुद करो, आराम दूसरों को दो।
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7) काम की पत्नी का नाम हैं - रति, लोभ की पत्नी का नाम हैं - तृष्णा, क्रोध की पत्नी का नाम हैं - हिंसा। इन तीनो पत्नियों को विधवा बना दो, उपद्रवहीन बना दो।
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8) काम का आरम्भ करो और अगर काम शुरु कर दिया हैं तो उसे पूरा करके छोडो।
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9) काम के समान कोई रोग, मोह के समान कोई शत्रु, क्रोध के समान कोई अग्नि और ज्ञान से बढकर संसार में कोई सुख नहीं।
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10) काम के साथ अपने को तब तक रगड़ा जाये, जब तक कि संतोष की सुगंध न बिखरने लगे।
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11) काम उद्यम से सिद्ध होते हैं, मनोरथ से नही।
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12) कोई ऐसा स्मरण सतत् बनाये रखो जो तुम्हे विकारो से मुक्त रखे। इसलिये किसी ऐसे स्मरण का अनुसन्धान करो ताकि विकार भागे। सद्गुरु से सभी विकार डरते है।
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13) कोई बात ऐसे सीखो जैसे कि आपको अमर रहना हैं, और इस तरह जियो कि जैसे आप कल मरने वाले है।
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14) कोई भी मनुष्य बहुत-सी और बडी-बडी गलतिया किये बगैर कभी महान् अथवा भला नहीं बना है।
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15) कोई भी आरोप इतना सशक्त नहीं जो आत्मा की पवित्रता के आगे ठहर सके।
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16) कोई वस्तु दुखमय हैं न सुखमय। सुख-दुःख तो मन के विकार है।
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17) कोई अभिमान त्याग कर क्षमा माँग ले तो उसके प्रति विनम्रता का ही व्यवहार करना चाहिये।
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18) कोशिश किये बिना हार मानने से बेहतर हैं कोशिश करते हुए असफल रहना क्योंकि कोशिश कभी तो रंग लायेगी।
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19) कौन क्या कहता हैं ? कौन क्या करता है ? तुमको इससे मतलब नहीं, केवल यह ध्यान रखना हैं मैं क्या कर रहा हू।
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20) कौन हरे धरती का भार, निष्कलंक प्रज्ञावतार।
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21) कोलाहल से काल की निद्रा नहीं टूटती न धक्के मारने से समय का द्वार खुलता हैं ध्यान के व्यूह में जाओ, नीरवता व शांति को सिद्ध करो, ध्यान की गहनता और एकांत शक्ति के असली स्त्रोत हैं, भीड के कोलाहल से बचो, लक्ष्य को ध्यान के शर से विद्ध करो।
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22) काल का जरा भी विश्वास नहीं करना चाहिये।
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23) काल सब प्राणियो के सिर पर हैं इसलिये सबसे पहले कुशल पूछना चाहिये।
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24) कुरीति के अधीन रहना कायरता हैं और उसका विरोध करना पुरुषार्थ।

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