शनिवार, 31 जुलाई 2010

दो शब्दों ने बनाया दुनिया को दीवाना

दुनियाभर में भारत के दर्शन और हिन्दू धर्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद के मात्र दो शब्दों ने दुनिया को भारत का दीवाना बना दिया था और उस समय के विद्वानों को यह स्वीकार करना पड़ा था कि भारत सभी धर्मों की माँ है।

12 जनवरी 1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद का बचपन से ही धर्म और अध्यात्म की ओर रुझान था। धर्म-अध्यात्म के मर्मज्ञ विवेकानंद को दुनिया में भारतीय दर्शन की पताका फहराने का मौका उस समय मिला, जब 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म संसद का आयोजन हुआ। काफी कोशिशों के बाद विवेकानंद इस कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने में कामयाब रहे।

विवेकानंद शोध साहित्य से जुड़े डॉ. रामकिशोर के अनुसार विश्व धर्म संसद में शुरुआत में अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने स्वामी विवेकानंद को तुच्छ समझा और यह सोचकर कि वे एक गुलाम देश के प्रतिनिधि हैं, उन्हें पहले दिन सबसे अंत में बोलने का मौका दिया गया। विश्व धर्म संसद का उद्घाटन 11 सितंबर 1893 को हुआ और स्वामीजी को सबसे अंत में थोड़ी देर के लिए बोलने का मौका मिला।

रामकिशोर के अनुसार जब स्वामीजी ने अपने धर्म भाषण की शुरुआत में ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ कहा तो वातावरण वहाँ मौजूद सात हजार लोगों की तालियों की गड़गड़हाहट से गूँज उठा। तालियाँ लगभग दो मिनट तक लगातार बजती रहीं। 

विवेकानंद को थोड़ी देर के लिए मौका मिला था, लेकिन उनके करिश्माई संबोधन का असर कुछ ऐसा हुआ कि उनका संबोधन निर्धारित समय से काफी अधिक देर तक चला।

स्वामीजी के करिश्मे का ऐसा असर हुआ कि धर्म संसद के अध्यक्ष डॉ. बोराज कह उठे-‘भारत धर्मों की माँ है, जिसका प्रतिनिधित्व भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी ने किया। उन्होंने श्रोताओं पर गहरा असर छोड़ा है। अपने इस संबोधन से विवेकानंद अमेरिका तथा तमाम दुनिया की प्रेस की सुर्खियों में छा गए और उन्हें ‘भारत का तूफानी संत’ करार दिया गया।

न्यूयॉर्क क्रिटिक ने लिखा- 'वे (स्वामी) किसी दैवीय शक्ति से युक्त वक्ता हैं।' न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा- ‘विवेकानंद नि:संदेह धर्म संसद की शीषर्तम हस्ती हैं।' विवेकानंद ने धर्म संसद में कई बार हिन्दू दर्शन पर भाषण दिया। 

रामकिशोर का कहना है कि शुरुआत में स्वामीजी को तुच्छ समझकर उन्हें सबसे अंत में बोलने का मौका मिलता था, लेकिन बाद में उनका भाषण इसलिए अंत में रखा जाता था कि लोग उनका भाषण सुनने के लिए ही आखिर तक बैठे रहें।

धर्म संसद का समापन 27 सितंबर 1893 को हुआ, जिसमें सार्वभौमिकता और धार्मिक सहिष्णुता पर जोर दिया गया। इसके बाद स्वामी विवेकानंद की ख्याति ऐसी फैली कि उन्हें दुनिया के कई देशों ने अपने यहाँ धर्म पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया।

रामकिशोर का कहना है कि स्वामीजी एक प्रखर वक्ता ही नहीं, बल्कि दूरदृष्टा भी थे। धर्म संसद में भाग लेने के बाद वे जब कोलंबो के जरिए 1897 में भारत पहुँचे तो उन्होंने भविष्यवाणी की कि भारत 50 साल बाद आजाद हो जाएगा और उनकी भविष्यवाणी बिल्कुल सही साबित हुई।

स्वामीजी ने रामकृष्ण मठ और मिशन की स्थापना के साथ ही हिन्दू दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए काफी कुछ किया। बीसवीं सदी के बहुत से विद्वानों और नेताओं ने स्वामी विवेकानंद के प्रभाव को स्वीकार किया। 

स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक बार कहा था-'स्वामी विवेकानंद ने हिन्दूवाद और भारत को बचाने का काम किया।' 

सुभाषचंद्र बोस का कहना था-‘स्वामीजी आधुनिक भारत के निर्माता हैं।’ स्वामी विवेकानंद के जीवन चरित्र ने अनेक स्वतंत्रता सेनानियों को नया हौसला प्रदान करने का भी काम किया। अरबिन्दो घोष स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे।

गुरु और शिष्य


गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय। 
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।

'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है।

वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।

गुरु क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य। गुरु वह है ‍जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्‍य भी वह है जो जान-परखकर गुरु बनाता है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानंद) मेरा शिष्य हो जाए क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि यह वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष के मार्ग पर दौड़ने लगेगा।

लेकिन स्वामी विवेकानंद बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं। वे रामकृष्‍ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती।

तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं।

गुरु और शिष्य की परम्परा के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह जाहिर होता है कि गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु बनाने में कितनी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा।

जेतवन का पंछी :

जेतवन में भगवान बुद्ध प्रवचन देते थे। एक दिन एक भिक्षु ने पूछा- तथागत यह वातायन में एक पक्षी प्रतिदिन आपके प्रवचन के शुरू होने के कुछ क्षण पूर्व आकर चुपचाप बैठ जाता है और तब तक शांत बैठा रहता है तब तक आपके प्रवचन समाप्त नहीं हो जाते। यह आपके प्रवचन बड़े ध्यान से सुनता है कृपया इसका रहस्य बताएँ।

बुद्ध ने कुछ क्षण वातायन में बैठे उस पक्षी को देखा फिर कहा- भंते हम जीवन में अहंकारवश या अन्य सांसारिक कार्यों के चलते बहुत सारे ऐसे मौके छोड़ देते हैं जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यह पक्षी अपने पिछले जन्म में एक सेठ था और इसी तरह बुद्ध उसके नगर से गुजरते थे, लेकिन चूँकि यह सेठ था और इसे बुद्ध के चरणों में नमन करने की फुर्सत नहीं थी, लेकिन बुद्ध सब जानते हैं कि उसे कितनी फुर्सत थी।

यह व्यक्ति बुद्ध को देखने और उन्हें सुनने का मौका चूक गया, लेकिन मरने के बाद जब यह पक्षी बना तो इसकी चेतना में स्मृति शेष रही और यह 'भाव बोध' द्वारा जानता है कि इससे कुछ गलत हुआ है, लेकिन इसका 'भाव बोध' भी अच्छा है कि इसने फिर से चूके हुए मौके को पकड़ लिया। 

हमारे जीवन में भी ऐसे बहुत से मौके आते हैं जबकि हम भगवानश्री को देखने और सुनने से चूक जाते हैं, क्योंकि हम किसी अन्य तथाकथित के चक्कर में लगे रहते हैं। ऐसे आदरणीय और सच्चे गुरुओं को गुरु पूर्णिमा पर शत: शत: नमन...।

जीवन विकास के लिए उपयुक्त आहार

अन्न को शास्त्रों में प्राण की संज्ञा दी गई है । अन्न को प्राण कहने में न तो कोई अयुक्तता है और न अत्युक्ति । निःसन्देह वह प्राण ही है । भोजन के तत्वों से ही शरीर में जीवनी शक्ति का निर्माण होता है । उसी से माँस, रक्त, मज्जा, अस्थि तथा ओजवीर्य आदि का निर्माण हुआ करता है । भोजन के अभाव में इन आवश्यक तत्वों का निर्माण रुक जाये तो शरीर शीघ्र ही स्वत्वहीन होकर स्तब्ध हो जाय । 

अन्न सर्व साधन रूप शरीर का आधार है । प्रत्येक मनुष्य तन, मन अथवा आत्मा से जो कुछ दिखाई देता है, उसका बहुत कुछ आधार हेतु उसका आहार ही है । जन्म काल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्राणी का पालन, सम्वर्धन एवं अनुवर्धन आहार के आधार पर ही हुआ करता है । किसी का बलिष्ठ अथवा निर्बल होना, स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होना बहुत अंशों तक भोजन पर ही निर्भर रहता है । 

समस्त सृष्टि तथा हमारे जीवन के लिए भोजन का इतना महत्व होते हुए भी कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो प्राण रूप आहार के विषय में जानकारी रखते हों और उसके सम्बन्ध में सावधान रहते हों, संसार में दिखलाई देने वाले शारीरिक एवं मानसिक दोषों में अधिकांश का कारण आहार सम्बंधी अज्ञान एवं असंयम ही है । जो भोजन शरीर को शक्ति और मन को बुद्धि को प्रखरता प्रदान करता है, वही असंयमित भी बना देता है । शारीरिक अथवा मानसिक विकृतियों को भोजन विषयक भूलों का ही परिणाम मानना चाहिये । अन्न दोष संसार के अन्य दोषों की जड़ है- जैसा खाये अन्न वैसा बने मन वाली कहावत से यही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का जन्म एवं पालन अच्छे, बुरे आहार पर ही निर्भर है । 

निःसंदेह मनुष्य जिस प्रकार का राजसी, तामसी अथवा सात्विकी भोजन करता है, उसी प्रकार उसके गुणों एवम् स्वभाव का निर्माण होता है और जिनसे प्रेरित उसके कर्म भी वैसे ही हो जाते हैं फलतः कर्म के अनुसार ही मनुष्य का उत्थान-पतन हुआ करता है । जो मनुष्य इतने महत्वपूर्ण पदार्थ भोजन के सम्बन्ध में अनभिज्ञ है अथवा असंयम बरतता है उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता । आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए प्रक्ताहार विहार का नियम कड़ाई के साथ पालन करने के लिए कहा गया है, जो मनुष्य किसी भी क्षेत्र में स्वस्थ, सुन्दर, सौम्य एवं समुन्नत जीवनयापन करना चाहता है उसके लिए भोजन सम्बंधी ज्ञान तथा उसका संयम बहुत आवश्यक है । भोजन के प्रति असंयम व्यक्ति अन्य किसी प्रकार के संयम का पालन नहीं कर सकता । भोजन का संयम अन्य इन्द्रियों के संयमों के पालन करने में बहुत कुछ सहायक होता है । 

जीवन निर्माण के आधार भोजन सम्बंधी अज्ञान कुछ कम खेद का विषय नहीं है । मनुष्य जो कुछ खाता है और जिसके बल पर जीता है, उसके विषय में क, ख तक न जानना निःसन्देह लज्जा की बात है । कितने आश्चर्य का विषय है जो मनुष्य कपड़ों लत्तों, घर-मकान और देश- देशान्तर के विषय में बहुत कुछ जानता है या जानने के लिए उत्सुक रहता है, वह जीवन तत्व देने वाले भोजन के विषय में जरा भी नहीं जानता और न जानना चाहता है । इसी अज्ञान के कारण हमारी भोजन सम्बंधी न जाने कितनी भ्रान्त धारणायें बन गई हैं । अनेक लोग यह यह समझते हैं कि जो भोजन जिव्हा को रुचिकर लगे, जिसमें दूध, दही, मक्खन आदि पौष्टिक पदार्थों का प्रचुर मात्रा में समावेश हो, मिर्च- मसाले इस मात्रा में पड़े हों जिन्हें देखकर ही मुँह में पानी आये वही भोजन सबसे अच्छा है । इसके विपरीत बहुत से लोग भोजन के नाम पर पापी पेट में जो कुछ माँस, घास, कूड़ा-कर्कट मिल जाये, डाल लेना ही आहार का उद्देश्य समझते हैं । 

भोजन के विषय में यह दोनों मान्यताएँ भ्रमपूर्ण एवं हानिकारक हैं । भोजन का प्रयोजन न तो जिव्हा का स्वाद है और न पेट को पाटना । जो मसालेदार, चटपटे और तले-जले पदार्थों का सेवन करते हैं, उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है और जो निस्सार एवं तत्व हीन भोजन से पेट को पाटते रहते हैं उनका आमाशय शीघ्र ही अशक्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप दोनों मान्यताओं वालों को रोगों का शिकार बनना पड़ता है । रोग शरीर के भयानक शत्रु हैं- सभी जानते हैं- किन्तु ऐसा जानते हुए भी उनके मल-मूत्र कारक आहार सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने के लिए तत्पर होने को तैयार नहीं । 

भोजन का एकमात्र उद्देश्य भूख निवृत्ति ही नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य आरोग्य एवं स्वास्थ्य ही है । जिस भोजन ने भूख को तो मिटा दिया किन्तु स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला वह भोजन उपयुक्त भोजन नहीं माना जायेगा । उपयुक्त भोजन वही है, जिससे क्षुधा की निवृत्ति एवं स्वास्थ्य की वृद्धि हो ।

विटामिनों की दृष्टि से हरे शाक तथा फल आदि ही स्वास्थ्य के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त आहार हैं, । इसके अतिरिक्त क्षार नामक आवश्यक तत्व भी फलों तथा शाकों से पाया जा सकता है । अनाज के छिलकों में भी यह तत्व वर्धमान रहता है किन्तु अज्ञानवश मनुष्य अधिकतर अनाजों को छील-पीसकर यह तत्व नष्ट कर देते हैं । 

कहना न होगा कि प्रकृति जिस रूप में फलों, शाकों तथा अनाजों को पैदा और पकाया करती है, उसी रूप में ही वे मनुष्य के वास्तविक आहार हैं । उनकों न तो अतिरिक्त पकाने अथवा उनमें नमक, शक्कर आदि मिलाने की आवश्यकता है । किन्तु मनुष्य का स्वभाव इतना बिगड़ गया है कि वह शाक-भाजियों तथा अन्न आदि को उनके प्रकृत रूप में नहीं खा सकता । इसके लिए यदि आहार को थोड़ा-सा हल्की आँच पर पका लिया जाये तब भी कोई विशेष हानि नहीं होती । किन्तु जब उनको बुरी तरह तला या जला डाला जाता है तो निश्चय ही उनके सारे तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह आहार अयुक्ताहार हो जाता है । जहाँ तक सम्भव हो खाद्य पदार्थों को प्रकृत रूप में ही खाना चाहिये अथवा मंदी आँच या भाप पर थोड़ा- सा ही पकाना चाहिये । मिर्च, मसालों का प्रयोग निश्चय ही हानिकारक है इनका उपयोग तो बिल्कुल करना ही नहीं चाहिए । 

इन सब बातों का मुख्य तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए उपयुक्त भोजन उसी को कहा जायेगा जिसके विटामिन तथा क्षार आदि तत्व सुरक्षित रहें, जो आसानी से पच जाये और जिसमें अधिक से अधिक सात्विक गुण हों । फल, शाक, मेवा, दूध आदि ही ऐसे पदार्थ हैं, जो मनुष्य के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार हैं । 

इसके साथ ही भोजन के संयम में स्वल्प अथवा तृप्ति तक भोजन करना ही ठीक है, अधिक भोजन से मनुष्य में आलस्य, प्रमाद, शिथिलता आदि ऐसे आसुरी दोष आ जाते हैं, जिनसे न तो वह परिश्रमी रह पाता है और न सात्विक स्वभाव का । असात्विकता अथवा असुरता मनुष्य को पतन की ओर ही ले जाती है । काम, क्रोध, आदि विचारों की प्रबलता भी असंयमित एंव अयुक्त आहार करने से ही होती है । यदि शरीर सब तरह से स्वस्थ एवं शुद्ध है तो मनुष्य का मन निश्चय ही सात्विक रहेगा । सात्विक मन एवं स्वस्थ शरीर के सम्पर्क से आत्मा का प्रसन्न तथा प्रमुदित रहना निश्चित है, जो कि एक दैवी लक्षण है जिसे भोजन के माध्यम से मनुष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना ही चाहिए ।

निरोग जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र

नीरोग जीवन एक ऐसी विभूति है जो हर किसी को अभीष्ट है । कौन नहीं चाहता कि उसे चिकित्सालयों-चिकित्सकों का दरवाजा बार-बार न खटखटाना पड़े, उन्हीं का, ओषधियों का मोहताज होकर न जीना पड़े । पर कितने ऐसे हैं जो सब कुछ जानते हुए भी रोग मुक्त नहीं रह पाते ? यह इस कारण कि आपकी जीवन शैली ही त्रुटि पूर्ण है मनुष्य क्या खाये, कैसे खाये! यह उसी को निर्णय करना है । आहार में क्या हो यह हमारे ऋषिगण निर्धारित कर गए हैं । वे एक ऐसी व्यवस्था बना गए हैं, जिसका अनुपालन करने पर व्यक्ति को कभी कोई रोग सता नहीं सकता । आहार के साथ विहार के संबंध में भी हमारी संस्कृति स्पष्ट चिन्तन देती है, इसके बावजूद भी व्यक्ति का रहन-सहन, गड़बड़ाता चला जा रहा है । परमपूज्य गुरुदेव ने इन सब पर स्पष्ट संकेत करते हुए प्रत्येक के लिए जीवन दर्शक कुछ सूत्र दिए हैं जिनका मनन अनुशीलन करने पर निश्चित ही स्वस्थ, नीरोग, शतायु बना जा सकता है । 

परमपूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक अध्यात्म के ऐसे पहलुओं पर सदा से ही जोर दिया जिनकी सामान्यतया मनुष्य उपेक्षा करता आया है और लोग अध्यात्म को जप-चमत्कार, ऋद्धि-सिद्धियों से जोड़ते हैं किंतु पूज्यवर ने स्पष्ट लिखा है कि जिसने जीवन सही अर्थों में सीख लिया उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । जीवन जीने की कला का पहला ककहरा ही सही आहार है। इस संबंध में अनेकानेक भ्रान्तियाँ है कि क्या खाने योग्य है क्या नहीं ? ऐसी अनेकों भ्रान्तियों यथा नमक जरूरी है, पौष्टिता संवर्धन हेतु वसा प्रधान भोजन होना चाहिए, शाकाहार से नहीं-मांसाहार स्वास्थ्य बनता है- पूज्यवर ने विज्ञान सम्मत तर्क प्रस्तुतः करते हुए नकारा है । एक-एक स्पीष्टरण ऐसा है कि पाठक सोचने पर विवश हो जाता है कि जो तल-भूनकर स्वाद के लिए वह खा रहा है वह खाद्य है या अखाद्यं अक्षुण्ण स्वास्थ्य प्राप्ति का राजमार्ग यही है कि मनुष्य आहार का चयन करें क्योंकि यही उसकी बनावट नियन्ता ने बनायी है तथा उसे और अधिक विकृति न बनाकर अधिकाधिक प्राकृतिक् रूप में लें । 

अनेक व्यक्ति यह जानते नहीं हैं कि उन्हें क्या खाना चाहिए, क्या नहीं ? उनके बच्चों के लिए सही सात्विक संस्कार वर्धक आहार कौन सा है, कौन सा नहीं ? सही, गलत की पहचान कराते हुए पूज्यवर ने स्थान-स्थान पर लिखा है कि एक क्रांति आहार संबंधी होनी चाहिए, पाककला में परिवर्तन कर जीवन्त खाद्यों को निष्प्राण बनाने की प्रक्रिया कैसे उलटी जाय, यह मार्गदर्शन भी इसमें है । राष्ट्र् के खाद्यान्न संकट को देखते हुए सही पोष्टिक आहार क्या हो सकता है यह परिजन इसमें पढ़कर घर-घर में ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं । अंकुरित मूँग-चना-मूँगफली-हरी सब्जियों के सलाद आदि की व्यवस्था कर सस्ते शाकाहारी भोजन व इनके भी व्यंजन कैसे बनाये जायँ इसका सर्वसुलभ मार्गदर्शन इस खण्ड में है । शाकाहार-मांसाहार संबंधी विवाद को एकपक्षीय बताते हुए शाकाहार के पक्ष में इतनी दलीलें दी गयी हैं कि विज्ञान-शास्त्र सभी की दुहाई देनेवाले को भी नतमस्तक हो शाकाहार की शरण लेनी पड़ेगी, ऐसा इसके विवेचन से ज्ञात होता है । 

हमारी जीवन शैली में कुछ कुटेवें ऐसी प्रेवश कर गयी हैं कि वे हमारे 'स्टेटस' का अंग बनकर अब शान का प्रतीक बन गयीं हैं । उनके खिलाफ सरकारी, गैरसरकारी कितने ही स्तर पर प्रयास चलें हो, उनके तुरन्त व बाद में संभावित दुष्परिणामों पर कितना ही क्यों न लिखा गया हो, ये समाज का एक अभश्प्त अंग बन गयीं हैं । इनमें हैं तम्बाकू का सेवन, खैनी, पान मसाले या बीड़ी-सिगरेट के रूप में तथा मद्यपान । दोनों ही घातक व्यसन हैं । दोनों ही रोगों को जन्म देते हैं-काया को व घर को जीर्ण-शीर्ण कर बरबादी की कगार पर लाकर छोड़ देते हैं । इनका वर्णन विस्तार से वैज्ञानिक विवेचन के साथ करते हुए पूज्यवर ने इनके खिलाफ जेहाद छेड़ने का आव्हान किया है । 

इन सबके अतिरिक्त नीरोग जीवन का एक महत्वपूर्ण सूत्र है हमारा रहन-सहन । हम क्या पहनते हैं ? कितना कसा हुआ हमारा परिधान है ? हमारी जीवनचर्या क्या है ? इन्द्रियों पर हमारा कितना नियंत्रण है ? क्या हमारी रहने की जगह में धूप व प्रचुर मात्रा में है या हम सीलन से भरी बंद जगह में रहकर स्वयं को धीरे-धीरे रोगाणुओं की निवास स्थली बना रहे हैं, यह सारा विस्तार इस वाङ्मय के उपसंहार प्रकरण में है । आभूषणों, सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग, नकली मिलावटी चीजों का शरीर पर व शरीर के अन्दर प्रयोग यह सब हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है यह बहुसंख्य व्यक्ति नहीं जानते । हमारी जीवन-शैली कैसे समरसता से युक्त, सुसंतुलित एवं तनावयुक्त बने, यह शिक्षण जीवन जीने की कला का सर्वांगपूर्ण शिक्षण है एवं इस विद्या में परमपूज्य गुरुदेव को विशेषज्ञ माना जा सकता है । 

हरीतिमा संवर्धन नरवेल परमार्थ साधता है, स्वार्थ भी जीवन शैली आहार-विहार का क्रम बदल कर हर व्यक्ति नीरोग जीवन जी सकता है, यह इस वाङ्मय की धुरी है । निश्चित ही पाठकगण इसके स्वाध्याय से लाभान्वित हो समर्थ स्वस्थ नागरिक राष्ट्र् को दे सकेंगे॥

वास्तविक स्रोत की खोज

जब तुम किसी मित्र से मिलो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो और हर्ष ही हो जाआ॓। और तब हर्ष से भरकर बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुखभाव में केंद्रित रहो। -ओशो

अन्य कई स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और अचानक तुम अपने भीतर भी कुछ उगते हुए अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाआ॓, उसे परिधि पर ही रहने दो। तुम उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाआ॓। जब तुम उस पर अपना बोध डालोगे, तब वह भाव फैलने लगेगा।

वह तुम्हारा पूरा शरीर, पूरा अस्तित्व ही बन जाएगा। और बस उसे देखने वाले ही मत बने रहो, उसमें विलीन हो जाआ॓। कुछ क्षण होते हैं जब तुम हर्ष, सुख और आनंद का अनुभव करते हो, लेकिन तुम उन्हें चूकते रहते हो क्योंकि तुम विषय-केंद्रित हो जाते हो।

जब भी प्रसन्नता आती है, तुम समझते हो कि वह बाहर से आ रही है। तुम किसी मित्र से मिले- स्वभावत: ऐसा लगता है कि सुख तुम्हारे मित्र से आ रहा है, उसे देखने के कारण आ रहा है। यह वास्तविक तथ्य नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो केवल परिस्थिति बन गया है। मित्र ने हर्ष को बाहर आने में सहयोग दिया, तुम्हें हर्ष को देखने में सहयोग दिया।

ऐसा हर्ष के साथ ही नहीं, वरन हर चीज के साथ है। क्रोध के साथ, उदासी के साथ, दुख के साथ, सुख के साथ, हर चीज के साथ ऐसा ही है। दूसरे तो केवल परिस्थिति हैं जिनमें तुम्हारे भीतर छिपी चीजें अभिव्यक्त हो जाती हैं। वे कारण नहीं हैं। वे तुम्हारे भीतर कुछ उत्पन्न नहीं कर रहे। जो भी हो रहा है, तुम्हें ही हो रहा है। वह तो सदा से ही भीतर मौजूद रहा है। बस इतना ही हुआ है कि उस मित्र का मिलना एक परिस्थिति बन गया जिसमें छिपा हुआ जो था, वह खुले में आ गया- छिपे हुए स्रोत से बाहर निकल आया- वह प्रकट हो गया, व्यक्त हो गया।

जब भी ऐसा हो, आंतरिक अनुभूति में केंद्रित बने रहो, और तब जीवन में हर चीज के प्रति तुम्हारा भिन्न ही दृष्टिकोण होगा। नकारात्मक भावदशाओं के साथ भी ऐसा ही करो। जब क्रोध उठे तो उस व्यक्ति पर केंद्रित मत हो जाना जिसने क्रोध को जगाया है। उसे परिधि पर ही बना रहने दो। तुम क्रोध ही बन जाआ॓।

क्रोध को उसकी पूर्णता में अनुभव करो। भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत करो, भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत करो। मत कहो कि उस व्यक्ति ने क्रोध दिलाया है। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो केवल परिस्थिति बन गया है। बल्कि उसके प्रति अनुगृहीत होआ॓ कि उसने छिपी हुई चीज को खुले में लाने में तुम्हारी मदद की।

गायत्री की असंख्य शक्तियां

संसार में कोई भी वैभव और उल्लास शक्ति के मूल्य पर मिलता है। जिसमें, जितनी क्षमता होती है, वह उतना ही सफल होता है, वैभव उपार्जित कर लेता है।

जीवन में शक्ति के बिना कोई आनंद नहीं उठाया जा सकता। अनायास उपलब्ध भोग भी इसके बिना नहीं भोगे जा सकते। इन्द्रियों में शक्ति रहने तक ही विषय भोगों का सुख प्राप्त किया जा सकता है।

यदि ये किसी प्रकार अशक्त हो जाएं, तो आकर्षक से आकर्षक भोग भी उपेक्षणीय और घृणास्पद लगते हैं। नाड़ी संस्थान की क्षमता क्षीण हो जाए तो शरीर का सामान्य क्रियाकलाप ठीक तरह नहीं चल पाता। मानसिक शक्ति घट जाने पर मनुष्य की गणना विक्षिप्तों में होने लगती है। धन-शक्ति न रहने पर दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। मित्र शक्ति न रहने पर एकाकी जीवन निरीह और निरर्थक लगने लगता है। आत्म-बल न होने पर प्रगति-पथ पर एक कदम भी यात्रा नहीं बढ़ती। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्म-बल से रहित व्यक्ति के लिए असम्भव है।

मनीषियों ने विभिन्न शक्तियों को देवनामों से सम्बोधित किया है। ये समस्त देव-शक्तियां उस परम शक्ति की ही किरणें हैं। सभी देव शक्तियां उसके ही स्फुर्लिंग हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहा जाता है। जैसे जलते हुए अग्निकुंड से चिंगारियां उछलती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति सरिता गायत्री की लहरें देव शक्तियों के रूप में देखने में आती हैं। सम्पूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को गायत्री कहना उचित होगा। पूर्वजों ने चरित्र को उज्ज्वल तथा विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर तक पहुंचाने के लिए उपासना के महात्मक संबल गायत्री महामंत्र को पकड़ा। इस सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरूषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे।

संसार में कुछ भी पाने की एकमेव महाशक्ति ने निखिल ब्रह्मांड में अपनी अनंत शक्तियां बिखेरी हैं। उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है, उन्हें मनुष्य अपने पुरूषार्थ से प्राप्त कर सकता है। विज्ञान द्वारा मनुष्य ने विघुत, ताप, प्रकाश, चुम्बक, शब्द, अणुशक्ति जैसी प्रकृति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को ढूंढा और प्राप्त किया है।

परब्रह्म की अनेक चेतनात्मक शक्तियां भी आत्मिक प्रयासों द्वारा पायी जा सकती हैं। मनुष्य अपने चुम्बकत्व के सहारे वह भौतिक जीवन में किसी को भी प्रभावित और आकर्षित करता है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विघमान हो, तो फिर और कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती, जो नर को नारायण, पुरूष को पुरूषोत्तम बनाने से वंचित रख सके।

श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है, जितना भौतिक समस्याएं हल करने में आये दिन लगाना पड़ता है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरूषार्थ और साहस करना पड़ता है, उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्माण-निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है- प्रज्ञा प्रखरता की। यदि वह प्राप्त जाए तो जीवन में ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाओं को प्राप्त कर सकने में कोई कठिनाई शेष नहीं रह जाती।

-गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार

लकडहारा और सन्यासी

एक गांव में एक लकडहारा रहा करता था।वह हर रोज जंगल में जाकर लकडी काटता और उसे बाजार में बेच देता। किन्तु कुछ समय से उसकी आमदनी घटती चली जा रही थी क्योंकि स्पर्धा और जंगल कटाई की वजह से उसके धंधे में लगातार कमी आने लगी थी।ऐसी परिस्थिति में उसकी एक संन्यासी से भेंट हुई। लकडहारे ने संन्यासी से विनम्र बिनती की और बोला ''महाराज कृपा करें। मेरी समस्या का कोई उपाय बताइये।''

इसपर उस सन्यासी ने लकडहारे को कहा ''आगे जा।''

उस सन्यासी के आदेश पर या तो कहें, शब्दों पर विश्वास रख आगे की ओर निकल चला। तब कुछ समय पश्चात सुदूर उसे चंदन का वन मिला। वहां की चंदन की लकडी बेच-बेच कर लकडहारा अच्छा-खासा धनी हो गया। ऐसे सुख के दिनों में एक दिन लकडहारे के मन में विचार आया कि ''सन्यासी ने तो मुझे आगे जा कहा था। लेकिन मैं तो मात्र चंदन के वन में ही घिर कर रह गया हूं। मुझे तो और आगे जाना चाहिये।''

यह विचार करते-करते वह और आगे निकल गया तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है! आगे उसे एक सोने की खदान दिखाई दी। सोना पाकर लकडहारा और अधिक धनवान हो गया। उसके कुछ दिन के पश्चात लकडहारा और आगे चल पडा। अब तो हीरे और माणिक-पाचू और मोती उसके कदम चूम रहे थे। उसका जीवन बहुत सुखी और समृध्द हो गया।

किंतु लकडहारा फिर सोचने लगा ''उस सन्यासी को इतना कुछ पता होने के बावजूद वह क्यों भला इन हीरे माणिक का उपभोग नहीं करता।'' इस प्रश्न का समाधानकारक उत्तर लकडहारे को नहीं मिला। तब वह फिर उस सन्यासी के पास गया और जाकर बोला ''महाराज आप ने मुझे आगे जाने को कहा और धनसमृध्दी का पता दिया लेकिन आप भला इन सब सुखकारक समृध्दि का लाभ क्यों नहीं उठाते ?

इसपर संन्यासी ने सहज किन्तु अत्यंत सटीक उत्तर दिया। वह बोले ''भाई तेरा कहना उचित है, लेकिन और आगे जाने से ऐसी बहुत ही खास उपलब्धि हाथ लगती है जिसकी तुलना में ये हीरे और माणिक केवल मिट्टी और कंकर के बराबर महसूस होते हैं। मैं उसी खास चीज की तलाश में प्रवृत्त हूं।''

सन्यासी के इस साधारण मगर गहरे अर्थ वाले कथन से लकडहारे के मन में भी विवेक-विचार जागृत हुआ। उसने सन्यासी को गुरू मानकर उसका शिष्यत्व स्वीकार लिया और वह साधक बन गया।

सबसे मूल्यवान चीज का नाम ही तो है ईश्वरलाभ । कोई भी तलाश ईश्वर के बिना पूर्ण नही होती ।


टुटा हुआ घड़ा

एक भिश्ती था। उसके पास दो घडे थे। उन घडों को उसने एक लम्बे डंडे के दो किनारों से बांधा हुआ था। एक घडा तों मजबूत और सुन्दर था , परन्तु दूसरे घडे में दरार थी।

भिश्ती हर सुबह नदी तट पर जा कर दोनों घडों में पानी भरता और फिर शुरू होता उसका लम्बा सफर। मालिक के घर तक जब तक वह वहां पहुंचता टूटे हुए घडे में से आधा पानी रास्ते में ही बह चुका होता जबकि अच्छे घडे में पूरा पानी होता। दरार वाला घड़ा उदास और दुखी रहता क्योंकि वह अधूरा था। उसे अपनी कमी का एहसास था। वह जानता था कि जितना काम उसे करना चाहिये वह उससे आधा ही कर पाता है।

एक दिन टूटा हुआ घडा अपनी नाकामयाबी को और सहन नहीं कर पाया और वह भिश्ती से बोला ''मुझे अपने पर शर्म आती है मै अधूरा हूं। मैं आपसे क्षमा मांगना चाहता हूं।'' भिश्ती ने उससे पूछा ''तुम्हें किस बात की शर्म है।'' ''आप इतनी मेहनत से पानी लाते है और मै उसे पूरा नहीं रोक पाता आधा रास्ते में ही गिर जाता है । मेरी कमी के कारण मालिक को आप पूरा पानी नहीं दे पाते'' दरार वाला घडा बोला।

भिश्ती को टूटे हुए घडे पर बहुत तरस आया। उसने प्यार से टूटे हुए घडे से कहा ''आज जब हम पानी लेकर वापस आयेंगे तब तुम रास्ते में खुबसूरत फूलों को ध्यान से देखना। चढते सूरज की रोशनी में यह फूल कितने अच्छे लगते है।''और उस दिन टूटे हुए घडे ने देखा कि सारे रास्ते के किनारे बहुत ही सुन्दर रंगबिरंगे फूल खिले हुए थे।

उन लाल नीले पीले फूलों को देख कर उसका दुखी मन कुछ समय के लिये अपना दुख भूल गया। परन्तु मालिक के घर पहुंचते ही वह फिर उदास हो गया। उसे बुरा लगा कि फिर इतना पानी टपक गया था। नम्रतापूर्वक टूटे हुए घडे ने फिर भिश्ती से माफी मांगी।

तब वह भिश्ती टूटे हुए घडे से बोला ''क्या तुमने ध्यान दिया कि रास्ते में वह सुन्दर फूल केवल तुम्हारी तरफ वाले रास्ते पर ही खिले हुए थे। मैने फूलों के बीज केवल तुम्हारी तरफ ही बोये थे और हर सुबह जब हम इस रास्ते से गुजरते तो इन पौधों को तुम्हारे टपकते हुए घडे से पानी मिल जाता था । वर्ना में इन्हें कहाँ पानी देता था ? पिछले दो सालों से यही फूल मालिक के घर की शोभा बढाते हैं। तुम जैसे भी हो बहुत काम के हो अगर तुम न होते तो मालिक का घर इन सुन्दर फूलों से सुसज्जित न होता।'' 

ईश्वर ने हम सब में कुछ कमियां दी है। हम सब उस टूटे, अधूरे घडे ज़ैसे हैं पर हम चाहें तो हम इन कमजोरियों पर काबू पा सकते हैं।उन कमजोरियों के बावजूद हम अपने चारों तरफ खूबसूरती फैला सकते हैं खुशियां बांट सकते हैं, अपनी कमी में ही अपनी मजबूती ढूंढ सकते हैं।


दाढ़ी की आग

एक बादशाह ने वजीर के रिक्त पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार बुलवाए। कठिन परीक्षा से गुज़र कर तीन उम्मीदवार योग्य पाए गए।

तीनों उम्मीदवारों से बादशाह ने एक-एक कर एक ही सवाल किया, "मान लो मेरी और तुम्हारी दाढ़ी में एकसाथ आग लग जाए तो तुम क्या करोगे?"

"जहाँपनाह, पहले मैं आप की दाढ़ी की आग बुझाऊँगा," पहले ने उत्तर दिया।

दूसरा बोला, "जहाँपनाह पहले मैं अपनी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा।"

तीसरे उम्मीदवार ने सहज भाव से कहा, "जहाँपनाह, मैं एक हाथ से आपकी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा और दूसरे हाथ से अपनी दाढ़ी की।"

तीसरे का उत्तर सुनकर बादशाह ने वजीर के पद पर तीसरे उम्मीदवार की नियुक्ति कर दी।

अपनी ज़रूरत नज़रंदाज़ करने वाला नादान है। सिर्फ़ अपनी भलाई चाहने वाला स्वार्थी है। जो व्यक्तिगत जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरे की भलाई करता है वही बुद्धिमान है।


मक्खियाँ और शीरा


एक बार एक रेलवे स्टेशन पर मालगाड़ी से शीरे के बड़े-बड़े ड्रम उतारे जा रहे थे। उन ड्रमों से थोड़ा-थोड़ा शीरा मालगाड़ी के पास नीचे ज़मीन पर गिर कर टपक रहा था।

जहाँ शीरा गिरा था मक्खियाँ आकर बैठ गई और शीरा चाटने लगीं। ऐसा करने से उनके छोटे-छोटे मुलायम पंख उस शीरे में ही चिपक गए, फिर भी मक्खियों ने उधर ध्यान न देकर शीरे का लालच न छोड़ा और काफ़ी देर तक शीरा चाटने में ही मगन रहीं।

कुछ समय बाद वहाँ एक कुत्ता भी आ गया। कुत्ते को देखकर वे मक्खियाँ डरीं और वहाँ से उड़ने की कोशिश करने लगीं, परंतु पंख शीरे में चिपक जाने के कारण वे उड़ नहीं सकीं और शीरे के साथ-साथ वे सब भी कुत्ते का भोजन बनती गई।

उसी समय उड़ते-उड़ते और कई मक्खियाँ भी आयी उन लोगों ने उस नज़ारे को देखने के बावजूद भी उसे नजरंदाज करती रही और शीरे पर आकर बैठती गई। थोडी देर में उन सबके पंख भी शीरे में चिपक गए और वे भी उस कुत्ते का भोजन बन गई। उन्होंने पहले से पड़ी मक्खियों की दुर्गति और विनाश देखकर भी उनसे कोई सीख नहीं ली, जबकि वही विनाश उनकी भी प्रतीक्षा कर रहा था।

यही दशा इस संसार की है। मनुष्य देखता है कि लोभ-मोह किस तरह आदमी को दुर्गति में, संकट में डालता है, फिर भी वह दुनिया के इन दुर्गुणों से बचने की कोशिश कम ही करता है। परिणामत: अनेक मनुष्यों की भी वही दुर्गति होती है, जो उन लोभी मक्खियों की हुई।

सफेद और काला पत्थर

एक गरीब किसान था । उसने साहूकार से काफी पैसे कर्ज के तौर पर लेकर रख छोडा था । किसान की फसल ख़राब हो गई । वादे के अनुसार साहूकार का उधार चुकाने का समय हो गया था । किसान असमंजस में था की क्या किया जाए ?

उसकी एक बेटी थी । वह काफी समझदार थी । उसकी समझदारी से पूरा गाँव प्रभावित था । साहूकार ने किसान के सामने शर्त रखी की या तो वह सारा उधार चुका दें या फिर अपनी बेटी की शादी उसके साथ कर दे । लोगों ने इसे अन्यायपूर्ण शर्त बताया । यह देखकर साहूकार ने एक नए तरीके से अपनी बात किसान के सामने रखी ।

इसके अनुसार वह एक थैले में दो पत्थर रखेगा - एक काला और दूसरा सफेद ।

अगर काला पत्थर निकला तो उसे साहूकार के लड़की के साथ शादी करनी होगी और किसान का उधार माफ हो जायगा । सफेद पत्थर निकला तो लड़की को साहूकार से शादी नही करनी होगी और न ही उसके पिता को उधर चुकाना होगा ।यदि लड़की ने शर्त मानने से मना किया तो किसान को उधार चुकाना होगा और जेल भी जाना होगा ।

किसान और उसकी लड़की ने शर्त मान ली । सब लोग जमा हुए । साहूकार ने थैले में पत्थर डालते वक्त चालाकी दिखाई और दोनों पत्थर काले रंग के डाल दिए । लड़की ने साहूकार को यह करते हुये देख लिया । अब उसके सामने तीन रास्ते थे ।

पहला की वह चुपचाप पत्थर निकाल कर उस से विवाह कर ले और अपनी जिन्दगी अपने पिता के लिये बलिदान कर दे ।

दूसरा, वह पत्थर निकालने से मना कर दे और उसके पिता उधार चुकाए, साथ में जेल भी जाए ।

तीसरा, वह लोगों को बता दे की साहूकार बेईमानी कर रहा है, ऐसे में भी पिता को उधार तों चुकाना ही पड़ेगा ।

लड़की ने थोडी देर सोचा और पत्थर निकालने का फैसला किया । उसने थैले में हाथ डालकर पत्थर निकाला और अपनी मुट्ठी में बंद उस पत्थर को उछाल दिया । पत्थर जाकर दूर कही दूसरे पत्थरों में मिल गया । लोगों ने पत्थर पहचानने को कहा तो उसने पत्थर न पहचान पाने की असमर्थता जताने के बाद माफी मांगते हुआ कहा की थैले के अन्दर बचे पत्थर को देखकर अभी भी फैसला लिया जा सकता है । थैले के काले पत्थर को देखकर फैसला किसान और लड़की के हक में सुनाया गया ।किसान उस संकट से उबर गया ।

कभी-कभी हमें लगता है की सारे रास्ते बंद हो गए हैं , लेकिन लगातार विचार करने वालों के लिय एक रास्ता हमेशा खुला रहता है । कोई समस्या इन्सान से बड़ा नही हो सकता बशर्ते की हम उसके आगे हथियार न डालें।

मन्दिर और वैश्या

दो मित्र थे । दोनों शिव मन्दिर में दर्शन करने जा रहे थे । बरसात हो रही थी रास्ते में वैश्या के कोठे की झंकार सुनाई दी । एक दोस्त बोला तुम जाओ मैं तो वैश्या के पास जाऊंगा उसका रंग-ढंग देखूंगा । दूसरा बोला नहीं मैं तो मन्दिर ही जाऊंगा दोनों अपनी- अपनी जगह पहुँच गए । एक मन्दिर में और एक कोठे पर ।

अब कोठे वाला क्या सोचता है की मेरा दोस्त तो मन्दिर में भगवान् के दर्शन कर रहा होगा मैं कहाँ फँस गया और जो मन्दिर गया वो सोच रहा था इतनी बरसात मैं भींग गया । मेरा दोस्त उस वैश्या के पास आनंद से बैठा होगा । दोनों का भाव एक दूसरे की तरफ था ।

कुछ समय के बाद दोनों दोस्त मर गए। एक को स्वर्ग मिला । एक को नरक मिला।जो मन्दिर में गया था उसको नरक और जो कोठे पर गया था उसको स्वर्ग ।

दोनों फिर मिले तों नरक वाले दोस्त ने स्वर्ग वाले दोस्त से पूछा ,"तुझे स्वर्ग क्यों मिला तू तो कोठे पर गया था "।

वो मित्र बोला गया जरुर था मगर मेरा मन मन्दिर में ही था तब उसको समझ आई मन्दिर में तो वह गया जरुर था मगर मन तों वैश्या में ही था ।गौरतलब जो चीज मन से न की जाये वो सफल नहीं होती ।

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