वास्तव में न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद । उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है । द्वितीय समाज को, किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है ।
एकमात्र अध्यात्मवादी चिन्तन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचिपूर्ण ढंग से सामंजस्य का संस्थापन करता है, जहाँ वैयक्तिक उन्नति की ऊँचाईयों को आत्मा के शीर्षस्थल पर ले जाता है, वहीं यह भी उपदिष्ट करता है कि व्यक्ति और कुछ नहीं समष्टि का एक अभिन्न अंश है ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय क्र. ५३ धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म -६.७
Spiritually thinking.....
Both Nietzsche’s individualism and Marx’s socialism are impractical.
One of them regards an individual to be the "be all and end all" of all creation. Second one thinks of society as being the most important one.
But both fail when we evaluate them practically.
Only spiritual thinking can elegantly bridge the divide between these two viewpoints.
Spiritual thinking gives an individual the right to be free and achieve perfection, in the image of a most pious, holy and perfect soul. At the same time thinks of an individual as being an indivisible part of the society.
-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from
The Complete Works of Pandit Shriram Sharma Acharya Vol. 53
(Essence of Dharma and Its Significance) page 6.7