सोमवार, 3 जनवरी 2011

परमात्मा में प्रवेश

कभी भी, कहीं से परमात्मा में प्रवेश संभव हैं, क्योंकि वह सर्वत्र हैं। बस, उसने प्रकृति की चादर ओढ़ रखी हैं। यह चादर उघड़ जाए तो प्रति घड़ी-प्रतिक्षण उसका अनुभव होने लगता हैं। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती, जब उससे मिलन की अनुभूति न की जा सके। जिधर भी आख देखती हैं, उसी की उपस्थिति महसूस होती हैं। जहा भी कान सुनते हैं, उसी की संगीत सुनाई देता है। 

उन सर्वव्यापी प्रभु को देखने की कला भर आनी चाहिए। उसे निहारने वाली आख चाहिए। इस आख के खुलते ही वह सब दिशाओं में और सभी समयों में उपस्थित हो जाता हैं। रात में जब सारा आकाश तारों से भर जाए तो उन तारों के बारे में सोचो मत, उन्हें देखों। महासागर के विशाल वक्ष पर जब लहरें नाचती हों तो उन लहरों को सोचो सोचो मत-देखो। विचार थमे, शून्य एवं नीरव अवस्था में मात्र देखना संभव हो सके तो एक बड़ा राज खुल जाता हैं। 

और तब प्रकृति के द्वार से उस परम रहस्य में प्रवेश होता हैं जो कि परमात्मा हैं। प्रकृति परमात्मा पर पड़े आवरण से ज्यादा और कुछ भी नहीं हैं और जो इस रहस्यमय, आश्चर्यजनक एवं बहुरंगे घूँघट को उठाना जानते हैं।, वे बड़ी आसानी से जीवन के सत्य से परिचित हो जाते हैं। उनका परमात्मा में प्रवेश हो जाता हैं। 

सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरू के पास गया। सद्गुरू से उसने पूछा-‘‘मै परमात्मा को जानना चाहता हू। मैं धर्म को, इसमें निहित सत्य को पाना चाहता हॅ। आप मुझे बताए कि मैं कहा से प्रारम्भ करू ? सद्गुरू ने कहा-‘‘क्या पास के पर्वत से गिरते झरने की ध्वनि सुनाई पड़ रही हैं। उस युवक ने ‘हा’ में उत्तर दिया। इस पर सद्गुरू बोले-‘‘तब वहीं से प्रवेश करो यही प्रारंभ बिंदु हैं।’’

सचमुच ही परमात्मा में प्रवेश का द्वार इतना ही निकट हैं। पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर क्रीड़ा करने वाली सूर्य की किरणों में, लेकिन हर प्रवेशद्वार पर प्रकृति का परदा पड़ा हैं। बिना उठाए वह नहीं उठता और थोडा गहरे उतरकर अनुभव करें तो पाएंगे कि यह परदा प्रवेशद्वारों पर नहीं, हमारी अपनी दृष्टि पर हैं। इस तरह अपनी दृष्टि पर पड़े इस एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया हैं। यह एक परदा हम हटा सके तो हमारा परमात्मा में प्रवेश हो। 

अखण्ड ज्योति जुलाई 2005

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