रविवार, 15 अगस्त 2010

घर-घर महावीर की पूजा हो

नरेंद्र न केवल एक अच्छे गायक थे, यंत्र संगीत के भी एक कुशल कलाकार थे । तत्कालीन धु्रपद गायकों से उनने शिक्षा ली थी, पर इसके बावजूद वे एक तैराक, कुशल अश्वारोही एवं मँजे हुए पहलवान भी थे। सभी भारतीय खेलो में सिद्धहस्त थे । वे हनुमान जी से प्रभावित थे। अपने एक भाषण में उनने कहा है-

‘‘सारे भारत में महावीर की पूजा चालू करा दो। दुर्बल जाति के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करो । 

शरीर में बल नही, हृदय में साहस नही तो क्या होगा इन जड़ पिंड़ो से ? 

मैं चाहता हूँ, घर-घर महावीर की पूजा हो’’

भावनात्मक वसीयत

धन-संपदा की वसीयतें तो आम बात हैं, पर भावनाओं की वसीयत के उदाहरण बिरले ही देखने को मिलते हैं। सरदार भगत सिंह के होश सँभालने से पहले ही उनके चाचा सरदार अजीत सिंह अँगरेजी सरकार से विद्रोह करने के सिलसिले में फरार हो चुके थे। भगत सिंह को उसके बाद उनके दर्शन न हो सके । भगत सिंह अपने प्रिय चाचा के चरणचिन्हों पर चलकर देश के लिए मर मिटे। मरते दम तक उनकी ख्वाहिश रही कि उनको अपने उन चाचा के दर्शन हो जाते, जिनने देशभक्ति की प्रबल उमंगे अनदेखे सूत्रो से उन्हे सौंप दी थीं - 

भावनात्मक वसीयत के रुप में । 

ठक्कर बापा

मुंबई कार्पोरेशन में एक इंजिनियर की नौकरी पाने के बाद वह युवा निरंतर भ्रमण करता। उसे स्वच्छता और प्रकाश की व्यवस्था सौंपी गई। उसे मेहतरों की बस्तियों में जाने के बाद, उनकी दुरवस्था देखने का अवसर मिला। बच्चे असहाय, अशिक्षित, गंदे थे। पुरुष शराब पीते-लड़ते व पत्निया दिन भर बच्चों से मार-पीट करतीं। जूए-शराब ने सभी को कर्जदार बना दिया था। इस प्रत्यक्ष नरक को देखकर उस इंजीनियर ने अपनी आधिकारिक स्थिति के मुताबिक कुछ प्रयास किए, पर कही से कोई सहयोग न मिलने पर नौकरी छोड़ दी और ‘भारत सेवक समाज’ का आजीवन सदस्य बन गया । उसने सारा जीवन गंदी बस्तियों में अछुतो के उद्धार, उन्हे शिक्षा देने, गंदी आदतें छुड़वाने, उन्हे साफ रखने के प्रयासों में लगा दिया। 

वही युवक ‘ठक्कर बापा’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

आज के शहरीकृत भारत को, जो और भी गंदा है, हजारो ठक्कर बापा चाहिए।

राजा राममोहन राय

सती प्रथा के विरुद्ध मोरचा खड़ा करने वाले एवं विधवा विवाह के प्रचंड समर्थक राजा राममोहन राय को इस दिशा मे लाने वाली, एक महत्वपूर्ण घटना है। उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई। परिवार के लोगो ने उनकी भोली स्त्री को आवेश दिला के, नशीली चीजें खिला चिता पर बैठा दिया । कोई उनकी चीत्कार न सुन सके, इसलिए जोर-जोर से बाजे बजाने की व्यवस्था कर दी गई। 

धर्म के नाम पर चलने वाली इस नृशंसता को देख कर, राजाराम मोहन राय का दिल चीत्कार कर उठा। वे भाभी को बचा तो नही सके, पर उनने एक प्रचंड आंदोलन इसके विरुद्ध आरंभ किया। अँगरेजी सरकार ने कानून बनाकर सती प्रथा को रोक दिया। ‘विधवा विवाह मीमांसा’ नामक एक ग्रंथ उनने सारे पुरातन ग्रंथो का अध्ययन कर लिखा। उन्हे विचारशीलो का समर्थन मिलता चला गया। उनने एक हिंदू कॉलेज की भी स्थापना की। फैलती ईसाइयत से लड़ने मे इस विद्यालय ने बड़ी भूमिका निभाई। 

मित्र ! तुम भी .................

रोम की राज्यसभा के सभापति सीजर पर षड्यंत्रकारी ने आक्रमण किया । षड्यंत्रकारी उन पर आघात कर रहे थे । सीजर निशस्त्र थे, फिर भी किसी प्रकार वे अपना बचाव करने का प्रयत्न कर रहे थे । इसी समय उनके परम विश्वासी मित्र ब्रुअस की ओर देखकर कहा-‘‘मित्र ! तुम भी ..................’’। 

सीजर ने अपने बचाव का प्रयत्न छोड़ दिया और आहत होकर मृत्यु की गोद में गिर पड़े। 

खुदीराम को फाँसी

खुदीराम को फाँसी हो गई। थोड़ी आयु में, जो थोड़ा-सा समय था, वह भी संघर्ष में गुजरा कि देश, धर्म और समाज का पुनरुद्धार हो तो वे अंतिम समय में अपने अभीष्ट से कैसे हट जाते। फाँसी के समय वे वैसी ही सजावट के साथ गए, जैसा दुल्हा बरात में सजा होता है। दिन भर उनकी कोठरी राष्ट्रीय गीतों से गूजँती रही , पर वे सदैव गहरी नींद में सोए। जेल अवधि में इनका वजन भी आश्चर्यजनक रुप से बढ गया। नित्य वे दंड-बैठक भी लगाते। जिस दिन उन्हें फाँसी होनी थी , प्रातः काल जल्दी उठे। उपासना की, व्यायाम किया। शरीर सँवारा, जैसे वरयात्रा में जाना हो। हँसते हुए गए। 
वंदे मातरम् का जयघोष करते हुए, फाँसी के तख्ते पर झुल गए। 

धन्य है यह भूमि, जिसने ऐसे शहीदों को जन्म दिया। 

ज्ञानदेव

ऐसा कहा जाता है कि चांगदेव 1400 वर्षो से योग-साधना कर रहे थे। उन्हे भारत का महान योगी माना जाता था। ज्ञानेश्वर सहित तीनों अन्य भाई-बहनो की प्रशंसा सुन उनके मन में आया कि इनसे सत्यासत्य की जानकारी लूँ। प्रश्न रुप में एक सादा कागज भेज दिया। मुक्ताबाई के हाथ में पत्र आया तो वे हँस पड़ी। बोलीं-हमारे योगीराज वर्षो की तप-साधना के बावजूद कोरे ही रह गए। निवृतिनाथ ने इस व्यंग्य पर मुक्ताबाई को लताड़ा एवं पत्रवाहक से कहा- योगीराज को हमारी कुटिया पर आने का आमंत्रण दें। योग का प्रभाव देखने के लिए, हाथ मे सर्प का चाबुक लिए, सिंह पर सवार, सभी शिष्यो के साथ, वे मिलने गए। आलिंदी में विराजमान ज्ञानेश्वर, जिस दिवार पर भाई-बहन सहित बैठे थे, उसी को सक्रिय कर स्वागत हेतु चल पड़े। चांगदेव ने यह चमत्कार देखा और श्रद्धावनत् हो, ज्ञानदेव से दीक्षित हुए । 

यह दीवार आज भी आलिंदी (महाराष्ट्र) में देखी जा सकती है। 

लौहपुरुष

आज देश के सामने कोई समस्या आती है तो बरबस मुँह से निकल पड़ता है-‘काश ! आज सरदार पटेल जीवित होते। ’जर्मनी के एकीकरण में जो भूमिका बिस्मार्क ने और जापान के एकीकरण में जो कार्य मिकाडो ने किया, उनसे बढकर सरदार पटेल का कार्य कहा जायेगा, जिनने भारत जैसे उपमहाद्वीप को, विभाजन की आँधी में टुकड़े-टुकड़े हाने से रोका । किस प्रकार देशी राज्यों का एकीकरण संभव हो सका। इस पर विचार करते है तो आश्चर्य होता है। एक-दो नहीं, सैकड़ो राजा भारतवर्ष में विद्यमान थे। उनका एकीकरण सरदार पटेल जैसा कुशल नीतिज्ञ ही कर सकता था। इसी कारण उन्हें लौहपुरुष कहा जाता है। 

आज राष्ट्र वैसी ही परिस्थिति से गुजर रहा है। हमें फिर वैसी ही, उसी स्तर की जिजीविषा वाली शक्तियो की जरुरत है। 

गुरु-शिष्य


चैत्र शुक्ल नवमी, रविवार, संवत् 1530 को जन्मे नारायण बालक को भगवान श्री राम का दास होने के कारण रामदास नाम मिला । बाद मे उनके शिष्यो ने उनकी शक्ति को देख, उन्हें समर्थ की उपाधि दी । देश की दशा को ठीक करना, लोकमत को जगाना और परमात्मा के प्रति विश्वास पैदा करना ही, उनका लक्ष्य होता था।

शिवाजी को उनने अपने कार्य का निमित्त बनाया । वैशाख शुक्ल नवमी, संवत् 1571 को उनने अपने प्रिय शिष्य शिवा को शिष्य बनाया- गुरुमंत्र दिया और प्रसाद रुप में एक नारियल, मुट्ठी भर मिट्टी दो मुट्टी लीद और चार मुट्टी पत्थर दिये, जो क्रमशः दृढ़ता, पार्थिवता, ऐश्वर्य एवं दुर्ग विजय के प्रतीक थे । महाराज शिवाजी राव ने गुरु का पह प्रसाद ग्रहण किया और साधु जीवन बिताने की अनुमति माँगी । 

समर्थ ने उन्हे समझाया - 

‘‘पीड़ितो की रक्षा तथा धर्म का उद्धार तुम्हारा कर्तव्य है। साधु वही है, जो कि अपनी वासना-तृष्णा, संकीर्ण स्वार्थपरता को त्यागकर, निस्वार्थ भाव से देश-घर्म की रक्षा करे।’’ शिवाजी ने अपनी सैन्यशक्ति से हिंदू पद पादशाही के प्रवर्तक बनने, छत्रपति कहलाने का श्रेय प्राप्त किया । हजारो महावीर मठ, जो समर्थ द्वारा स्थापित किए गए, वे प्रेरणा एवं जनसहयोग के स्त्रोत बने । परिणामस्वरुप मुगल साम्रज्य की जड़े खोखली हो गई, वह गिरकर ढेर हो गया । सारा श्रेय गुरु-शिष्य की इस जोड़ी को जाता है ।

राजनीतिक विरोध

रफी अहमद किदवई साहब के एक मित्र की पुत्री का विवाह था। उनसे किदवई साहब का राजनीतिक विरोध था। बोल-चाल तक नही थी । यहाँ तक कि उनने किदवइ साहब को विवाह में आमंत्रित तक न किया , किन्तु वे स्वयं वहाँ पहुँचे ओर कन्या को आशीर्वाद दिया । 

उन सज्जन ने जब अपने प्रतिद्वंद्वी रफी साहब को वहाँ देखा तो पश्चाताप् , आत्मग्लानि और स्नेह का प्रवाह उमड़ा कि वे रफी साहब के गले लिपट गए और क्षमा-याचना करने लगे। रफी साहब विनम्र स्वर में , इतना ही बोले-‘‘आपका -हमारा राजनीतिक मतभेद हो सकता सदा के लिए , किंतु यह तो घर का मामला है । आपकी बेटी , मेरी बेटी है।’’

इस घटना से आपसी मनमुटाव समाप्त हो गया । 

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